कठ उपनिषद्- सत्र सारांश – १
उपनिषद् शब्द उप (पास में) + निषद् (बैठना) की संधि से बना हुआ शब्द है𑅁
प्राचीन काल में सभी शिष्य गुरुकुल में जा कर, श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास बैठ कर, विनीत भाव से परम तत्त्व का उपदेश सुनते-समझते थें𑅁 इस प्रकार, पास जा कर तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करने की इस परंपरा को ही ‘उपनिषद् परंपरा’ कहते हैं𑅁
विद्वानों के एक अन्य मत अनुसार, वेदों के ब्राह्मण, आरण्यक, संहिता, खंड आदि के अंतिम भाग में ‘उपसंहार’ के रूप में आने वाले सारभूत ज्ञान को ‘उपनिषद्’ कहा गया𑅁
वेदों के प्रत्येक विभाग के अंतिम चरण में आने वाले होने के कारण उपनिषद् का एक नाम ‘वेदान्त’ भी है𑅁
इन्हीं वेदान्त (उपनिषदों) का सार, भगवान् वेदव्यास जी ने सूत्रों में कर दिया, जो ‘वेदान्त-सूत्र’ कहे गए𑅁इन सूत्रों में ब्रह्म का विशद वर्णन होने से उन्हें ‘ब्रह्म-सूत्र’ भी कहा जाता है𑅁
वस्तुतः किसी भी उपनिषद् के प्रत्येक मंत्र वेदमंत्र ही है𑅁 प्रत्येक वेदमंत्र का एक ही लक्ष्य है – मायाबद्ध जीव की बुद्धि को ज्ञानप्रकाश से आलोकित कर के उसे अनादिकालीन अज्ञान-अन्धकार से निकाल कर, उस जीव को उसके अंशी सगुण-साकार भगवान् से मिला देना𑅁 तात्पर्य, समस्त वेद जीवों की मायानिवृत्ति एवं भगवत्प्राप्ति के लिए तत्पर रहते हैं𑅁 यथा–
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति𑅁
(कठ उपनिषद् – १.२.१५)
अर्थात्, “समस्त वेदमंत्र जीवों को उस परम तत्त्व की ओर ले जाने वाली योजनाएँ ही हैं𑅁”
जगद्गुरु परंपरा में जिन उपनिषदों पर भाष्य लिख कर उन्हें प्रमुख उपनिषदों के रूप में स्वीकार्य किया गया है, वे इस प्रकार हैं – ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक और छान्दोग्य𑅁
तदुपरांत, उपासना काण्ड सम्बंधित महत्त्वपूर्ण उपनिषद् हैं – कृष्ण, गोपाल पूर्व तापनि, राधा, राधिका तापनि इत्यादि𑅁
कठ उपनिषद् - विहंगावलोकन
कठ उपनिषद् कृष्ण-यजुर्वेद की ‘कठ’ शाखा के अंतर्गत आने वाला उपनिषद् है𑅁
‘कठ’ शब्द का प्रचलित अर्थ है – कठीन या जटिल𑅁 उसका एक विशिष्ट अर्थ है – काष्ठ𑅁
इस उपनिषद् को दिव्य वृक्ष के रूप में परिकल्पित किया गया है𑅁 इसीलिए, उसके तने को ‘कठ’ (काष्ठ) के रूप में एवं इसके अध्यायों के प्रकरणों को वल्ली (वल्लरी, लता, बेल) के रूप में परिकल्पित किया गया है, जो उस तने से लिपटी हुई है𑅁
कठ उपनिषद् की प्रमुख विषयवस्तु है – मानवशरीर की अनिवार्यता, दुर्लभता एवं क्षणभंगुरता पर विचार कर के, भोगों से मन को उपराम करा कर उसे भगवान् की महिमा में सुस्थिर करना𑅁
प्रथम अध्याय की तीनों वल्लीयों को मिला कर विश्व-विख्यात ‘यम-नचिकेता संवाद’ प्राप्त होता है; जिस पर न केवल भारतीय अपितु पाश्चात्य मनिषियों ने भी गंभीरतापूर्वक विचार किया है𑅁
इस उपनिषद् में ‘श्रेय मार्ग’ तथा ‘प्रेय मार्ग’ की व्यापक परिभाषा के साथ भगवत्कृपा के महत्त्व को उजागर किया गया है𑅁
रथ-रथी के रूपक से विवेकशील स्वाधीनता एवं परम गति का सुन्दर निरूपण भी हमें इसमें मिलता है𑅁
‘जन्म’ और ‘मृत्यु’ – जीवन की इन दोनों वास्तविकताओं का महत्त्व समझाने वाला यह एक अनूठा उपनिषद् है।
कठ उपनिषद् – पूर्वभूमिका
गौतमीय गोत्र में जन्म लेने वाले महर्षि अरुण – जो वाज (अक्षत चावल) के दान के लिए सुप्रसिद्ध (श्रवा) होने के कारण ‘वाजश्रवा’ कहे जाते थें – के पुत्र ‘आरुणि’ हुए𑅁
आरुणि पुराण-प्रसिद्ध ऋषि धौम्य के वही एकनिष्ठ गुरुभक्त शिष्य थे जो अपनी गुरुभक्ति से ‘उद्दालक’ के नाम से प्रसिद्ध हुए𑅁 वाजश्रवा के पुत्र होने के कारण वे ‘वाजश्रवस’ के नाम से उपनिषदों में प्रख्यात हुए𑅁
वाजश्रवस (आरुणि या उद्दालक) के दो पुत्र थें – श्वेतकेतु और नचिकेता𑅁 श्वेतकेतु ज्ञानप्रधान परमहंस हुए और नचिकेता भावप्रधान परमहंस हुए𑅁 इन दोनों का वर्णन हमें ‘परमहंस उपनिषद्’ में भी मिलता है𑅁
एक बार इन वाजश्रवस ने ‘विश्वजित’ यज्ञ करने का संकल्प किया𑅁 इस यज्ञ के विधान अनुसार, शरीर ढँकने के लिए उपयुक्त वस्त्र के अतिरिक्त जो कुछ भी विश्व से प्राप्त किया है – यहाँ तक की सारे पारिवारिक सभ्य भी जो कि विश्व की ही देन हैं – उन सब वस्तुओं एवं व्यक्तियों का यथोचित दान करना होता है𑅁
इस यज्ञ के लिए जो गो-दान करना था उसके लिए वाजश्रवस ऐसी गायों का दान कर रहे थें जो कि अंतिम बार जल पी चूकी थीं, जीर्ण हो गई थीं, जिनमें दूध देने की क्षमता नहि रही थी𑅁 ऐसी निकृष्ट गायों का दान करते हुए देख नचिकेता ने अपने पिता वाजश्रवस को पुत्र-भाव से प्रेरित हो कर, टोकते हुए कहा – “पिताजी! इस प्रकार के दान से हमारे पितृ कलंकित होंगें एवं जिन्हें दान दिया जा रहा है उन ब्राह्मणों का भी यह अपमान है𑅁”
वाजश्रवस ने अपनी भूल सुधारी और दान की गुणवत्ता एवं अपने भाव को उत्कृष्ट किया𑅁 किन्तु, वह नचिकेता से रुष्ट रहने लगे और उससे बात करना कम कर दिया𑅁
कुछ दिन बाद, उत्सुकतावश, नचिकेता ने अपने पिताजी से पूछा कि, “पिताजी! जब मेरी बारी आयेगी, तब आप मुझे किसे दान में देंगें?” वाजश्रवस ने कोई उत्तर नहि दिया𑅁 तो, नचिकेता ने एक ही प्रश्न तीन-तीन बार पूछा! तब, पिता ने क्रोध में आ कर कह दिया कि, “मैं तुझे ‘मृत्यु’ (यमराज) को देता हूँ𑅁 (‘मृत्यवे त्वा ददामीति’)”
किन्तु, नचिकेता रुष्ट या उदास नहि हुआ𑅁 उसने उत्तम पुत्र की भाँति पिता को अपने पितृओं के यशस्वी मार्ग पर अग्रसर रहने का उपदेश दिया𑅁 पश्चात्, पिता की दी हुई आहुति के कारण प्रकट हुए यमदूतों के साथ, ससम्मान यमपुरी पहुँचा𑅁
यमपुरी पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि यमराज ‘अन्तक’ तो पितृलोक गए थें; क्योंकि पितृलोक में भी अर्यमा आदि लोकाधिपतियों के साथ यमराज के कार्य-भार का आकलन होता रहता है𑅁
यमदूतों द्वारा यम-पत्नी ‘धूमोर्णा’ को नचिकेता के विषय में जनाया गया𑅁 ‘धूमोर्णा’ युद्ध-बलि की देवी है𑅁 युद्ध में वीरगति प्राप्त जीव को इनके पास लाया जाता है; एवं इनकी अनुमति प्राप्त कर के ही उस जीव को – उसकी देशसेवा की भावना की तीव्रता एवं शुद्धि के अनुपात में – कुछ क्षण या कुछ दिन के लिए स्वर्ग में भेजा जाता है𑅁
साक्षात् धर्मपुरुष यमराज ‘अन्तक’ की आदर्श धर्मपत्नी ‘धूमोर्णा’ ने ब्राह्मण-बालक नचिकेता का सत्कार किया और अन्दर पधारने के लिए कहा𑅁
यह जान कर बालक नचिकेता ने सोचा कि, “मैं तो यमराज को दीया हुआ दान हूँ𑅁 अतः वे मेरे ‘दान-स्वामी’ हुए𑅁 तो, स्वयं दान-दत्त होने के कारण मैं उनकी अनुमति के बिना न तो यमपुरी में प्रवेश कर सकता हूँ; न ही मैं कुछ भोजन या जल ग्रहण कर सकता हूँ𑅁” ऐसा विचार कर, उसने ‘धूमोर्णा’ देवी का सुस्वागत नकार दिया𑅁 पश्चात्, तीन-तीन रात्रियों तक बिना कुछ खाए-पिए यमद्वार पर ही अपने दान-स्वामी की प्रतीक्षा करने लगा𑅁
चौथे दिन प्रातः जब यमराज पधारें तो धूमोर्णा देवी ने नचिकेता का सारा वृतांत सुनाया; और नचिकेता का उचित अतिथि-सत्कार करने के लिए कहा𑅁 मृत्युदेव ने अत्यंत विनीतभाव से नचिकेता को अपने यमधाम में बुलाया तथा भोजन व जल ग्रहण करवा कर उसे तृप्त किया𑅁 पश्चात्, मृत्युदेव ने नचिकेता को प्रत्येक रात्रि में की हुई प्रतीक्षा के बदले में एक-एक (अर्थात्, तीन) वरदान माँगने के लिए निवेदन किया, जिससे की यमराज स्वयं को ब्राह्मण-अपराध की ग्लानि से मुक्त कर सकें! यह आदर्श है ‘धर्मराज यमदेव’ का! बिना अपनी कोई भूल के भी वे दान-दत्त नचिकेता द्वारा की हुई प्रतीक्षा के लिए स्वयं ग्लानि अनुभव करते हैं एवं उसे वरदान माँगने को भी कहते हैं! वे दान में मिले नचिकेता को वर का दान कर रहे हैं!
दान-दत्त नचिकेता ने सोचा कि इनकी आज्ञा का उल्लंघन करने का भी मुझे अधिकार नहि है; क्योंकि मैं तो इन्हीं को दान में दिया जा चूका हूँ! इस विचार से उसने यमराज से यह तीन वरदान माँगें:
- आप मुझे वापस भेजें तब मेरे पिता क्रोध व खेद से मुक्त हो कर मुझसे प्रेमपूर्वक वर्ताव करें।
- जन्म, मृत्यु, ज़रा, व्याधि, क्षुधा और तृष्णा से रहित ऐसे उस ‘स्वर्ग लोक’ की प्राप्ति की ‘अग्निविद्या’ (साधन विद्या) प्रदान करें।
- आत्म-तत्त्व से जुड़ें सारें संशयों को दूर कर के परम तत्त्व का भलीभाँति उपदेश करें।
सत्र-विशेष
1. गो-दान का सूक्ष्म रहस्य:
प्राचीन समय में पशुधन बहुत हुआ करता था; इसलिए गो-दान में गायों का विशेष दान किया जाता था।
1. गो-दान का सूक्ष्म रहस्य:
प्राचीन समय में पशुधन बहुत हुआ करता था; इसलिए गो-दान में गायों का विशेष दान किया जाता था।
किन्तु, संस्कृत में व्याकरण के धातु-विच्छेद से ‘गो’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यथा – भूमि (ज़मीन का टुकड़ा), सम्पूर्ण पृथ्वी और इन्द्रियाँ।
अतः यदि कोई अपने पास की ज़मीन का टुकड़ा किसी ब्राह्मण को आश्रम इत्यादि बनाने के लिए दान कर दे तो वह भी गो-दान कहा जा सकता है।
पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी का नाम ‘गो’ है। यही ‘गो-देवी’ को हम ‘भू-देवी’ भी कहते हैं। पृथ्वी के संवर्धन के लिए यदि हम कोई प्राकृतिक-विकास की योजनाओं को चरितार्थ करते हैं तो वह भी गो-
देवी के निमित्त किया गया दान – ‘गो-दान’ ही माना जाएगा।
इन्द्रियों को भी ‘गो’ कहा जाता है। इसीलिए, जो इन्द्रियगम्य होता है उसे ‘गोचर’ कहते हैं। यथा –
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
(रामचरितमानस)
अर्थात्, “जहाँ तक इन्द्रियाँ इस संसार को अनुभव में ला सकती है वह सब माया का ही क्षेत्र है।“
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन – यह सब कुछ इन्द्रिय-समुदाय में ही आता है। कर्मेन्द्रियाँ गौण हैं। मुख्यतः तो पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही है एवं मन मानो छठी इन्द्रिय है। यथा –
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।
(भगवद्गीता – 15.7)
अर्थात्, “प्रकृति में स्थित यह मन सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्रिय – छठी इन्द्रिय – बन कर मानो बाकी की समस्त पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषयों की और आकृष्ट हो कर कर्मेन्द्रियों को तदनुसार प्रवृत्त करता है।“
यह छहों गो (इन्द्रियों) के आवेगों को रोक कर, उनके आकर्षण को तत्त्वज्ञान से निर्मूल करते हुए, ‘भोग्य’ पदार्थों को ‘उपयोग्य’ पदार्थों में परिवर्तित कर देना यह हमारी इन्द्रियों का सर्वाधिक श्रेष्ठ उपयोग है। हमारी सारी गो के द्वारा सृष्टि के पदार्थों को ईश्वर-प्रीत्यर्थ कर्मयोग के लिए उपयोग में लेना – यह हमारा संसार के प्रति सबसे बड़ा गो-दान होगा!
२. शिष्यों के प्रकार:
पिता द्वारा “मैं तुझे ‘मृत्यु’ (यमराज) को देता हूँ𑅁” इस प्रकार गंभीर आहुति दे जाने पर, नचिकेता अपने पुत्र-धर्म पर विचार करने लगा𑅁 उस विचार-मंथन से हमें आदर्श पुत्र या शिष्य के लक्षण प्राप्त हुए𑅁 जो धर्म पुत्र का पिता के प्रति होता है वही धर्म शिष्य का गुरु के प्रति भी होता है𑅁
अस्तु, तीन प्रकार के शिष्य होते हैं – उत्तम, मध्यम एवं अधम𑅁
उत्तम शिष्य – जो गुरु के हाव-भाव या उनकी बातों से ही उनके संकल्प को समझ ले और बिना गुरु आज्ञा के ही तदनुसार गुरु के सुख के लिए सेवा प्रारंभ कर दे𑅁
मध्यम शिष्य – जो गुरु की आज्ञा प्राप्त कर, सहर्ष उसका पालन करे𑅁
अधम शिष्य – जो गुरु की आज्ञा का अनिच्छापूर्वक, मन मार कर, जैसे-तैसे पालन करे𑅁
तदुपरांत, ऐसे भी शिष्य होते हैं जो गुरु-आज्ञा का पालन भी नहि करते एवं उससे विपरीत कर के आज्ञा-उल्लंघन भी करते हैं𑅁 ये न तो उत्तम, मध्यम या अधम शिष्य है; अपितु ‘नराधम’ ही हैं𑅁
३. नचिकेता को ‘वैश्वानर’ कहने का तात्पर्य:
धूमोर्णा देवी ने यह कह कर यमराज को नचिकेता का उचित अतिथि-सत्कार करने के लिए कहा कि, “हमारे द्वार पर साक्षात् ‘वैश्वानर’ पधारे हैं𑅁”
नचिकेता को ‘वैश्वानर’ कहने के दो कारण थें𑅁
- नचिकेता अत्यंत क्षुधित थे, और क्षुधा की जो जठराग्नि होती है उसके अधिष्ठाता देव ‘वैश्वानर’ हैं जो कि अग्निदेव का ही स्वरूप है𑅁
- नचिकेता विशुद्ध ब्राह्मण परिवार के थे जहाँ यज्ञों की अग्नि में वास्तविक आहुतियाँ दे कर यज्ञाग्नि को तृप्त किया जाता था𑅁 यज्ञाग्नि को भी ‘वैश्वानर’ ही कहते हैं𑅁 अतः यज्ञ के ‘वैश्वानर देव’ को तृप्त करने वाला ब्राह्मण ‘वैश्वानर देव’ का ही प्रतिनिधि होने से उन्हीं का रूप हुआ𑅁
सारांश: JKYog India Online Class- उपनिषद सरिता [हिन्दी]- 20.08.2024