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6 - मृत्युदेव अन्तक द्वारा परमेश्वर के सर्ववशी आधिपत्य का विवरण

Sep 25th, 2024 | 5 Min Read
Blog Thumnail

Category: Upanishad

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Language: Hindi

कठ उपनिषद् - सत्र सारांश – ६

भगवान् का संसार के उर्जा-स्त्रोत के रूप में होते हुए भी निर्लिप्त रहना
जिस प्रकार अखिल महाभुवन में प्रविष्ट एक ही ‘अग्नि’ (उर्जास्त्रोत ब्रह्म) नाना रूपों में प्रतिरूपित हो रहा है, वैसे ही सभी प्राणियों का सर्वान्तरात्मा परब्रह्म एक होते हुए भी नाना योनियों के रूपों में प्रतिरूपित हो रहा हैं; एवं उनके बाहर भी है। (रूपं रूपं प्रविष्टः, रूपं रूपं प्रतिरूपः, बहिश्च।)
जिस प्रकार सब लोकों में प्रकाश देने वाले सूर्यदेव चक्षु के प्रतिनिधि होते हुए भी जीवों के चक्षु-दोषों से लिप्त या पीड़ित नहीं होते; उसी प्रकार सब प्राणियों का अंतरात्मा परमेश्वर भी समस्त जीवों के सुख-दुःख से निर्लिप्त ही रहते हैं; क्योंकि वह सब से परे हैं। (न लिप्यते, बाह्यः।)

परमात्मा का जगत्-व्यापार

जो सभी जीवों का अन्तर्यामी, एक होते हुए भी सब को वश में रखनेवाला परमात्मा अपने एक ही रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है; उस परमात्मा को जो धीर पुरुष निरंतर अपने अन्दर अनुभव करते रहते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है; अन्य किसी को नहि ।
जो नित्य स्वरूपों की नित्यता का मूल कारण है, जो चेतन-स्वरूपों की चेतना का आदि स्त्रोत है, जो अकेला ही अनन्त जीवों के कर्मफलभोगों का विधान करता है, उस पुरुषोत्तम को जो ज्ञानी निरंतर अपने भीतर अनुभव करते रहते हैं, उन्हीं को शाश्वत शान्ति की प्राप्ति होती है; अन्य किसी को नहि।

सगुण साकार भगवान् के नित्य दिव्य धाम का निरूपण

उस परब्रह्म के लोक में न तो सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा, न ही नक्षत्र-गण और न ही विद्युत। जब उस परमेश्वर की ही सत्ता-स्फूर्ति से यह सब यहाँ प्रकाशित होते हैं और पश्चात् उन्हीं के प्रकाश से जगत प्रकाशित होता है; तो भला लौकिक अग्नि कैसे उस परमतत्त्व के धाम को प्रकाशित कर सकता है!?

संसार रूपी ‘वृक्ष’ का वैदिक द्रष्टिकोण

ऊपर की ओर मूलवाला, नीचे की ओर शाखावाला यह द्रश्यमान जगत सनातन पीपल के वृक्ष के समान है। इसका मूल विशुद्ध परमेश्वर ही अमृत हैं; वही सब लोकों को एवं उनके तत्-तत् निवासियों को आश्रय दिए हुए हैं। उनका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता। ऐसा है वह ब्रह्मतत्त्व।
  • यह संसार चौदह भुवन का संयुक्त स्वरूप है। सर्वोपरी कार्यकारी भुवन है – ब्रह्मलोक। यहीं से ब्रह्मदेव दिव्य तपस्या कर के समस्त ब्रह्माण्ड को मंत्र में आबद्ध कर उसकी संरचना करते हैं। चूँकि, यह ब्रह्म-भुवन या ब्रह्म-लोक से ही संसार की उत्पत्ति की जाती है; इसे ‘मूल’ या ‘उद्गम’ कहते हैं।
  • पश्चात्, छन्दों से बने दिव्य वेदमंत्रों के प्रभाव से विविध निम्नतर भुवनों को फलभोगयोग्य बनाया जाता है। मानो, जैसे सर्वोपरी ‘मूल’ (ब्रह्मलोक) से विभिन्न शाखाएँ निकल रही हो। अतः बाकी के १३ भुवनों के संसार को ‘अधोशाखित’ कहा गया है
  • किसी घटादार वृक्ष में जैसे सैंकड़ों पक्षी आश्रय पा कर निवास करते हैं; वैसे ही इस ‘संसार वृक्ष’ में अनेकों जीव अपने कर्मफलभोगों का निर्वाह करते हुए, भगवान् का ही परोक्ष आश्रय पा कर जीवित रहते हैं तथा योनि-भ्रमण करते हैं। 

परमेश्वर की सर्वोपरीता का दिग्दर्शन

जिन मृत्युदेव से बड़े-बड़े शक्तिशाली चक्रवर्ती सम्राट भी थर-थर काँपते हैं; वे यमराज भी स्वयं भगवान् से कितना डरते हैं; यह बात को मुक्त मन से स्वीकार कर के, यादव नचिकेता को भगवान् की सर्वोपरीता का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि – 
हे नचिकेता! उन्हीं एक भगवान् के भय से अग्निदेव तापकार्य करते हैं, वे ही परब्रह्म के भय से सूर्यदेव उर्जा प्रसारित करते हैं, इन्हीं परमेश्वर का भय वायु एवं देवराज इन्द्र को भी रहता है । और पाँचवां मैं, मृत्युदेव, भी उन्हीं भगवान् के भय से मेरे कार्यों में नियमित हूँ।
  • वस्तुतः यहाँ यमराज द्वारा केवल अग्निदेव, सूर्यदेव, वायुदेव तथा इन्द्रदेव के उदाहरण ही दिए गए हैं। वह इसलिए, क्योंकि यमराज की मुख्य गति भू:, भुवः तथा स्वः व्याहृतियों में ही होती है।
  • अतः यमराज इन नियामक देवों से सर्वाधिक संपर्क में आते हैं तथा देखते हैं कि वे सारे नियामक देव की बातचीत में भगवान् की सर्वोपरिता से जुड़ा हुआ भय सहसा प्रकट हो ही जाता है!
  • इसलिए यहाँ वे नचिकेता को केवल संकेत कर के समझा रहे हैं कि इन नियामक देवों के माध्यम से ऐसा ही समझ लो की वे एक परात्पर महाशक्तिशाली भगवान् संपूर्ण आनंद-मीमांसा की समस्त व्याहृतियों के सारे नियंता देवों को अपने वश में किए हुए हैं। अतः कोई भी उनकी सृष्टि में उनका अतिक्रमण नहीं कर सकता।

मानव शरीर की महिमा एवं उसकी अनिवार्यता

इस मानवशरीर का प्रकृति में विसर्जन होने से पहले ही मनुष्य को चाहिए कि वह उस परमात्मा का बोध कर ले। अन्यथा, उस जीव को अनेकों कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होना पड़ेगा।
  • वास्तव में, मानवशरीर समस्त ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ शरीर है। इसीलिए कहा गया है कि, ‘यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ अर्थात् इस ब्रह्माण्ड को बनाने में जितने भी विज्ञानों का, विद्याओं का एवं नियमों का उपयोग किया गया है वे सारे विज्ञानों का, विद्याओं का तथा नियमों का उपयोग इस मानवशरीर को बनाने में किया गया है। तभी तो यह शरीर ब्रह्माण्ड के उस पार ले जाने की – मायानिवृत्ति कराने की – क्षमता रखता है!
  • ‘यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ केवल मानव-शरीर के लिए ही कहा गया है। देवताओं के रहस्यमयी ‘तैजस शरीर’ के लिए भी ऐसी विलक्षण बाते नहीं कही गई! अतः हमें इस बात पर गंभीर विचार करना चाहिए कि जीवात्मा के स्तर पर हमें कितने महत्वपूर्ण ‘यान’ (मानव-शरीर) पर आरूढ़ किया गया है जो कि हमें भगवत्प्राप्ति करा सकता है!
  • इस महिमा को समझ लेने पर हम इस शरीर की अनिवार्यता को भी समझ लेंगें। पश्चात्, हम एक भी मानव-क्षण को व्यर्थ न गँवा कर, सततरूप से भगवान् को पाने की चेतना का विकास करने में ही कटिबद्ध हो जाएँगें।
  • साथ में, यमराज अब नचिकेता को यह चेतावनी देते हुए कह रहे हैं कि यदि मृत्यु से पहले इसकी महिमा को जान कर, ठीक-ठीक साधन परायण नहीं हुए तो यह शरीर अनेकों ब्रह्म-अहोरात्र (कल्प) तक नहीं मिलेगा। क्योंकि, हमारे पीछे ऐसे खरबों-खरबों जीव कतार में खड़े हैं जिन्हें मानव-शरीर प्रदान करना अभी शेष हैं।
  • अतः एक बार यह सुवर्ण अवसर गँवा देने पर यह बार-बार नहीं मिला करता। इसीलिए, तुलसीदास जी ने भी कहा है कि ‘कबहुँक करि करुणा नर देही’; तात्पर्य, यह मानव-देह मिलने वाली कृपा भगवान् केवल कभी-कभी (कबहुँक) ही करते हैं; बार-बार यह अवसर हाथ नहीं आता। अतः अभी जो मानव-देह मिला है; वास्तविक महापुरुष (गुरु) का तत्त्वज्ञान मिला है; साधना-सेवा करने योग्य मन-बुद्धि मिले हैं – इन सब का भरपूर उपयोग कर के जल्दी-जल्दी बिगड़ी बना लेनी चाहिए। अन्यथा, आत्मा के स्तर पर बहुत बड़ी हानि हो जाएगी।
इस प्रकार, नचिकेता के परम तत्त्व को जानने के तीसरे वरदान को फलीभूत करते हुए यमराज ने नचिकेता को भगवान् की सर्वोपरिता तथा मानवशरीर की वास्तविक उपयोगिता का ज्ञान कराया।


सारांश: JKYog India Online Class- उपनिषद सरिता [हिन्दी]- 24.09.2024