कठ उपनिषद् - सत्र सारांश – ३
नचिकेता के वैराग्य से शिक्षाप्राप्ति
जिस सहजता से नचिकेता ने यमराज द्वारा दिए गए प्रलोभनों को ठुकराया है; उससे हमें आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर करने वाली वैराग्य-विषयक कुछ महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं। जैसे कि,
भोगों का स्वरूप:
समस्त भोग इतने अल्पजीवी होते हैं कि मानो कल ही उनका अंत हो जाएगा। भोग भोगी के अंतःकरण का शक्तिमय ओजस क्षीण कर देते हैं। चाहे जितनी ही दीर्घ आयु हो, वह नश्वर होने से अल्प ही भासित होते हैं।
धन की सीमितता पर विचार:
प्रचुर धन भी न तो मनुष्य को तृप्त कर पाता है, न ही उसकी तर्पण-क्रिया का स्थान ले कर उसकी सद्गति ही करा सकता है। धन-विलास से वासनाओं का गुणाकर ही होता है; शमन नहीं। धन का त्यागपूर्वक सदुपयोग ही धन-अर्जन की यथार्थता है।
मानव-शरीर की यथार्थता:
मानव-शरीर प्राप्त करने पर अपने आत्म-तत्त्व की नित्यता पर सुनिश्चित विचार करना ही बुद्धिमत्ता है। पश्चात्, उस आत्मा के अंशी परमात्मा की उपासना में तल्लीन हो कर इस मानव-जीवन को सफल करना ही एकमात्र मानव-कर्त्तव्य है।
यमराज द्वारा नचिकेता को ब्रह्मविद्या का उपदेश:
स्वर्गारोहण की अग्निविद्या का दान दे कर, अब मृत्युराज ने नचिकेता को उससे भी सूक्ष्म तथा परम गति कराने वाली ब्रह्मविद्या का उपदेश देना प्रारंभ किया।
‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ का स्वरूप:
जो साधन अपने गुणों से स्वतः ही जीव के कल्याण के लिए श्रेयस्कर हो वह समस्त साधन-समूह ‘श्रेय’ कहलाते हैं। जैसे, भक्ति, श्रद्धा, संकीर्तन, ध्यान, पूजा आदि।
जो भोगाकर्षण हमारे संसारी मन को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं वैसे मन को स्वाभाविक ही प्रिय लगने वाले समस्त मायिक भोग-समुदाय को ‘प्रेय’ कहते हैं। जैसे, शारीरक सुख, धन का विलास, स्वर्गीय कामना, सिद्धियों का वैभव इत्यादि।
मनुष्य चाहे आध्यत्मिक मार्ग का पथिक हो चाहे घोर संसारी ही क्यों न हो; उसके सामने श्रेय और प्रेय परिस्थितियाँ आती ही रहती है। वस्तुतः ईश्वरकृत बाह्य संसार अपने आप में तटस्थ है। वह जीव को परिस्थिति प्रदान करता है। किन्तु, जीवकृत आतंरिक संसार (अंतःकरण की मान्यताएँ, आग्रह एवं कामनाएँ) ही यह निर्णित करता है कि बाह्य संसार से प्राप्त परिस्थिति का उपभोग (प्रेय) करना है या उपयोग (श्रेय) करना है।
मनुष्य यदि गुरु-प्रदत्त तत्त्वज्ञान में सन्निष्ठ रहता है; संसार को गुरुज्ञान के विवेक का चश्मा लगा कर ही देखता है तो वह कभी भी अल्पजीवी इन्द्रिय-सुखों को भोगने में अपने मूल्यवान मानव-समय को नष्ट नहीं करेगा। ऐसे मनुष्य का अंतःकरण ‘श्रेय’ का ही चयन करेगा और प्राप्त परिस्थिति का विवेकपूर्वक उपयोग कर के हरि-गुरु के प्रति अपने सेवा-समर्पण के भाव को ही पुष्ट करेगा।
किन्तु, यदि मनुष्य की यही दृढ़ मान्यता है कि “संसार में ही शाश्वत सुख है। मुझे भले ही नहीं मिला लेकिन कभी ना कभी तो मिलेगा ही।“ तो उसका सारा मानसिक चिंतन-संकल्प तथा समस्त शारीरिक चेष्टाएँ अनित्य संसार में नित्य सुख खोजने के वृथा प्रयत्नों में ही लगी रहेगी। ऐसे हठाग्रह से युक्त अंतःकरण सदैव ‘प्रेय’ का ही चयन करेगा और अत्यंत ही कामी हो कर प्राप्त परिस्थिति का उपभोग कर के अपने मूल्यवान मानव-समय एवं शारीरिक, मानसिक व आर्थिक ऊर्जा का नाश करेगा! क्योंकि, ऐसे मनुष्यों के लिए सांसारिक योगक्षेम ही उनका सर्वस्व है। अर्थात्, जो अप्राप्त वस्तु/व्यक्ति है उनकी प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना यह ‘योग’ तथा प्राप्त सांसारिक वस्तु/व्यक्ति को बचाए रखने का, उनको टिकाए रखने का प्रावधान करते रहना यह ‘क्षेम’ में ही वह अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं।
‘प्रेय’ मार्ग के भोगी मनुष्यों का विवरण:
श्रेय और प्रेय मार्गों की परिभाषाओं को सुस्पष्ट कर के यमराज ने प्रेय का चयन कर के उसके भोगों में निमग्न मनुष्यों की कुंठित मानसिकता का वर्णन करते हुए कहा –
प्रेयमार्गी मनुष्य माया के अविद्या रूप अन्धकार में ही जीवन की सत्ता का अनुभव करता है। अविद्या में ही प्रवर्तमान होते हुए वह स्वयं को मनमाना विद्वान और ज्ञानी घोषित कर देता है। भोगों के विपरीत एक भी बात उसे नहीं सुहाती। उसे यह आवश्यकता ही नहीं लगती कि भोगों की गति को जाने, इससे भी भिन्न कोई श्रेष्ठ जीवन है या नहीं उसकी विवेचना करे, स्वयं को सुधारे इत्यादि।
चूँकि ऐसे मनुष्य स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान समझ रहे होते हैं; वे किसी महात्मा की बात भी नहीं सुनते। उन्हें प्रवचन आदि बकवास लगता है। वे तो अपने जैसे कोई भोगी की या अपने से भी बड़े भोगियों की ही बात सुनते हैं; जिससे उसे अपने भोगों का विस्तार करने की जानकारी मिले।
इन्हें बस अपने आर्थिक लक्ष्य की ही चिंता होती है। गाडी, बंगला, नौकर-चाकर, बेंक-बेलेंस इन सब भोग-सामग्रियों को बढ़ाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य होता है। ऐसे, वित्त (संपत्ति) के आकांक्षी मनुष्य को ‘वित्तमयी सृंका’ (संपत्ति की बेड़ी) जकड लेती है। पश्चात्, वे वित्तमोह के प्रमादवश परलोक के प्रति ‘अप्रतिभाति’ हो जाते हैं अर्थात् ‘परलोक’ जैसी कोई वस्तु है ऐसा भी इनको प्रतिभास नहीं रहता। वे तो इहलोक के भोगों में ही प्रत्यक्षवादी व अतिमानी (हठाग्रही) हो कर, उन भोगों के अभिमानी हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य स्वभावतः त्यागमय पुण्य नहीं कर पातें और पुनःपुनः यमपाश के वश में होते हैं।
आत्म-तत्त्व के दुर्लभत्व का निरूपण:
नचिकेता के भोगों के अस्वीकार का समर्थन करते हुए यमराज ने उसे उपर्युक्त ‘श्रेय-प्रेय-विवेक’ समझाया।
पश्चात्, आत्म-तत्त्व विषयक उसकी जिज्ञासा के समाधान का प्रारंभ करते हुए यमराज ने कहा –
मृत्युलोक में आत्म-तत्त्व के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिल पाती। इसमें प्रमुख रूप से आत्मा की दुर्लभता कारणभूत है। जैसे कि,
- आत्म-तत्त्व अधिकाँश जन-समुदाय के लिए श्रवण-अलभ्य है।
- लोगों को संसार के विषयों की बातें बोलना ही पसंद है। स्वरूप पर कोई विचार ही नहीं करता तो आत्मा के विषय में सुनने को ही कहाँ मिलेगा!
- आत्म-तत्त्व के श्रवण-प्राप्त समुदाय में भी बहुतों के लिए यह बुद्धि-अगभ्य है।
- यदि कोई आत्मा के विषय में सुन भी ले तो यह इतना जटिल विषय है कि सुनने मात्र से समझ में नहीं आता।
- दिव्य तत्त्व होने के कारण आत्मा मायिक बुद्धि की पकड़ में भी नहीं आता।
- आत्म-तत्त्व उसका निरूपण करने वाले वक्ता के लिए भी आश्चर्यमय ही है।
- यदि कोई प्रमाणभूत वक्ता आत्म-तत्त्व के विषय में कुछ बताता है तो भी वह बताते हुए ही आत्मा के लक्षणों से विस्मित हो जाता है। क्योंकि; ज्यों-ज्यों हम आत्म-तत्त्व के विषय में बोलते जाते हैं त्यों-त्यों हम हमारे ही स्वरूप को स्पष्ट करते जाते हैं; जो हमें हमारी ही विलक्षणता से अभिभूत कर देता है – ऐसा विलक्षण है यह तत्त्व!
- आत्म-तत्त्व का बोध कर लेने वाले आत्मज्ञानी के लिए तो यह परम आश्चर्यमय है!
- यदि किसी विरले ने आत्म-साक्षात्कार कर भी लिया है तो उसके परम आश्चर्य की तो बात ही क्या! स्वयं का भगवान् के दिव्य अंश के रूप में आभासमात्र प्राप्त होने पर ही उसकी ऐसी समाधि लग जाती है कि वह संसार में प्रवृत्त ही होना नहीं चाहता।
संसार में आत्म-तत्त्व के अलभ्यत्व पर विचार:
यद्यपि आत्मा अपने आप में अत्यंत ही विलक्षण है; किन्तु संसार में भी ऐसे अनेक प्रमाद हैं तथा अन्य मर्यादाएँ हैं जिससे कि यह तत्त्व की चर्चा दुर्लभ ही रह जाती है। जैसे कि,
यद्यपि आत्मा अपने आप में अत्यंत ही विलक्षण है; किन्तु संसार में भी ऐसे अनेक प्रमाद हैं तथा अन्य मर्यादाएँ हैं जिससे कि यह तत्त्व की चर्चा दुर्लभ ही रह जाती है। जैसे कि,
- आत्म-तत्त्व बहुधा अल्पज्ञ मनुष्यों द्वारा बतलाया जाता है। (अवरेण नरेण प्रोक्तः।)
- यदि मानव समाज में आत्मा की बात कोई छेड़ भी देता है तो अधिकाँश ऐसे मनुष्य ही उस पर अपनी टिप्पणी देने लगते हैं जिन्हें सांसारिक भोगों के अतिरिक्त और कुछ नहीं सुहाता। ऐसे लोगों को यमराज ने ‘अवर नर’ (निम्न कोटि के मनुष्य) कह कर उनकी दुखपूर्वक अवहेलना की है।
- आत्म-तत्त्व का अधिकतर अनधिकारियों द्वारा ही चिंतन किया जाता है। (अवरेण नरेण बहुधा चिन्त्यमानः।)
- जब उपर्युक्त प्रकार के अवर नर आत्मा के विषय में बोलना शुरू करते हैं तब उनका समर्थन करने वाले एवं उनके कथनों पर वारंवार चिंतन करने वाले मनुष्य भी उन्हीं के जैसे ‘अवर नर’ ही होते हैं।
- इनके द्वारा आत्मा के ऊपर अनेकों प्रकार के काल्पनिक तर्क-वितर्क-कुतर्क किये जाते हैं; जिसका आत्मा की सत्यता के साथ कोई संबंध ही नहीं होता है।
- आत्म-तत्त्व का सटीक वर्णन करनेवाले सुविज्ञ महात्माओं का मिलन भी मृत्युलोक में सुदुर्लभ है।
- वर्तमान कलियुग में किसी को आत्म-तत्त्व की भूख ही नहीं है। अतः परम तत्त्व का अनुभव कर चुके महात्मागण स्वयं को गुप्त ही रखते हैं। परिणामतः ऐसे तत्त्वज्ञ का मिलन अत्यंत दुर्लभ हो जाता है।
- आत्म-तत्त्व जिसका अणु-प्रमाण दिया जाता है उससे भी अधिक सूक्ष्म है। (अणुप्रमाणात् अणीयान्।)
- आत्मा सूक्ष्मता की पराकाष्ठा है। यह सूक्ष्मता उसे भगवान् से ही प्राप्त हुई है। यथा –
सूक्ष्माणामप्यहं जीवो। (श्रीमद् भागवत – ११.१६.११)
अर्थात् “हे उद्धव! सूक्ष्म अभिव्यक्तियों में मैं (श्रीकृष्ण) जीव हूँ।“
इतने सूक्ष्म आत्मा को साधारण मानव-बुद्धि से ग्रहण करना असंभव ही रह जाता है।
- आत्मा सूक्ष्मता की पराकाष्ठा है। यह सूक्ष्मता उसे भगवान् से ही प्राप्त हुई है। यथा –
- आत्म-तत्त्व दिव्य होने के कारण अतर्क्य है।
- यह आत्मा में मायिक प्रकृति का लवलेश भी नहीं है। वह केवल भगवान् का ही अंश है। यथा –
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। (भगवद्गीता – १५.७)
अर्थात् “हे अर्जुन! जितने भी जीवलोक हैं उनमें जीतने भी जीव हैं वे सब मेरे ही (मम एव) अंश हैं।“
- यह आत्मा में मायिक प्रकृति का लवलेश भी नहीं है। वह केवल भगवान् का ही अंश है। यथा –
अतः भगवान् का ही अंश होने के कारण यह आत्मा परमात्मा की तरह दिव्य ही है। अतः वह मायिक स्थूल बुद्धि के तर्क से परे है। क्योंकि ‘तर्क’ (तर्क्+अच्) का अर्थ ही होता है – ‘तथ्यों के आधार पर निष्कर्षित अनुमान।‘
दैनिक भोगी जीवन जीनेवाले मनुष्यों के पास आत्मा के विषय में कोई अनुभवात्मक तथ्य ही कहाँ होते हैं जिससे कि वे आत्मा का अनुमान भी लगा सके! अतः ऐसा अतर्क्य आत्मा सांसारिक प्रयत्नों से अलभ्य ही रहता है। अतएव वेदों-शास्त्रों का ‘शब्द-प्रमाण’ ही आत्मा को जानने का एकमात्र उपाय है।
‘अन्तकदेव’ के यम-पद-वरण का संक्षिप्त वर्णन:
आत्म-तत्त्व के दुर्लभत्व तथा संसार में उसके प्रायः अलभ्यत्व का वर्णन कर के मृत्युराज ने नचिकेता को कहा –
आत्म-तत्त्व के दुर्लभत्व तथा संसार में उसके प्रायः अलभ्यत्व का वर्णन कर के मृत्युराज ने नचिकेता को कहा –
“हे प्रिय नचिकेता! तुम्हारी भाँति मैंने भी कर्मफलरूप ‘शेवधि’ (मूल्यवान निधि) की अनित्यता को जान लिया था। मैंने यह भी अनुभव कर लिया था कि मृत्युलोक के अस्थिर (अध्रुव) पदार्थों के संकलन से सुस्थिर (ध्रुव) पद की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अतः मैंने कर्तव्यबुद्धि-परायण हो कर इसी ‘नाचिकेत विद्या’ का अनुशीलन कर के वर्णाश्रम धर्म को सिद्ध कर के ‘यमदेव’ का पद प्राप्त किया; और अब ‘धर्मपुरुष’ के रूप में इस पद का मैं वहन कर रहा हूँ।“
यहाँ यमराज ने नचिकेता को कहा है कि “नित्यं प्राप्तवान् अस्मि।“ अर्थात् “मैं नित्य पद को प्राप्त हुआ हूँ।“
तो यहाँ ‘नित्यं’ का अर्थ अमर पद नहीं है; अपितु नीति-नियमों का नियमन करने वाले ‘यमदेव’ नामक ‘नियत’ पद से है।
क्योंकि, जहाँ ‘नित्य’ का एक अर्थ ‘नियतियों से परे’ (शाश्वत) होता है; वहीं ‘नित्य’ की एक परिभाषा है –
नियमेन नियतं वा भवम् इति नित्यम्।
अर्थात्, “नियमों के द्वारा सुनिश्चित किया जा सके वैसा क्षेत्र या पद।“
अर्थात्, “नियमों के द्वारा सुनिश्चित किया जा सके वैसा क्षेत्र या पद।“
ऐसे ही नियमों के आधीन किन्तु सुनिश्चित ‘यमदेव’ पद की प्राप्ति को यमराज ने ‘नित्यं प्राप्तवान् अस्मि’ कहा है।
यमराज द्वारा परम तत्त्व के बोध का निरूपण:
नचिकेता की आत्म-तत्त्व विषयक जिज्ञासा को सुचारू रूप से शांत कर के अब उसकी परम तत्त्व विषयक जिज्ञासा का समाधान करते हुए मृत्युनियंता यमराज ने कहा –
- जो सब की हृदयगुहा में योगमाया के पर्दे में गूढ़रूप से छिपा हुआ है; जो संसाररूप गहन वन में रहनेवाला है, सनातन है; उस दुर्दर्श देव को अध्यात्म-योग के द्वारा प्राप्त कर लेना चाहिए।
- सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति – समस्त वेदमंत्र जिस परम पद का आमनन (प्रतिपादन) करते हैं; समस्त तप जिस पद की प्राप्ति के लिए कहे गए हैं; जिसके इच्छुक भगवत्पिपासु सर्वत्र परब्रह्म की चर्या (लीला) को सतत देखने का प्रयास करते हैं वह परम पद ‘प्रणव एकाक्षर ॐ’ से इंगित किया जाता है।
- परब्रह्म का आलंबन ही श्रेष्ठ व अंतिम आश्रय है। इसके द्वारा ही परब्रह्म के लोक में जीव महिमावान होता है।
- इसी परमेश्वर का अंश ऐसा यह जीव भी नित्य ज्ञान-स्वरूप, अजन्मा, अमर, अकारण (न कुतश्चित्), अकार्य (न कश्चित्), नित्य, शाश्वत, सृष्टि से भी पुरातन तथा शरीर के नष्ट होने पर भी रहनेवाला है।
- यदि कोई इस आत्मा को स्वयं के द्वारा या दूसरों के द्वारा मारा जानेवाला समझता है तो वह आत्म-तत्त्व को ही नहीं जानता। क्योंकि, आत्म-तत्त्व न तो किसी को मारता है न ही किसी के द्वारा मारा जा सकता है।
- इस अणुमय आत्म से भी सूक्ष्म वह परमात्मा है; जो जीवों की हृदयगुहा में निहित है। वह परब्रह्म चराचर विश्व से भी महान (बृहद्) है। राग-द्वेषरहित (वीतशोकः) तथा कामनारहित (अक्रतु:) उपासक ही उस सर्वाधार की कृपा से (धातुप्रसादात्) ही उस महिमावान का दर्शन कर पाता है।
- यह सर्वात्मा भगवान् न तो प्रवचन सुनाने से; न मेधावी सामर्थ्य से; न अनेक बार प्रवचनों को सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। किन्तु, वह जिस जीव का स्वयं चयन (वृणुते) कर लेता है; उसको ही वह अपने यथार्थ सगुण-साकार रूप का (स्वाम् तनूम्) दर्शन कराता है (विवृणुते)।
- धर्म का विस्तार करनेवाले ब्राह्मण तथा धर्म की रक्षा करनेवाले क्षत्रिय भी अन्य जीवों सहित, प्रलयकाल में, जिस परमेश्वर का भोजन बन जाते हैं, तथा सब का संहार करनेवाली मृत्यु (यमराज) भी जिसका उपसेचन (चटनी, व्यंजन आदि) बन जाती है; वह परमेश्वर जैसा है वैसा ठीक-ठीक कौन जान सकता है !?
इस प्रकार यमराज ने नचिकेता के तीसरे वरदान की पुष्टि करते हुए आत्मा तथा परमात्मा विषयक अभूतपूर्व ज्ञान प्रकाशित किया। आगे की वल्ली में भी अब यमराज परम तत्त्व के निगूढ़ ज्ञान को अधि सूक्ष्मता से उजागर करेंगें।
सारांश: JKYog India Online Class- उपनिषद सरिता [हिन्दी]- 3.09.2024
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