श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 12
श्री शुकदेवजी परीक्षित की कहते हैं की एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर सुबह बहुत जल्दी उठे। वे जंगल में कलेवा (नाश्ता) करने का सोच रहे थे। उन्होंने सिंगी की मधुर आवाज बजाकर अपने ग्वालबाल साथियों को जगाया और मन की बात बता दी। सभी बछड़ों को आगे करके वे व्रज से बाहर निकल पड़े।
श्रीकृष्ण के साथ उनके प्रिय हज़ारों ग्वालबाल भी चल पड़े। उनके हाथों में छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी थीं, और उनके अपने-अपने बछड़ों के झुंड आगे-आगे चल रहे थे। सब बहुत खुश थे।
सबने अपने बछड़ों को श्रीकृष्ण के अनगिनत बछड़ों में मिला दिया और जगह-जगह बालसुलभ खेल खेलते हुए घूमने लगे। सब ग्वालबाल काँच, घुघची, मणियों और सोने के गहने पहने थे, फिर भी वे वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों, नई कोंपलों, फूलों, गुच्छों, मोरपंखों और रंगीन मिट्टी से खुद को और सजा लेते थे।
कभी कोई किसी का छीका चुरा लेता, कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब वह वस्तु का मालिक पकड़ लेता, तो चुराने वाला उसे किसी और के पास फेंक देता, फिर दूसरा तीसरे के पास, तीसरा चौथे के पास। इसके बाद सब हँसते हुए चीज़ें वापस कर देते।
यदि श्यामसुन्दर आगे बढ़कर वन की शोभा देखने लगते, तो ग्वालबाल आपस में कहते, “पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा!” और सभी उनकी तरफ दौड़ पड़ते। उन्हें छुकर वे आनंद से भर जाते। कोई बाँसुरी बजा रहा था, कोई सिंगी फूंक रहा था। कोई भौंरों के साथ गुनगुना रहा था, तो कुछ कोयल की “कुहू-कुहू” की नकल कर रहे थे।
कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते पक्षियों की परछाईं के साथ दौड़ रहे थे। कुछ हंसों की चाल की नकल करते हुए उनके साथ चल रहे थे। कोई बगुले के पास उसकी तरह आँखें मूँदकर बैठ जाता, कोई मोर को नाचते देखकर उसी की तरह नाचने लगता।
कुछ ग्वालबाल बंदरों की पूँछ पकड़कर खींचते, कुछ उनके साथ पेड़ पर चढ़ते-उतरते। कोई बंदरों की तरह मुँह बनाता, तो कोई डाल-डाल पर छलाँग लगाता। बहुत से ग्वालबाल नदी के किनारे पानी में छपका खेल रहे थे। वे मेढकों के साथ वैसे ही फुदकते। कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर हँसता, तो कोई अपनी आवाज़ की गूँज को ही उलटा-सीधा कह रहा था।
भगवान श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिये प्रत्यक्ष ब्रह्मानन्द हैं। दास्यभाव-भक्तों के लिये वे उनके आराध्य, सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं। और जो लोग माया में अटके हैं, उन्हें वे बस एक साधारण बालक दिखाई देते हैं। उन्हीं भगवान के साथ वे पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल खेल रहे थे। जो योगी कई जन्मों तक कठोर साधना करके भी जिनके चरणों की धूल नहीं पा सकते, वही श्रीकृष्ण व्रज के इन ग्वालबालों के बीच रहते हैं और उनके साथ हर दिन खेलते हैं। इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है!
अघासुर उद्धार
इसी समय अघासुर नाम का एक भयानक दैत्य वहाँ आ पहुँचा। श्रीकृष्ण और ग्वालबालों को इतना खुश खेलते देखकर उसे जलन होने लगी। वह इतना डरावना था कि अमृत पीकर अमर हुए देवता भी उससे बचने की सोचते थे और चाहते थे कि किसी तरह इसका अंत हो जाये।
अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई था और कंस ने उसे भेजा था। श्रीकृष्ण, श्रीदामा और ग्वालबालों को देखकर उसने मन ही मन सोचा, “इन्हीं ने मेरे भाई और बहन को मारा है। आज मैं इन सबको, साथ में कृष्ण को भी, यहीं खत्म कर दूँगा। जब ये सब मरेंगे, तो व्रजवासी अपने बच्चों के कारण स्वयं दुख से मर जाएँगे।”
यह सोचकर वह दैत्य एक बहुत बड़ा अजगर बनकर रास्ते में लेट गया। उसका शरीर एक योजन (8 मील) लंबा था, मानो कोई विशाल पर्वत हो। उसने गुफा जैसे अपना विशाल मुँह खोल रखा था, ताकि सभी ग्वालबाल उसमें चले जाएँ।
उसका नीचे का होठ जमीन से लगा था और ऊपर का होठ बादलों को छू रहा था। उसके जबड़े पहाड़ की गुफाओं जैसे थे, दाढ़ें पर्वत की चोटियों जैसी। मुँह के भीतर घना अंधेरा था, जीभ लाल सड़क जैसी दिख रही थी, साँस आँधी जैसी थी और आँखें आग की तरह जल रही थीं।
ग्वालबालों ने यह रूप देखा, पर उन्हें यह भी लगा कि शायद यह भी वृन्दावन की कोई प्राकृतिक शोभा हो।
वे मज़ाक में कहने लगे, “यह तो अजगर का मुँह जैसा लगता है।”
“देखो, बादलों का लाल रंग ऊपर के होंठ जैसा लगता है।”
“नीचे की लाल मिट्टी तो नीचे के होठ जैसी है।”
“ये पहाड़ की दरारें जबड़े जैसी हैं।”
“ये ऊँची-ऊँची चोटियाँ दाँत जैसी लगती हैं।”
“यह चौड़ी जगह तो जीभ जैसी है।”
कुछ बच्चे तो हवा की गरमी और बदबू को देखकर बोले, “लगता है जंगल में कहीं आग लगी है। पर अजगर की साँस से यह हवा बिल्कुल मेल खाती है।”
एक ग्वालबाल बोला, “अगर हम इसके मुँह में जाएँ, तो क्या यह हमें निगल लेगा? अरे नहीं! यह क्या निगलेगा?
कन्हैया इसे भी बकासुर जैसा मार देगा!”
और वे हँसते-खेलते अजगर के मुँह में घुस गये।
भगवान् कृष्ण यह सब सुन रहे थे। उन्हें समझ में आ गया कि बच्चे असली खतरे को भी खेल समझ रहे हैं। वे जानते थे कि यह दैत्य है, उनसे कुछ छिप नहीं सकता। वे सोच ही रहे थे कि कैसे बच्चों को रोका जाए, तब तक सभी ग्वालबाल और बछड़े उसके पेट में जा चुके थे।
अघासुर ने उन्हें अभी निगला नहीं था, क्योंकि वह इंतज़ार कर रहा था कि कृष्ण भी भीतर आये, तब वह सबको एक साथ मार दे।
कृष्ण ने देखा कि उनके साथी बच्चे उनके हाथ से निकल गए हैं। उनका हृदय दया से भर गया। वे सोचने लगे, “कैसे करूँ कि यह दैत्य भी मरे और मेरे सखा भी बच जाएँ?”
वे जानते थे कि क्या करना है। वे स्वयं भी अघासुर के मुँह में घुस गये।
देवता बादलों में छिपकर घबरा गए, “हाय! अब क्या होगा!” और कंस के पक्ष वाले दैत्य खुशी मनाने लगे। अघासुर चाहता था कि वह कृष्ण सहित सभी को अपने दाँतों में चबा कर मार डाले।
उसी समय कृष्ण ने अपने शरीर को बहुत बड़ा कर लिया। उनका शरीर इतना फैल गया कि अघासुर का गला ही रुक गया। उसकी आँखें उलट गईं, साँस बंद हो गई और वह तड़पने लगा। अंत में उसके प्राण सिर के ऊपर के छिद्र से बाहर निकल गए। उसी समय कृष्ण ने अपनी दिव्य दृष्टि से ग्वालबालों और बछड़ों को फिर से जीवित कर दिया और सबको लेकर वे अघासुर के शरीर से बाहर आ गए।
अजगर के शरीर से एक अद्भुत प्रकाश बाहर निकला। वह कुछ देर आकाश में ठहरा रहा और जब कृष्ण बाहर आये, तो वह प्रकाश सब देवताओं के सामने उन्हीं में समा गया। देवता फूल बरसाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं, गन्धर्व गाने लगे, बाजे बजने लगे, ब्राह्मण स्तुति करने लगे और पार्षद जय-जयकार करने लगे। क्योंकि कृष्ण ने अघासुर का वध कर सबका बड़ा उपकार किया था।
उनके गीत और जयकार की ध्वनि ब्रह्मलोक तक पहुँच गयी। ब्रह्माजी भी तुरंत वहाँ आए और इस लीला को देखकर आश्चर्य में पड़ गये। काफी समय बाद जब अघासुर का अजगर-चाम सूख गया, तो वह व्रजवासियों के लिए कई दिनों तक खेलने की एक बड़ी गुफा की तरह बना रहा।
भगवान् कृष्ण ने अपने ग्वालबाल साथियों को मृत्यु के मुँह से बचाया और अघासुर को मोक्ष भी दिया। यह लीला उन्होंने कुमार अवस्था, यानी लगभग पाँचवें वर्ष में ही की थी। ग्वालबालों ने यह घटना उसी समय देख ली थी, लेकिन छठे वर्ष (पौगण्ड अवस्था) में आकर वे इसे आश्चर्य के साथ व्रज में सबको सुनाने लगे।
अघासुर वास्तव में पाप का ही प्रतीक था। भगवान् कृष्ण के स्पर्श मात्र से उसके सारे पाप मिट गये और उसे वह सारूप्य-मुक्ति मिली जो साधारण पापियों को नहीं मिलती। इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि जो भगवान् बालक की तरह लीला करते हैं, वे वही समस्त जगत् के मूल कारण और नियन्ता परम पुरुष हैं।
भगवान् कृष्ण के किसी एक अंग की, मन में श्रद्धा से बनाई हुई प्रतिमा को यदि कोई साधक ध्यान में एक बार भी दृढ़ता से धारण कर ले, तो उसे सालोक्य, सामीप्य आदि वह मुक्ति मिल सकती है जो बड़े-बड़े भक्तों को प्राप्त होती है। भगवान् नित्य आनन्दस्वरूप हैं, माया उनके पास भी नहीं पहुँच सकती। ऐसे भगवान् स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये थे। फिर उसकी सद्गति होने में क्या संदेह रह जाता है?
सूतजी शौनकजी और अन्य ऋषियो से बोले की भगवान् श्रीकृष्ण, जो यदुवंश के श्रेष्ठ हैं, उन्होंने ही राजा परीक्षित को जीवन दान दिया था। जब परीक्षित ने अपने रक्षक और जीवनदाता की यह अद्भुत लीला सुनी, तो उनका मन इस रस में पूरी तरह खिंच गया। इसलिए उन्होंने श्रीशुकदेवजी से भगवान् की इसी पवित्र लीला से जुड़ा एक और प्रश्न पूछ लिया।
राजा परीक्षित ने कहा, “भगवन्! आपने बताया था कि भगवान् कृष्ण ने यह लीला पाँचवें वर्ष में की थी, लेकिन ग्वालबालों ने इसे व्रज में छठे वर्ष में जाकर बताया। कृपा करके यह समझाइये कि एक ही समय में घटी घटना दूसरे समय में वर्तमान काल की तरह कैसे दिखाई देती है? इसमें कोई रहस्य अवश्य है। इस अद्भुत बात को जानने की बड़ी उत्सुकता है। निश्चय ही यह श्रीकृष्ण की मायाशक्ति का कार्य है, क्योंकि साधारण रूप से ऐसा होना संभव नहीं। मैं क्षत्रिय धर्म से च्युत हो चुका हूँ, इसलिए नाममात्र का क्षत्रिय हूँ, पर इतना सौभाग्य अवश्य है कि मैं आपके मुख से निरंतर गिरने वाले श्रीकृष्ण की पवित्र लीलामृत का पान कर पा रहा हूँ।”
सूतजी आगे कहते हैं की शौनकजी! राजा परीक्षित के इस प्रश्न को सुनकर श्रीशुकदेवजी को भगवान् की वह लीला स्मरण हो आई। उनकी इन्द्रियाँ और मन कृष्ण की नित्य लीलाओं में डूब गये। कुछ समय बाद जब वे धीरे-धीरे बाह्य अवस्था में लौटे, तब उन्होंने परीक्षित को भगवान की लीला का वर्णन आरम्भ किया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 05.12.2025