श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 7-8
तृणावर्त नाम का एक राक्षस था, जो कंस का सेवक था। कंस ने उसे भेजा कि वह श्रीकृष्ण को मार दे। तृणावर्त एक भयंकर बवंडर (तेज़ आँधी) का रूप लेकर गोकुल पहुँचा और वहाँ खेल रहे छोटे बालक श्रीकृष्ण को उठा कर आकाश में ले गया।
उस बवंडर की वजह से पूरा गोकुल धूल और अंधेरे से ढक गया। लोग कुछ देख नहीं पा रहे थे, चारों ओर भयंकर आवाज़ें गूँज रही थीं। दो घड़ी (लगभग 48 मिनट) तक पूरा व्रज धूल और अंधेरे में ढका रहा।
जब यशोदाजी वहाँ पहुँचीं, तो देखा कि जहाँ उन्होंने अपने बालक को बैठाया था, वहाँ श्रीकृष्ण नहीं थे। वे बहुत घबरा गईं, रोने लगीं और दुख से धरती पर गिर पड़ीं, जैसे अपने बछड़े को खो देने पर गाय व्याकुल हो जाती है।
उसी समय बवंडर थोड़ा शांत हुआ। धूल कम हुई, तो यशोदाजी के रोने की आवाज़ सुनकर और गोपियाँ वहाँ दौड़ीं। श्रीकृष्ण को न देखकर सबकी आँखों से आँसू बहने लगे। सब ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं।
उधर तृणावर्त श्रीकृष्ण को आकाश में ले जा रहा था, परन्तु जैसे-जैसे वह ऊपर गया, उसे लगा कि श्रीकृष्ण बहुत भारी हो गये हैं। उसका वेग (गति) रुक गया। श्रीकृष्ण ने उसका गला पकड़ लिया और कसकर दबा दिया। राक्षस की साँस रुक गयी, आँखें बाहर निकल आयीं, और वह निश्चल होकर श्रीकृष्ण के साथ नीचे गिर पड़ा।
जब गोपियों ने देखा, तो पाया कि वह राक्षस धरती पर गिरकर मर गया है और श्रीकृष्ण उसके सीने पर बैठे हैं। सब आश्चर्यचकित रह गईं। वे दौड़कर आयीं, श्रीकृष्ण को गोद में उठाया और यशोदाजी को दे दिया। बालक मृत्यु के मुख से बचकर लौट आया। सबको बहुत आनन्द हुआ।
सब कहने लगे, “वाह! यह तो अद्भुत घटना है। यह बालक राक्षस के साथ मरने वाला था, पर जीवित लौट आया और राक्षस मारा गया। सचमुच, सज्जन लोग अपने अच्छे कर्मों से हर भय से बच जाते हैं।” वे सोचने लगे, “हमने कौन सा पुण्य किया है? कौन सी पूजा, यज्ञ या दान किया है, जिसके कारण यह बालक हमें दोबारा मिल गया? यह तो बहुत बड़ा सौभाग्य है।”
जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में लगातार चमत्कार हो रहे हैं, तो उन्हें वसुदेवजी की बात याद आई कि “यह बालक साधारण नहीं है।”
श्रीकृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड का दिखाना
एक दिन यशोदाजी श्रीकृष्ण को गोद में लेकर प्रेम से दूध पिला रही थीं। उनका वात्सल्य इतना बढ़ गया था कि दूध अपने-आप बह रहा था। जब श्रीकृष्ण ने दूध पी लिया, तो यशोदाजी उनके सुंदर चेहरे को चूमने लगीं। उसी समय श्रीकृष्ण को जंभाई आई।
यशोदाजी ने जैसे ही उनके मुँह में देखा, तो वे आश्चर्यचकित रह गईं उन्हें वहाँ पूरा ब्रह्माण्ड दिखाई दिया: आकाश, तारे, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, पर्वत, नदियाँ, वन और सारे जीव-जंतु। यह दृश्य देखकर यशोदाजी का शरीर काँप उठा। उन्होंने आँखें बंद कर लीं और स्तब्ध रह गईं, क्योंकि उन्होंने अपने छोटे से बालक के मुँह में पूरा संसार देख लिया था।
कृष्ण-बलराम का नामकरण संस्कार
श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित से कहा की यदुवंश के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वे बहुत तपस्वी और विद्वान् थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल पहुँचे। नन्दबाबा उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने खड़े होकर प्रणाम किया, उनके चरण धोए और आदरपूर्वक उनकी पूजा की। उनके मन में यह भाव था कि “ये तो स्वयं भगवान् जैसे हैं।”
जब गर्गाचार्यजी बैठ गए और उनका आदर-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने विनम्रता से कहा, “भगवन्! आप तो पूर्णकाम हैं, फिर भी हम जैसे गृहस्थों के घर आपका आना हमारे लिए बहुत शुभ है। हम तो घर-परिवार के कामों में इतने फँसे रहते हैं कि आपके आश्रम तक आने का अवसर भी नहीं मिलता। आपके आगमन का यही अर्थ है कि आप हमारे कल्याण के लिए आए हैं।”
नन्दबाबा ने आगे कहा, “प्रभो! आप तो ज्योतिष और वेद के ज्ञाता हैं। जो बातें सामान्य लोग नहीं जान सकते, चाहे वे भविष्य की हों या अतीत की, वह सब आप जानते हैं। आप ही हमारे इन दोनों बालकों के नामकरण-संस्कार कीजिए, क्योंकि ब्राह्मण तो सबका गुरु होता है।”
गर्गाचार्यजी ने उत्तर दिया, “नन्दजी! मैं यदुवंशियों का आचार्य माना जाता हूँ। यदि मैंने तुम्हारे पुत्र का नामकरण किया, तो लोग समझेंगे कि यह देवकी का पुत्र है। कंस बहुत दुष्ट है, वह हमेशा बुराई सोचता रहता है। वसुदेवजी के साथ तुम्हारी मित्रता भी प्रसिद्ध है। जबसे कंस को यह पता चला है कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसका वध करेगा, वह हर जगह खोज करवा रहा है। यदि उसे पता चल गया कि मैंने तुम्हारे बालक का संस्कार किया है, तो वह समझ जाएगा कि यही देवकी का पुत्र है, और तब वह इसे मारने की कोशिश करेगा।”
नन्दबाबा ने कहा, “आचार्यजी! आप एकांत में, गोशाला में चुपचाप स्वस्तिवाचन करके इसका नामकरण कर दीजिए। यह बात किसी को भी न पता चले। यहाँ तक कि मेरे अपने रिश्तेदारों को भी नहीं।”
श्रीशुकदेवजी ने कहा गर्गाचार्यजी तो संस्कार करने के लिए तैयार ही थे। नन्दबाबा की यह विनती सुनकर उन्होंने एकांत में जाकर गुप्त रूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार किया।
गर्गाचार्यजी ने कहा, “यह जो रोहिणी का पुत्र है, इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने गुणों से सबको प्रसन्न करेगा, इसलिए इसका नाम ‘राम’ भी होगा। इसका बल (शक्ति) असीम है, इसलिए एक नाम ‘बल’ भी रखा जाएगा। यह सबमें मेल कराने वाला है, इसलिए इसे ‘संकर्षण’ भी कहा जाएगा।”
“और यह जो साँवला बालक है, यह हर युग में अवतार लेता है। पिछले युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीत (सफेद, लाल, पीला) रंग के रूप धारण किए थे। इस युग में यह कृष्णवर्ण (श्यामवर्ण) हुआ है, इसलिए इसका नाम होगा कृष्ण।”
“नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले भी वसुदेवजी के घर जन्म ले चुका है, इसलिए ज्ञानी लोग इसे वासुदेव भी कहते हैं। इसके अनेक नाम हैं और कई रूप भी हैं। इसके गुण और कर्म इतने अधिक हैं कि हर गुण के अनुसार एक नया नाम पड़ता है। मैं तो जानता हूँ, पर साधारण लोग इसे नहीं जानते। यह तुम्हारे परिवार का, गोप-गोपियों और गौओं का बहुत कल्याण करेगा। जब-जब संकट आएंगे, यह तुम्हारी रक्षा करेगा और सबको आनंद देगा।”
गर्गाचार्यजी ने नन्दबाबा से कहा, “व्रजराज! बहुत पहले के युग की बात है। एक समय ऐसा आया जब पृथ्वी पर कोई राजा नहीं था। चारों ओर लुटेरे और डाकू फैल गए थे, लोग बहुत दुखी हो गए थे। तब तुम्हारा यही पुत्र (श्रीकृष्ण) प्रकट हुआ था। उसने सज्जन लोगों की रक्षा की और उन्हें इतनी शक्ति दी कि उन्होंने उन लुटेरों को हरा दिया।”
“जो लोग तुम्हारे इस साँवले, सुंदर बालक से प्रेम करते हैं, वे बहुत भाग्यशाली हैं। जैसे विष्णुभगवान् की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर जीत नहीं पाते, वैसे ही जो लोग इस बालक से प्रेम करते हैं, उन्हें भी कोई अंदर या बाहर से हरा नहीं सकता।”
“नन्दजी! गुण, सम्पत्ति, सौन्दर्य, कीर्ति और प्रभाव हर दृष्टि से तुम्हारा यह बालक स्वयं भगवान् नारायण के समान है। इसलिए इसकी बहुत सावधानी से रक्षा करना।” ऐसा कहकर गर्गाचार्यजी ने नन्दबाबा को समझाया, उन्हें आशीर्वाद दिया और अपने आश्रम लौट गए। उनकी बातें सुनकर नन्दबाबा बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि अब उनका जीवन सफल हो गया है, जैसे उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गई हों।
कृष्ण-बलराम की बाल लीलाएँ
कुछ ही दिनों बाद बलराम और श्रीकृष्ण घुटनों और हाथों के बल रेंगने लगे। दोनों भाई गोकुल की गलियों में खेलने जाते। कभी वे कीचड़ में अपने छोटे-छोटे पैर और हाथ चलाते, तो उनके पैरों और कमर के घुँघरू मधुर ध्वनि करते — रुनझुन... रुनझुन... वह आवाज़ सुनकर दोनों हँसने लगते।
कभी वे रास्ते में किसी अजनबी के पीछे हो लेते, और जब देखते कि वह कोई दूसरा व्यक्ति है, तो ठिठक कर डर जाते और तुरंत अपनी माताओं, यशोदाजी या रोहिणीजी के पास भागकर लौट आते। माताएँ जब यह सब देखतीं, तो स्नेह से भर जातीं।
जब दोनों छोटे-छोटे बालक कीचड़ से सने शरीर के साथ घर लौटते, तो उनकी सुंदरता और भी बढ़ जाती। माताएँ उन्हें आते ही गोद में उठा लेतीं, हृदय से लगातीं और प्रेम से दूध पिलाने लगतीं। जब वे दूध पीते-पीते मुस्कुराते, अपनी माँ की ओर देख-देखकर खिलखिलाते, तो उनकी छोटी-छोटी दंतुलियाँ और भोला चेहरा देखकर माताएँ आनंद के सागर में डूब जातीं मानो सारा संसार उस एक मुस्कान में समा गया हो।
जब राम और श्याम थोड़े बड़े हुए, तब उन्होंने घर के बाहर तरह-तरह की बाल-लीलाएँ करनी शुरू कीं। उनकी शरारतें देखकर गोकुल की गोपियाँ हँसी रोक नहीं पाती थीं। कभी वे किसी बैठे हुए बछड़े की पूँछ पकड़ लेते। बछड़ा डरकर भागने लगता, तो वे दोनों भी ज़ोर से उसकी पूँछ पकड़े रहते। बछड़ा भागता और वे उसके साथ घिसटते हुए दौड़ते रहते। यह दृश्य देखकर गोपियाँ अपना घर-बार भूल जातीं और हँसते-हँसते लोटपोट हो जातीं।
कन्हैया और बलदाऊ दोनों बहुत चंचल और निडर थे। कभी वे सींग वाले जानवरों जैसे गाय या हिरन के पास चले जाते, तो कभी जलती हुई आग के पास जाकर खेलने लगते। कभी काटने वाले कुत्तों के पास पहुँच जाते, तो कभी किसी की तलवार उठाकर देखने लगते। कभी कुएँ या तालाब के पास फिसलते हुए गिरने से बचते, तो कभी काँटों और झाड़ियों में चले जाते।
माएँ उन्हें बार-बार रोकतीं, समझातीं पर उन पर कोई असर नहीं होता। बच्चे अपनी धुन में लगे रहते। नतीजा यह हुआ कि माताएँ घर का कोई काम ढंग से नहीं कर पाती थीं। उनका सारा ध्यान इसी चिंता में रहता कि कहीं बच्चे किसी खतरे में न पड़ जाएँ। उनका मन हर समय यही सोचता रहता, “कन्हैया और बलदाऊ अब कहाँ चले गए होंगे, क्या कर रहे होंगे?”
इस तरह दोनों भाइयों की नटखट लीलाएँ देखकर पूरा व्रज आनंद और स्नेह से भर गया था।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 31.10.2025