कठ उपनिषद् - सत्र सारांश – ४
प्रत्यगात्मा का स्वरूप
यमराज ने नचिकेता को उपदेश देते हुए समझाया कि आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों को भोगों के प्रति संयमित कर दे। किन्तु, उसमें समस्या ये आती है कि स्वयंभू ब्रह्मा जी ने समस्त इन्द्रियों को संसार की ओर बहिर्मुख बनाया हुआ है। इसलिए मनुष्य प्रायः बाहर की वस्तुओं को ही देखता है। अंतरात्मा को नहीं।
वस्तुतः इन्द्रियों का यह बाह्य स्वभाव भगवान् के सृष्टि-वैभव को देखने के लिए बनाया गया है। जिससे कि हम उनकी महिमा के प्रति नतमस्तक हो कर संसार के प्रति अहोभाव उत्पन्न करें तथा दैन्यभाव से संसार का उपयोग भगवान् की सेवा हेतु ही करें। किन्तु, अहंकार के कारण हमने माया के ऐश्वर्य को ईश्वर से पृथक् मान कर उसका भोग करना प्रारम्भ कर दिया और जन्म-मृत्यु के कर्मफलभोगों के चक्र में फँस गएँ।
परन्तु, यदि भोगों के नश्वर स्वरूप को समझ कर, उनसे उपराम हो कर, इन्द्रियों को अन्तर्मुखी कर लिया जाए तो उस प्रत्यगात्मा का प्रत्यक्षीकरण हो सकता है।
‘प्रत्यक् आत्मा’ के दो अर्थ किये जा सकते हैं:
- वह अणु ‘आत्मा’ जिसका समाधि में साक्षात्कार किया जाता है। (जीवात्मा)
- वह विभु ‘आत्मा’ जिसका आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् आत्मा द्वारा ही प्रत्यक्षीकरण किया जाता है। (परमात्मा)
पश्चात्, यमराज ने कहा कि जो मनुष्य इन्द्रियों के बाह्य आकर्षणों में ही व्यस्त रहता है वह मूर्ख के लिए उनके (यमराज के) मृत्युपाश सर्वत्र फैले हुए है। तात्पर्य, ऐसे भोगी के लिए यह संसार ऊर्जा व आयु क्षीण करने के संसाधन के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता। वह भोगी मनुष्य जीवनभर भोगों के लिए दूसरों के आगे सुख बढाने के लिए गिडगिडाता रहता है तथा मरणोपरांत वह यमदूतों के आगे दुःख घटाने के लिए गिडगिडाता रहता है। भोगी मनुष्य को इहलोक में या परलोक में कहीं भी शान्ति नहीं मिल पाती है।
मृत्युनियंता के द्वारा परमात्म-तत्त्व की महिमा का गान
पञ्च महाभूत एवं पञ्च तन्मात्राओं के इस विषय-विश्व में जीवों के सुख-दुःख की सारी व्यवस्था परमेश्वर के अनुग्रह से ही होती है। सकारात्मक जीवों को सुखमय वातावरण व अनुभवों से पुरस्कृत किया जाता है। नकारात्मक जीवों को दुखमय वातावरण व अनुभव दे कर उनके अंतःकरण की जड़ता को मिटा कर फिर से मृदु बनाया जाता है; जिससे कि वह जीव पुनः आनंद-प्राप्ति के लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सके।
यदि किसी सौभाग्यशाली जीव ने तत्त्वज्ञान अर्जित कर के उस पर पर्याप्त मनन कर लिया है तो उस जीव के इस सतत मनन-चिंतन के आध्यात्मिक प्रयास को पुरस्कृत कर के उसे भोगों से उपरामता प्रदान की जाती है। यह कार्य उस जीव के हृदय में स्थित भगवान् की ही अन्तःस्फुरणा से हो जाता है।
प्रतिदिन जीवों को जाग्रत में शक्ति प्रदान करना, स्वप्नावस्था के माध्यम से उसके तीव्र अनुभवों को एवं स्मृतियों को मंद या निष्कासित करना तथा सुषुप्ति (गहरी नींद) के द्वारा उस जीव को दूसरे दिन के कर्म करने के लिए उर्जावान बनाना – यह सब दैनिक कल्याणमय कार्य उस हृदयस्थ परमात्मा के अनुग्रह से ही होते रहते हैं।
निन्दात्मक स्वभाव को मिटाने का उपाय बताते हुए धर्मपुरुष यमराज ने कहा कि जो मनुष्य इस कर्मफलदाता एवं त्रिकाल-शासक परमात्मा को सब के समीप रहने वाले परम जीवन के रूप में जान लेता है वह किसी की निन्दा नहीं कर पाएगा। क्योंकि, निन्दा करने के लिए घृणा, क्रोध व द्वेष की भावना का अवलंबन लेना पड़ता है। ऐसा अवलंबन लेने से हमारे भीतर स्थित भगवान् तो दुखी होते ही हैं किन्तु ऐसी भावना से जिस किसी को भी शारीरिक या मानसिक रूप से आहत किया जाता है उस जीव के हृदयस्थ भी दुखी ही होते हैं। इस प्रकार, निन्दा, द्वेष आदि के द्वारा हम भगवान् को दोनों ओर से कष्ट प्रदान करते हैं। अतएव, यदि मनुष्य समझ ले की वह परमात्मा सब के हृदय में निवास कर रहा है तो वह किसी भी प्राणी को मन-वाचा-कर्म से दुखी नहीं कर सकेगा।
वस्तुतः परम तत्त्व वही है जो महत्-द्रव्य रूपी जल से पहले भी प्रकट ही रहता है। उस सब के आदि परमेश्वर ही ब्रह्मदेव द्वारा तप से जानने में आते हैं एवं पश्चात् परमेश्वर से ज्ञान प्राप्त कर के वे सृष्टि की रचना करते हैं। वह परात्पर ही हृदय-गुफ़ा में प्रविष्ट हो कर जीवात्माओं के साथ रहते हैं तथा जिस-जिस योनि में जीव जाता है उस-उस योनि में उसके साथ स्थिररूप से निवास कर के उस जीव के कर्मभोग के अनुसार उसके प्रारब्ध का क्षय, निर्माण आदि करते हैं।
मृत्युदेव ने परमेश्वर की स्तुति करते हुए, निचेकता को समझाया कि जो हृदयगुहा में स्थित रह कर ही, समस्त इन्द्रियों के भोग-समुदाय का अदन करनेवाली ‘अदिति’ नामक प्राण-शक्ति के रूप में, जीवों में व्याप्त होते हैं, वही परमात्म-तत्त्व है।
गर्भिणी स्त्रियों द्वारा धारण किए हुए सुविकसित गर्भ की भाँति वह परमेश्वर छिपा हुआ है। तात्पर्य, जैसे सुविकसित गर्भाधान करने वाली स्त्री के शरीर में एक पूर्ण विकसित शिशु होते हुए भी बाहर से केवल वह स्त्री ही दिखती है; वैसी ही इस नश्वर संसार के भीतर अविनाशी पूर्ण परमेश्वर व्याप्त होते हुए भी बाहर से केवल संसार ही दिखाई पड़ता है।
जिस प्रकार अरण्य (जंगल) में अग्नि व्याप्त होती है; किन्तु अप्रकट होती है; वैसे ही भगवान् भी संसार की इंधन-ऊर्जारूपी अग्नि के स्वरूप में व्याप्त होते हुए भी वे अप्रकट रहते हुए ही सृष्टि-स्थिति-प्रलय के सब कार्य करते हैं।
आहुतियों की सामग्रियों से संपन्न मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन स्तुति करने योग्य जो तत्त्व है, वही है वह भगवान्। (एतद्वै तत्।)
जो सूर्य रात्रि का अस्त कर के हमारे दिवस का उदय करता है एवं उस दिवस का अस्त कर के नवीन रात्रि का उदय करता है; उस सूर्य के जीवन का ही उदय-अस्त जिस तत्त्व की शक्ति से होते है वही है वह परम तत्त्व। ऐसे सर्वशक्तिमान भगवान् का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता है।
ऐसा नहीं है कि जो संसार कार्य में व्यस्त है वह भगवान् कोई और हैं और अपने दिव्य धाम में जो है वह भगवान् कोई और हैं। वस्तुतः एक ही भगवान्, माया के क्रियाकलापों को भी सँभालते हैं तथा अपने दिव्य धाम में भक्तों के साथ नित्यनवायमान लीलाएँ भी करते रहते हैं। इस संसार में भी जो अनेकों रूप प्रतिभासित होते हैं वे सब परमात्मा स्वयं बने हुए हैं। जब जीव इन रूपों की अलग सत्ता स्वीकार कर के उनमें अनेकता का भेद कर लेता है तब वह भोगी बन जाता है। पश्चात्, वह ‘मृत्यु’ (यमराज) के द्वारा पुनःपुनः मृत्युपाश में बंध कर पापभोग करता रहता है।
वह परमेश्वर जो समस्त संसार में व्याप्त हैं वे जीवों के हृदय में किस परिमाण से रहते हैं ऐसी सहज शंका हो सकती है। उसका समाधान करते हुए धर्मपुरुष ‘अन्तक’ ने नचिकेता को समझाया कि शरीर के मध्य में हृदयाकाश में स्थित वह परमेश्वर ‘अंगुष्ठमात्र’ परिमाण वाला है; अर्थात् एक मानव अंगूठे के जितना उनका परिमाण है। तात्पर्य, भगवान्, जीव, दहराकाश, हृत्-प्रदेश आदि का जो जैव परिमाण है – जहाँ जीवात्मा व परमात्मा साथ-साथ निवास करते हैं – उसकी यदि किसी मनुष्य के पूरे शरीर के साथ तुलना की जाए तो वह अगम्य आकाश मानो केवल एक अंगूठे जितना ही दीखेगा! जैसे, कोई आकाशगंगा लाखों प्रकाशवर्ष दूर होती है तो हमें केवल एक अंगूठी जितनी ही दिखती है वैसे!
इस प्रकार, भगवान् के संसारस्थ एवं जीवस्थ स्वरूपों का एवं उन स्वरूपों से जुड़े हुए तत्-तत् कर्मों का विवरण करके यमराज ने नचिकेता को परम-तत्त्व विषयक गूढतम ब्रह्मविद्या का उपदेश किया। यह ब्रह्मविद्या का उपदेश अगले सत्र में भी क्रमशः चलेगा।
सारांश: JKYog India Online Class- उपनिषद सरिता [हिन्दी]- 10.09.2024