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78- ययाति: जब हज़ार वर्ष के भोग भी तृष्णा न बुझा सके

Sep 7th, 2025 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 18-19

श्रीशुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं की जैसे हर मनुष्य के पास छह इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही राजा नहुष के भी छह पुत्र थे—यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े बेटे यति को राज्य सौंपना चाहते थे। लेकिन यति ने साफ़ मना कर दिया। उसे मालूम था कि राज्य संभालना आसान नहीं है। राजपाट में जो फँस जाता है, वह अपने असली आत्मस्वरूप को भूल जाता है।

उधर, नहुष ने जब इन्द्राणी शची के साथ अनैतिक व्यवहार करने की कोशिश की, तो ब्राह्मणों ने उसे इन्द्र पद से गिराकर अजगर बना दिया। इसके बाद राजसिंहासन पर बैठा उनका बेटा ययाति।

राजा बनने के बाद ययाति ने अपने चारों छोटे भाइयों को चारों दिशाओं में राज्य संचालन का दायित्व सौंप दिया। स्वयं उसने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया और पृथ्वी की रक्षा में लग गया।

यह सुनकर राजा परीक्षित ने प्रश्न किया, ‘भगवन्! शुक्राचार्य तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर यह प्रतिलोम विवाह (ब्राह्मण कन्या और क्षत्रिय वर का मिलन) कैसे हो गया?’

श्रीशुकदेवजी ने कहा की दानवराज वृषपर्वा की एक मानिनी कन्या थी, नाम था शर्मिष्ठा। एक दिन वह अपनी गुरु की पुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ राजधानी के एक सुंदर बगीचे में घूमने निकली।

बगीचे में चारों ओर खिले फूल, हरे-भरे वृक्ष, और मधुर गुंजार करते भौंरे थे। वहाँ एक कमलों से भरा सरोवर भी था। जब कन्याएँ उस तालाब तक पहुँचीं, तो उन्होंने अपने वस्त्र किनारे पर रखे और पानी में उतरकर खेलने लगीं। हँसी-ठिठोली करते हुए वे एक-दूसरे पर जल उलीच रही थीं।

इसी बीच वहाँ भगवान शंकर पार्वतीजी के साथ अपने बैल पर आते दिखे। उन्हें देखकर सब कन्याएँ घबरा गईं और जल्दी-जल्दी सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। हड़बड़ी में शर्मिष्ठा ने गलती से देवयानी के कपड़े पहन लिये।

यह देखकर देवयानी आग-बबूला हो गई। उसने ताना मारते हुए कहा, ‘अरे! इस दासी ने क्या अनुचित काम कर डाला। जैसे कोई कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाती है, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं! हम भृगुवंशी ब्राह्मण हैं, जिनके चरणों की पूजा इन्द्र और ब्रह्मा जैसे देवता करते हैं। हमारा वंश इतना ऊँचा है और तू! तेरे पिता तो असुर हैं और हमारे शिष्य भी। फिर भी तू मेरे कपड़े पहनने की हिम्मत करती है!’

देवयानी की यह कटु वाणी सुनकर शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। उसका चेहरा नागिन की तरह विकराल हो गया। उसने होठ दबाकर गुस्से में कहा, ‘भिखारिन! ज़रा अपनी हालत देख और फिर बोल। जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़े पाने के लिये मंडराते हैं, वैसे ही तुम लोग भी हमारे घर का सहारा नहीं देखते रहते?’

इतना कहकर शर्मिष्ठा ने आवेश में आकर देवयानी के वस्त्र छीन लिये और क्रोधवश उसे धक्का देकर पास के कुएँ में गिरा दिया।”

शर्मिष्ठाके चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया। उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया।

उस समय देवयानी ने प्रेमभरे स्वर में कहा, “वीरश्रेष्ठ राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब एक बार आपने मेरा हाथ थामा है, तो यह किसी और के हाथ में नहीं जा सकता। कुएँ में गिरने के बाद जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह केवल संयोग नहीं, यह भगवान का किया हुआ संबंध है। इसमें न आपकी इच्छा है, न मेरी, न किसी और मनुष्य की; यह सब दैवी विधान है।

परन्तु, एक बात और है। पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दिया था, और उसने भी मुझे शाप दिया। उसी कारण अब कोई ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण (विवाह) नहीं कर सकता।”

(दरअसल, कच जब अपने गुरु शुक्राचार्यजी से मृतसंजीवनी विद्या सीख चुका और घर जाने लगा, तब देवयानी ने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। परन्तु वह गुरु की पुत्री थी, इसलिए कच ने इंकार कर दिया। क्रोध में देवयानी ने उसे शाप दे दिया—“तुम्हारी सीखी विद्या व्यर्थ हो जाएगी।” तब कच ने भी पलटकर उसे शाप दिया—“कोई ब्राह्मण तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार नहीं करेगा।”)

ययाति मन ही मन सोचने लगे, “यह विवाह शास्त्र के अनुसार उचित नहीं है, क्योंकि यह प्रतिलोम संबंध है। लेकिन प्रारब्ध का खेल कौन टाल सकता है? नियति ने स्वयं यह अवसर मेरे सामने ला खड़ा किया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है।”

इस तरह ययाति ने देवयानी की बात मान ली और उसे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया।

जब राजा ययाति वहाँ से चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यजी के पास पहुँची और शर्मिष्ठा द्वारा किये गये अपमान और अत्याचार की सारी बात सुना दी। अपनी पुत्री की दशा सुनकर शुक्राचार्यजी का मन भी खिन्न हो गया। वे सोचने लगे, “राजपुरोहित बनकर ऐसी अपमानजनक स्थिति सहनी पड़े, इससे तो अच्छा है कि खेतों में या बाजार में कबूतर की तरह कुछ दाने चुनकर जीवन बिताया जाए।”

ऐसा विचार कर वे अपनी कन्या देवयानी को लेकर नगर छोड़कर बाहर निकल पड़े।

यह समाचार जब दानवराज वृषपर्वा तक पहुँचा, तो उनके मन में डर बैठ गया, “अगर गुरुजी रूठ गये तो शत्रुओं की विजय हो सकती है या वे हमें शाप भी दे सकते हैं।” यह सोचकर वे तत्काल उनके पीछे गये और रास्ते में जाकर शुक्राचार्यजी के चरणों पर सिर रखकर दंडवत किया।

शुक्राचार्यजी का क्रोध क्षणिक था। उन्होंने शांत होकर कहा, “राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानी को तो छोड़ नहीं सकता। यदि तुम चाहते हो कि मैं वापस चलूँ, तो इसकी इच्छा पूरी करनी होगी।”

वृषपर्वा ने हाथ जोड़कर कहा, “गुरुदेव! जैसा आप कहें, मैं स्वीकार करता हूँ।”

तब देवयानी ने अपनी मनोकामना प्रकट की, “पिताजी! आप मुझे जहाँ भी दें, जिस किसी से भी मेरा विवाह करें, मेरी एक शर्त है—शर्मिष्ठा और उसकी सहेलियाँ मेरी दासी बनकर जीवनभर मेरी सेवा करें।”

वृषपर्वा ने परिस्थिति को देखते हुए यह शर्त मान ली। शर्मिष्ठा ने भी अपने कुल की प्रतिष्ठा और परिवार के संकट को समझते हुए देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सखियों सहित देवयानी की दासी बनकर उसकी सेवा करने लगी।

फिर समय आने पर शुक्राचार्यजी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति से कर दिया। विवाह के समय उन्होंने ययाति को विशेष चेतावनी दी, “राजन्! ध्यान रहे, शर्मिष्ठा अब दासी है। इसे अपनी सेज पर कभी भी स्थान मत देना।”

कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की। शर्मिष्ठाकी पुत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत है, यह देखकर राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायगा।

राजा ययाति और देवयानी के दो पुत्र हुए—यदु और तुर्वसु। वहीं, वृषपर्वा की कन्या और दासी बनी शर्मिष्ठा से भी ययाति के तीन पुत्र उत्पन्न हुए—द्रुह्यु, अनु और पूरु।

जब यह बात देवयानी को पता चली कि उसकी दासी शर्मिष्ठा को भी उसके पति ययाति से संतान हुई है, तो उसका क्रोध सीमा से बाहर हो गया। वह अपमान और दुख से भरकर अपने पिता शुक्राचार्यजी के घर चली गयी। ययाति पछताए और देवयानी को मनाने की कोशिश करने लगे। वे उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये, मीठी-मीठी बातें कीं, विनती की, यहाँ तक कि उसके चरण दबाने लगे। लेकिन क्रोधित देवयानी किसी भी तरह मानने को तैयार नहीं हुई।

जब शुक्राचार्यजी को यह समाचार मिला तो वे भी क्रोध से भर उठे। उन्होंने ययाति को शाप दिया, “हे ययाति! तू अत्यन्त स्त्रीलोलुप, मंदबुद्धि और कपटी है। जा, तेरे शरीर पर तुरंत ही बुढ़ापा आ जायेगा, वह बुढ़ापा जो मनुष्य को कुरूप बना देता है।”

अचानक वृद्ध हो जाने के भय से ययाति ने हाथ जोड़कर कहा, “ब्रह्मन्! मैं अभी विषय-भोग से तृप्त नहीं हुआ हूँ। यदि आप मुझे यह शाप देंगे, तो आपकी पुत्री देवयानी का भी अहित होगा।”

शुक्राचार्यजी कुछ शांत हुए और बोले, “ठीक है। जाओ, और किसी ऐसे से कहो जो प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अपनी जवानी दे दे। उससे तुम अपनी बुढ़ापे की अवस्था बदल सकते हो।”

जब शुक्राचार्यजी ने ययाति को यह छूट दी कि वे किसी से युवावस्था ले सकते हैं, तब वे राजधानी लौटकर सबसे पहले अपने बड़े पुत्र यदु के पास गये।

उन्होंने कहा, “बेटा यदु! अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम ले लो और अपनी जवानी मुझे दे दो। देखो, मैं अभी विषय-सुख से तृप्त नहीं हुआ हूँ। अगर तुम मुझे अपनी जवानी दे दो, तो मैं कुछ और वर्षों तक आनंद भोग सकूँगा।”

यदु ने आदरपूर्वक उत्तर दिया, “पिताजी! समय से पहले यह बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना ही नहीं चाहूँगा। जब तक मनुष्य विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उनसे वैराग्य भी नहीं आता। मैं यह नहीं कर सकता।”

इसी तरह जब ययाति ने अपने अन्य पुत्र—तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु से भी यही बात कही, तो उन्होंने भी पिताजी का आदेश अस्वीकार कर दिया। सच तो यह है कि उन सबको धर्म का गूढ़ तत्व समझ में ही नहीं आया था। वे इस अस्थायी शरीर को ही शाश्वत मान बैठे थे।

अब ययाति ने अपने सबसे छोटे लेकिन सबसे गुणवान पुत्र पूरु को बुलाया और कहा, “बेटा! तुम्हें तो अपने बड़े भाइयों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मेरी इच्छा पूरी करनी होगी।”

पूरु ने विनम्रता से उत्तर दिया, “पिताजी! पिता की सेवा से ही पुत्र परमपद को प्राप्त करता है। हमारा शरीर भी पिता का ही दिया हुआ है। इस संसार में ऐसा कौन पुत्र है, जो पिता के उपकारों का पूरा बदला चुका सके? सच्चा पुत्र वही है जो बिना कहे ही पिता की इच्छा पूरी कर दे। जो कहने पर श्रद्धापूर्वक आज्ञा माने, वह मध्यम है। आज्ञा तो सुने लेकिन श्रद्धा न रखे, वह अधम है। और जो पिता की आज्ञा का पालन ही न करे, उसे पुत्र कहना ही भूल है—वह तो पिता का मल-मूत्र मात्र है।”

इतना कहकर पूरु ने बड़े हर्ष से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया और अपनी जवानी उन्हें दे दी। ययाति ने उसकी जवानी लेकर फिर से विषय-सुख भोगना शुरू किया।

वह सातों द्वीपों के एकछत्र सम्राट बने। प्रजा की रक्षा वैसे ही करने लगे जैसे पिता अपनी संतान की करता है। उनकी इन्द्रियाँ प्रबल थीं और वे इच्छानुसार भोगों का उपभोग करते रहे।
देवयानी उनकी प्रिय पत्नी थी। वह मन, वाणी, तन और वस्त्रों से उन्हें प्रसन्न करने लगी और एकांत में उन्हें और भी सुख देती थी।

सिर्फ भोगों में ही नहीं, ययाति ने धर्म का भी पालन किया। उन्होंने वेदों में प्रतिपादित यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि की बहुत बड़े-बड़े यज्ञों और विशाल दक्षिणाओं से उपासना की। ययाति ने अपने हृदय में सर्वव्यापी भगवान श्रीनारायण को स्थापित कर निष्काम भाव से उनकी उपासना की। फिर भी एक हज़ार वर्षों तक अपनी उच्छृंखल इन्द्रियों के साथ मन को लगाकर अनगिनत भोग भोगने के बाद भी ययाति की तृष्णा शांत न हुई।

श्रीशुकदेवजी ने कहा, “परीक्षित्! राजा ययाति स्त्रियों और विषय-भोगों में डूबे हुए जीते रहे। पर एक दिन अचानक जब उनकी दृष्टि अपने अधःपतन पर पड़ी, तो उनके भीतर गहरा वैराग्य जाग उठा। तब अपनी पत्नी देवयानी को बुलाकर कहा की एक बकरा था। उसने कुएँ में गिरी बकरी को बचाया, तो बकरी उससे प्रेम करने लगी। धीरे-धीरे और बकरियाँ भी उससे जुड़ गईं। वह सबके साथ भोग करता रहा, पर कभी संतुष्ट न हो सका। मेरी भी यही दशा है। 

विषय-भोग से कभी तृप्ति नहीं होती, बल्कि कामना और बढ़ती जाती है। तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर मैं विषयों में डूबा रहा, अपनी सुध-बुध खो बैठा। पर देखो, भोगों से कभी तृप्ति नहीं होती। जैसे आग में घी डालने से वह और प्रज्वलित होती है, वैसे ही भोग करने से कामना और बढ़ती है।

पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं-वे सबके-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है 
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥
विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं । (भागवत 9.19.14)

जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तुके साथ रागद्वेषका भाव नहीं रखता तब वह समदर्शी हो जाता है, तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं। विषयोंकी तृष्णा ही दुःखोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र-से-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ।

देखो, इन्द्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं। इसलिए विवेकवान को चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में उनसे खेल न करे। मैंने हज़ार वर्षों तक विषय-भोग किया, पर तृप्ति नहीं मिली। अब मैं इन्हें त्याग दूँगा, अपना मन परमात्मा को समर्पित कर दूँगा, और अहंकार छोड़कर भगवान् की भक्ति में रम जाऊँगा।’

ऐसा कहकर ययाति ने पूरु को उसकी जवानी लौटा दी और अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। क्योंकि अब उनके चित्त से कामनाएँ नष्ट हो चुकी थीं। इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व में द्रुह्यु, दक्षिण में यदु, पश्चिम में तुर्वसु और उत्तर में अनु को राज्य दिया। और योग्यतम पुत्र पूरु को सम्पूर्ण साम्राज्य का अधिपति बनाकर स्वयं वन को प्रस्थान कर गये।

ययाति ने सब कुछ त्यागकर वन में गमन किया, जैसे पंख निकलने पर पक्षी घोंसला छोड़ देता है। वहाँ उन्होंने आत्मसाक्षात्कार किया और तीनों गुणों से परे होकर मायामल रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेव में लीन हो गये। उन्हें वही परम गति मिली जो भगवत्प्रेमी संतों को मिलती है।

जब देवयानी ने यह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ययाति मुझे भी विरक्ति के मार्ग पर प्रेरित कर रहे हैं। उसने भी संसार की सब आसक्तियाँ छोड़ दीं और भगवान श्रीकृष्ण में मन को तन्मय करके भगवान की शरण में जाकर परम पद को प्राप्त हुई।
नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥
देवयानी ने भगवान्को नमस्कार करके कहा-‘समस्त जगत्के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। जो परमशान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’। (भागवत 9.19.29)

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 05.09.2025