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2 - नचिकेता और यमराज का संवाद: कठ उपनिषद् के तीन वरदानों की गूढ़ महिमा

Aug 29th, 2024 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Upanishad

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Language: Hindi

कठ उपनिषद्- सत्र सारांश – २

दान-दत्त नचिकेता ने मृत्युदेव यमराज से यह तीन वरदान माँगें:
१. आप मुझे वापस भेजें तब मेरे पिता क्रोध व खेद से मुक्त हो कर मुझसे प्रेमपूर्वक वर्ताव करें।
२. जन्म, मृत्यु, ज़रा, व्याधि, क्षुधा और तृष्णा से रहित ऐसे उस ‘स्वर्ग लोक’ की प्राप्ति की ‘अग्निविद्या’ (साधन विद्या) प्रदान करें।
३. आत्म-तत्त्व से जुड़ें सारें संशयों को दूर कर के परम तत्त्व का भलीभाँति उपदेश करें।

तीनों वरदान के संबंध में यमराज के प्रत्युत्तर
प्रथम वरदान के उत्तर में ‘अन्तक’ ने कहा – 
“तुम्हारे पिता आजीवन तुमसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए अपने जीवन की शेष रात्रियों में सुखपूर्वक शयन करेंगें।“

यह वरदान से नचिकेता ने अपने पिता की आजीवन चिंता को हर लिया! यही आदर्श पुत्र का लक्षण है कि यदि माता-पिता संतान से दुखी होते हैं तो आदर्श संतान इतना दृढ पश्चाताप करते हैं कि प्रायश्चित के रूप में वह अपने माता-पिता को आजीवन चिंता से मुक्त कर देते हैं।

द्वितीय वरदान के उत्तर में यमराज ने कहा – 
“स्वर्गारोहण करने वाली ‘अग्निविद्या’ का यथोचित अनुष्ठान सुनो।“

यह कह कर यमदेव ने संपूर्ण ‘अग्निविद्या’ का वर्णन किया। किन्तु, इसके वास्तविक स्वरूप का किसी भी प्राप्त शास्त्र में सविस्तार उल्लेख नहीं पाया जाता। इसका अर्थ है कि, यजुर्वेद की किसी अन्य लुप्त शाखा में या इसी कठ शाखा के अन्य लुप्त प्रकरणों में इसका विवरण अवश्य होगा; जो कि आज मृत्युलोक में उपलब्ध नहीं है।

पश्चात्, यमराज ने कहा – 
“गायत्री मंत्र (वेदत्रयी) के साथ इसका तीन-तीन बार सटीक निष्काम अनुष्ठान करने से उपासक को ईश्वरीय फल मिलेगा; उन्हें कभी मेरे दूत लेने नहीं आएँगें।“

गायत्री मंत्र वेदत्रयी (ऋक्, यजुर्, साम्) का अर्क है। यह एक ऐसा विलक्षण मंत्र है जिसे यदि अनुष्ठानों में उचित रूप से सम्मिलित कर दें तो उस अनुष्ठान के फल और फल-प्राप्ति की अवधि को भी अनेक गुना बढ़ाया जा सकता है। किन्तु, कलियुग में ऐसे प्रखर विद्वान उपलब्ध नहीं हैं। अतः कर्मकाण्ड का आग्रह न रखते हुए, मनुष्य को निष्काम उपासनाकाण्ड (भक्ति) का ही अनुष्ठान कर के जीवन को सार्थक करना चाहिए।

इसके बाद, यमदेव ने सकाम स्वर्गारोहण के विषय में समझाते हुए कहा – 
“सकाम यज्ञों में इस विद्या के स्वरूप-संख्या-चयनविधि का यथार्थ अनुष्ठान करने से इच्छित स्वर्गीय मनोकामना पूर्ण होगी।“

सकाम कर्मों के लिए स्वर्गीय अग्निविद्या के अनेकों प्रावधान है, असंख्य विधि-निषेध के नियम हैं; जिन्हें सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में ही कठीनाई से पूरा किया जाता था! तो फिर, वर्तमान कलियुग में तो यह सब असंभव ही है। और फिर – 
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई𑅁 (रामचरितमानस)
अर्थात्, “स्वर्ग लोक भी माया के आधीन और नाशप्राय होने से वहाँ के भोग भी अल्पकालीन ही होते हैं𑅁 तथा, पुण्यक्षय होने पर विभिन्न दुखदायी योनियों में लाखों वर्षों तक भटकना पड़ता है𑅁”

तृतीय वरदान देने से पहले ही पुरस्कार के रूप में नचिकेता को चतुर्थ वरदान देते हुए मृत्युदेव ने कहा – 
“स्वर्गारहोण कराने वाली यह ‘अग्निविद्या’ आज से ‘नाचिकेत विद्या’ के नाम से जानी जाएगी।“

यमराज, इंद्र, सूर्य, वरुण, अग्नि, वायु आदि नियत देवों के पास विशेष अधिकार होते हैं कि वे किसी के द्वारा प्रसन्न हो कर उसे विशिष्ट वरदान दे सकते हैं𑅁

जब यमराज ने नचिकेता को अग्निविद्या सिखाई तब उन्होंने देखा कि नचिकेता ने अभूतपूर्व श्रद्धा, विनम्रता तथा एकाग्रता से इस अग्निविद्या को ग्रहण किया है𑅁 अतः उन्होंने अपने विशेष देवाधिकार के अंतर्गत नचिकेता को यह वरदान दिया कि “अब से स्वर्गारोहण की यह अग्निविद्या को ‘नाचिकेत विद्या’ के नाम से जाना जाएगा𑅁”

परम तत्त्व का बोध कराने वाले महत्त्वपूर्ण ‘यम-नचिकेता संवाद’ का प्रारंभ

यद्यपि यमराज ने अत्यंत स्नेहपूर्वक नचिकेता को यह चतुर्थ वरदान भी दान में दिया; किन्तु नचिकेता की आत्म-तत्त्व विषयक जिज्ञासा का समाधान अभी भी कहाँ हुआ था! अतः बालक नचिकेता ने यमदेव से आत्म-तत्त्व एवं परम तत्त्व के विषय में पुनः प्रश्न करना प्रारम्भ कर दिया𑅁

मृत्युदेव ‘अन्तक’ ने जब नचिकेता को पुनः परम तत्त्व की जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ पाया, तब उन्होंने यह तृतीय वरदान को टालने के विभिन्न प्रयास किए𑅁 जैसे कि,

  1. बालक को जटिलताएँ प्रिय नहीं होती𑅁 अतः सर्वप्रथम यमराज ने आत्मा की दिव्यता और जटिलता को व्यक्त करते हुए कहा – 
    “वत्स नचिकेता! यह आत्म-तत्त्व अत्यंत ही गूढ़, जटिल व दिव्य है𑅁 जो स्वर्गारुढ हो चुके हैं वैसे देवाधिपतियों के लिए भी यह आत्मा संशोधन का विषय है𑅁 अतः इस विषय में तुम अधिक न उलझो वही तुम्हारे लिए ठीक है! तुम अन्य कोई वरदान मांग लो!”
    किन्तु, नचिकेता विस्मयपूर्वक यमराज को देखता रहा! मानो, वह यमदेव से कह रहा हो कि बिना उस तत्त्व को बताये यह निर्णय ही कैसे होगा कि वह मुझे (नचिकेता को) जटिल लग रहा है या नहीं!
  2. जब नचिकेता तत्त्व की जटिलता से विचलित नहीं हुआ तब यमराज ने बाल-सहज प्रलोभनों को देते हुए कहा –
    “हे नचिकेता! तुम सैंकड़ों वर्ष की आयुवाले पुत्र-पौत्र माँग लो𑅁 वे सारे वर्षों तक चले उतना पशुधन व सुवर्ण भी मैं तुम्हें दूँगा𑅁 भूमि के बड़े-से विस्तार का दीर्घकालीन साम्राज्य माँग लो; जिसमें तुम्हारी प्रजा तुम्हे अनुकूल हो! मैं पृथ्वी के अनेकों रहस्यमय रत्नों के प्राप्तव्य स्थान जानता हूँ𑅁 वे सब मैं तुम्हें ला कर दूँगा! जो रमणीय स्त्रियाँ मेरी सेवा में हैं वैसी अप्सरा-सदृश सुंदर स्त्रियाँ मैं तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा के लिए तुम्हे प्रदान करूँगा𑅁 यह विलासित जीवन भोगते हुए तुम जितना जीवित रहना चाहो रह सकते हो𑅁 मेरे दूत तुम्हें परेशान नहीं करेंगें𑅁”
    इतने लोभावने वरदान को सुन कर अन्य कोई भी बालक-बुद्धि सहमत हो जाता और “यावत् जीवेत सुखं जीवेत्” सिद्धांत को अपना कर चुपचाप घर चला जाता𑅁 किन्तु, नचिकेता उद्दालक सरीखे महापुरुष के पुत्र था𑅁 अतः वह इनमें से एक भी प्रलोभनों के प्रति विचलित न होते हुए, अपने स्थिर विवेक से परम तत्त्व के विषय में ही प्रश्न करता रहा!
  3. यह देख कर, यमराज ने अंतिम युक्ति को प्रयुक्त करते हुए कहा –
    “हे बालक! तुम मुझे दान में मिले हो𑅁 अतः मेरी बात का समर्थ कर इनमें से कुछ भी माँग लो𑅁 किन्तु, पुनःपुनः परम तत्त्व को जानने का प्रश्न पूछ कर मुझ पर दबाव मत डालो! तुम तीसरा वरदान मुझे लौटा दो!”
इतना कह कर यमराज ‘अन्तक’ चुप हो गए और नचिकेता के निर्णयात्मक प्रत्युत्तर की स्मितपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे𑅁

वस्तुतः इस तरह यमराज ने नचिकेता की जिज्ञासा की परीक्षा ले कर परम तत्त्व की महिमा उजागर की है कि ईश्वर को प्राप्त करने निकले हुए साधक में कितना दृढ़ वैराग्य एवं बलवती श्रद्धा होनी चाहिए।

नचिकेता के द्वारा अपने वरदान पर श्रद्धा व ज्ञान से डटें रहना
जब यमराज ने तीसरे वरदान को लौटाने की बात कही तो नचिकेता ने अत्यंत विनम्रता से अपना मंतव्य रखते हुए कहा – 

“हे मृत्युनियंता प्रभु! आप साक्षात् मृत्यु के ही देवता हैं। अतः मृत्यु के बाद आत्मा के सातत्य का आप से अधिक स्पष्टीकरण कौन कर पाएगा? आप सरीखे प्रमाणभूत वक्ता मृत्युलोक में मिलना सुदुर्लभ है!”

“जो देवता स्वर्गारूढ़ हो कर भी जिस ‘आत्मा-तत्त्व’ को नहीं जान सके वह निश्चय ही स्वर्ग से भी सुदुर्लभ ‘प्राप्तव्य’ होगा। अतः अब तो मुझे ‘स्वर्ग’ को बिलकुल ही प्राप्त नहि करना है।”

यह कह कर नचिकेता ने यमराज के दी हुए सारे प्रलोभनों को अस्वीकार करने के चार प्रमुख कारण बताएँ𑅁 यह चार कारणों से स्पष्ट होता है कि नचिकेता के भीतर उनकी परमहंसता का बीज अंकुरित होने लगा था!

यह चारों कारण प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में सशक्त करने के लिए अत्यंत उपयुक्त है𑅁

नचिकेता ने कहा – 
  1. “हे अन्तकदेव! आप के द्वारा वर्णित यह सब भोग का तो मानो कल ही अंत हो जाएगा। यह भोग मनुष्य के अंतःकरण का शक्तिमय ओजस क्षीण कर देते हैं। और फिर, चाहे जितनी ही दीर्घ
    आयु हो, वह नश्वर होने से अल्प ही है। इसलिए, आप के यह वाहन और नाच-गाने आप के ही रहें। (तवैव वाहास्तव नृत्यगीते।)
    यह कहने के पीछे नचिकेता का तात्पर्य था कि कोई भी भोग बिना अंतःकरण की ऊर्जा का क्षय किए आस्वादित ही नहीं हो सकता। अतः यह सारे भोग अंततः तो हमारे अनेक जन्मों से अर्जित की हुई आध्यात्मिक योग्यतओं को अत्यंत लघु समय में ही नष्ट कर देंगें। अतः वे हमारे किस लाभ के!
  2. “हे मृत्युदेव! प्रचुर धन भी न तो मनुष्य को तृप्त कर पाता है, न ही उसकी तर्पण-क्रिया का स्थान ले सकता है। और जब मैंने आप के दर्शन पा लिए तो धन तो हम पा ही लेंगे। आप के ईशीत्व से हम जीवित तो वैसे भी रहेंगे ही। अतः मेरे द्वारा तो आत्मज्ञान का वर ही माँगने योग्य है।“
    धन तर्पण क्रिया का स्थान नहीं ले सकता इसका तात्पर्य यह है कि धन से प्राप्त विलास मनुष्य को सद्गति नहीं दिला सकता।
    क्योंकि, धन से तृष्णा का अंत नहीं होता, अपितु गुणाकार ही होता है। अंततः मरण के समय मनुष्य असंख्य अतृप्त वासनाओं के साथ शरीर त्याग करता है। अतृप्त वासनाओं के साथ मानव-मरण होने पर वह जीव मनुष्य शरीर तो प्राप्त नहीं ही कर सकता, किन्तु स्थूल पशु-पक्षी की योनि भी प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसा तीव्र वासनामय जीव प्रेतयोनि में ही सैंकड़ों या हजारों मानव-वर्षो तक भटकता रहता है; एवं उन वर्षों के दौरान भी वह अपनी अधूरी वासनाओं के संताप की मानस-अग्नि में दुखी होता रहता है।
    अस्तु, धन का वैभव जो भोगी को जीवन में अत्यंत ही सुहावना लगता था वह मरणोपरांत भयंकर प्रेत-योनि की प्राप्ति का कारण बन जाता है।
  3. “हे यमराज! यह मानवदेह जीर्णशील और मरणधर्मा है – इस तथ्य को जाननेवाला ऐसा कौन-सा मनुष्य होगा जो कि नित्ययुवान, अमृतरूप आप सदृश महात्माओं का संग पा कर भी, स्त्री के रूप-रति  के प्रमोद का चिंतन करता हुआ, दीर्घकाल तक जीवित रहकर रमण करना चाहेगा?”
    वस्तुतः यमराज ‘देवता’ होने के कारण नित्ययुवान ही रहते हैं!
    यहाँ नचिकेता ने उन्हें ‘अमृतरूप’ भी कहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि यमराज अमर हैं। क्योंकि, आगे इसी अध्याय की तीसरी वल्ली में यमराज स्वयं ही कहेंगें कि प्रलयकाल में साक्षात् मृत्युरूप यमराज भी नष्ट हो जाते हैं।
    तो फिर, यमराज को ‘अमृतरूप’ क्यों कहा गया? वह इसलिए कि जो महात्मा हमें हमारे ‘अमृत’ अंशी (अमृतस्य पुत्राः) भगवान् की याद दिला दे, उनका तत्त्वज्ञान बता दे, वह महात्मा ‘अमृतरूप’ अर्थात् भगवत्स्वरूप ही होते हैं!
  4. “हे मृत्युनियंता! जिस महान आश्चर्यमय परलोक-संबंधी आत्मज्ञान के विषय में लोग यह संशोधन करते हैं कि, यह आत्मा मरने के बाद रहता है या नहि – उसमें जो वास्तविक निर्णय है वह आप हमें बतलाइए। जो यह अत्यंत गूढ़ ज्ञानयुक्त वर है, इससे अतिरिक्त यह नचिकेता कुछ नहि माँगता।“
चूँकि यमराज मृत्यु के ही देवता है तो मरणोपरांत आत्मा के अस्तित्व के विषय में उनके अतिरिक्त और कौन स्पष्टरूप से कह सकता है! अतः यदि यमराज कह दें कि यह यमपुरी में जिन्हें घसीट कर लाया जा रहा है वह वे ही आत्माएँ हैं जो शरीर से मृत्यु को प्राप्त हुई हैं तो फिर चार्वाक की वाणी गलत सिद्ध होगी। तथा, भोगवाद का खंडन हो कर अध्यात्मवाद स्वमेव सिद्ध हो जाएगा। अतः नचिकेता द्वारा पूछा गया यह प्रश्न अध्यात्मपथ के पथिकों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

यह संवाद में हम पाते हैं कि नचिकेता यमराज से डर-डर कर प्रश्न नहीं कर रहा है। अपितु, विनीत भाव से जिज्ञासु हो कर इस प्रकार प्रश्न पूछ रहा है जैसे वह अपने पिता से या किसी पूज्य से या किसी तत्त्वज्ञ महात्मा से या देवता से प्रश्न कर रहा हो।

हमें भी विद्वान बालक नचिकेता से यह सीख लेनी है कि मृत्यु के अधिष्ठाता ‘यमराज’ के प्रति पूज्य भाव, पितृ भाव, गुरु भाव या देव भाव रख कर उनके प्रति बनाए हुए समस्त भयों का निवारण कर दें। वे कोई राक्षस या असुर नहीं है जो हमें मार डालने आते हैं। अपितु वे हमारी थकी हुई यात्रा को नियमानुसार सुचारूरूप से समेटने के लिए आते हैं। जिससे कि, हम जीवात्मा के रूप में हमारी भगवत्प्राप्ति की यात्रा को आगे ले जा सके। 

मृत्युनियंता ‘अन्तकदेव’ के प्रति इस प्रकार का विनीत भाव रखना ही यमराज का ‘ईश्वर-प्रतिनिधि’ के रूप में वास्तविक आदर है।

सारांश: JKYog India Online Class- उपनिषद सरिता [हिन्दी]- 27.08.2024