श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 15-16
धेनुकासुर वध के बाद श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलरामजी के साथ व्रज लौटे। उनके साथ ग्वालबाल भी थे, जो चलते हुए उनकी लीलाओं का गुणगान कर रहे थे। भगवान की लीलाओं का सुनना और कहना सबको पवित्र करता है।
उस समय श्रीकृष्ण के बालों में खेलते समय उड़ी धूल लगी हुई थी। सिर पर मोरपंख का मुकुट था और बालों में जंगली फूल गुँथे थे। उनके चेहरे पर मधुर मुस्कान थी और आँखों में प्रेम भरी दृष्टि। वे मुरली बजा रहे थे और ग्वालबाल उनके साथ गा रहे थे। मुरली की ध्वनि सुनकर कई गोपियाँ व्रज से बाहर आ गईं, क्योंकि वे बहुत समय से श्रीकृष्ण के दर्शन की प्रतीक्षा कर रही थीं।
गोपियों ने श्रीकृष्ण के मुख को देखकर दिनभर के विरह की पीड़ा भूल गई। श्रीकृष्ण ने भी उनकी लाजभरी हँसी और प्रेम भरी दृष्टि को स्वीकार किया और व्रज में प्रवेश किया।
धूसरि धूरि भरे हरि आवत।
मोर मुकुट कटि कछनी काछे, मुरली मधुर बजावत।
धुनि सुनि वेनु सबै ब्रज बनिता देखन को जुरि धावत।
काँधे लकुटि कामरी कारी, लट उरझी मन भावत।
वत्स - प्रेम रस पूरि सुरभि थन, मेदिनि क्षीर चुवावत।
सो 'कृपालु' झाँकी झाँकन हित, शंभु समाधि भुलावत।।
भावार्थ - (सांयकाल के समय गायों को चराकर लौटते हुए श्रीकृष्ण की अनुपम झाँकी।) गायों के पैरों से उड़ी हुई धूल से युक्त श्रीकृष्ण आ रहे हैं। सिर पर मयूर पंख का मुकुट एवं कमर में सुन्दर काछनी काछे हुए हैं। मधुर-मधुर स्वरों से मुरली बजा रहे हैं। उस मुरली की मधुर ध्वनि को सुनकर समस्त ब्रज गोपांगनायें (जो एक क्षण के लिए भी श्रीकृष्ण से पृथक् होकर अत्यन्त विरह व्याकुलता में पुनः श्रीकृष्ण- दर्शन होने पर विधाता को कोसती थी कि तूने एक क्षण के वियोग के बाद पूर्ण मधुर मिलन की बाधक पलकों का निर्माण क्यों किया है।) अत्यन्त आतुर होकर श्यामसुन्दर के दर्शनार्थ अपने घरों से भागकर इकट्ठी हो गई हैं। श्रीकृष्ण के एक कंधे पर लठिया है, दूसरे कंधे पर काला कंबल है, घुंघराले बाल, उलझे हुए हठात् मन को मुग्ध कर रहे हैं। गायें अपने बछड़ों के वात्सल्य प्रेम रस में विभोर अपने थनों से पृथ्वी पर स्वाभाविक ही दूध चुआती हुई चली आ रही हैं। 'कृपालु' कहते हैं कि गायों से युक्त गोपाल की इस बाँकी झाँकी को देखने के लिए भगवान् शंकर भी बरबस अपनी निर्विकल्प समाधि को भूल जाते हैं।
उधर यशोदा मैया और रोहिणीजी का हृदय स्नेह से भर गया। श्याम और राम के घर पहुँचते ही उन्होंने समय के अनुसार पहले से तैयार किए गए भोजन और वस्त्र उन्हें दिए। माताओं ने तेल और उबटन लगाकर दोनों को स्नान कराया, जिससे दिनभर की थकान दूर हो गई। फिर उन्होंने उन्हें साफ वस्त्र पहनाए, फूलों की माला और चंदन लगाया।
इसके बाद दोनों भाइयों ने माताओं के हाथ से परोसा हुआ स्वादिष्ट भोजन किया। फिर यशोदा और रोहिणी ने बड़े प्रेम से उन्हें सुलाया। श्याम और राम आराम से सो गए। इस प्रकार श्रीकृष्ण वृन्दावन में अनेक लीलाएँ करते रहते थे।
श्रीकृष्ण कूदे कालिया दह में
एक दिन वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर गए। उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे। जेठ–आषाढ़ की तेज़ गर्मी से गौएँ और ग्वालबाल बहुत परेशान थे। प्यास के कारण उनका गला सूख रहा था। इसी वजह से उन्होंने यमुना का विषैला जल पी लिया। उस समय होनी के कारण उन्हें इसका ध्यान नहीं रहा। जैसे ही उन्होंने वह जल पिया, सभी गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुना के तट पर गिर पड़े। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अपनी कृपाभरी दृष्टि उन पर डाली और सबको फिर से जीवित कर दिया। होश में आते ही वे सभी उठ खड़े हुए और हैरानी से एक-दूसरे को देखने लगे।
शुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं कि सबने यही समझा कि हम विषैला जल पीकर मर गए थे, लेकिन हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी करुणामय दृष्टि से हमें फिर से जीवन दे दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि कालिय नाग ने यमुनाजी के जल को विषैला कर दिया है। यमुनाजी को शुद्ध करने के लिए उन्होंने उस सर्प को वहाँ से हटाने का निश्चय किया।
यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से लगातार खौलता रहता था। उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाते थे। जब उस विषैले जल की तरंगों का स्पर्श या उसकी बूँदें हवा के साथ बाहर आतीं और किनारे की घास, पेड़, पशु और पक्षियों को छूतीं, तो वे उसी समय मर जाते थे।
जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उस सर्प का विष बहुत भयानक है और उसके कारण यमुनाजी भी दूषित हो गई हैं, तब उन्होंने कमर कस ली। वे एक ऊँचे कदम्ब के पेड़ पर चढ़े और ताल ठोंककर विषैले जल में कूद पड़े।
कालिय के विष के कारण यमुनाजी का जल पहले से ही उबल रहा था। उसकी तरंगें लाल और पीली होकर भयानक रूप से उठ रही थीं। श्रीकृष्ण के कूदते ही जल और अधिक उछल पड़ा। उस समय कालिय के कुण्ड का जल चार सौ हाथ तक फैल गया। श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर जल उछालने लगे। जब वे जल में खेल रहे थे, तो उनकी भुजाओं की टक्कर से पानी में तेज़ आवाज़ होने लगी।
श्रीकृष्ण बँधे कालिया के नागपास में
यह आवाज़ कालिय नाग ने सुनी। उसने देखा कि कोई उसके रहने के स्थान में खेल रहा है। उसे यह अच्छा नहीं लगा और वह क्रोधित होकर श्रीकृष्ण के सामने आ गया। उसने देखा कि सामने एक साँवला-सुन्दर बालक खड़ा है। उसका शरीर वर्षा के बादल जैसा कोमल है। उसके वक्ष पर श्रीवत्स का चिन्ह है और उसने पीले वस्त्र पहन रखे हैं।
कालिय ने देखा कि यह बालक बिना किसी डर के विषैले जल में आनंद से खेल रहा है। इससे उसका क्रोध और बढ़ गया। उसने श्रीकृष्ण को डँस लिया और अपने शरीर से उन्हें कसकर बाँध लिया। नाग के बंधन में पड़कर श्रीकृष्ण कुछ समय के लिए निश्चल हो गए। यह देखकर उनके सखा ग्वालबाल बहुत दुखी हो गए और दुःख, भय और पछतावे से मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। गायें, बैल और बछड़े भी डर और दुःख से रंभाने लगे। वे श्रीकृष्ण की ओर ही देखते रह गए और भय से ऐसे खड़े हो गए मानो रो रहे हों। उनके शरीर में कोई हलचल नहीं थी।
उधर व्रज में पृथ्वी, आकाश और लोगों के शरीरों में भयानक अशुभ लक्षण दिखाई देने लगे, जिससे यह संकेत मिल रहा था कि कोई बड़ी अनहोनी होने वाली है।
नन्दबाबा और अन्य गोपों ने पहले इन अशकुनों को देखा। फिर उन्हें पता चला कि आज श्रीकृष्ण बलराम के बिना ही गाय चराने गए हैं। यह जानकर वे बहुत घबरा गए।
वे भगवान् की लीला को नहीं जानते थे। इसलिए अशकुन देखकर उनके मन में यही विचार आया कि आज श्रीकृष्ण की मृत्यु हो गई होगी। यह सोचकर वे गहरे दुःख, शोक और भय में डूब गए, क्योंकि श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, मन और सर्वस्व थे।
व्रजके बालक, वृद्ध और स्त्रियोंका स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मनमें ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैयाको देखनेकी उत्कट लालसासे घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े। बलरामजी स्वयं भगवान के स्वरूप और सर्वशक्तिमान हैं। जब उन्होंने व्रजवासियों को इतना व्याकुल और दुखी देखा, तो उन्हें हँसी आ गई। पर वे कुछ बोले नहीं और चुप रहे, क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण की शक्ति को अच्छी तरह जानते थे।
व्रजवासी अपने प्रिय श्रीकृष्ण को खोजने लगे। उन्हें अधिक कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि रास्ते में उन्हें भगवान के चरणचिह्न मिलते जा रहे थे। उन चरणचिह्नों में छत्र, ध्वजा, कमल, अंकुश आदि के चिन्ह थे, जिनसे वे पहचानते हुए यमुनातट की ओर बढ़े। दूर से ही उन्होंने देखा कि कालियदह में श्रीकृष्ण कालिय नाग के शरीर से जकड़े हुए निश्चल पड़े हैं। कुण्ड के किनारे ग्वालबाल बेहोश पड़े थे और गौएँ, बैल और बछड़े जोर-जोर से रंभा रहे थे। यह दृश्य देखकर सभी गोप अत्यन्त व्याकुल हो गए और अंत में मूर्छित हो पड़े।
गोपियों का मन सदा भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबा रहता था। वे उनकी मुस्कान, प्रेमभरी दृष्टि और मधुर वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि उनके प्रिय श्यामसुन्दर को काले नाग ने जकड़ रखा है, तो उनके हृदय में गहरा दुःख और जलन भर गई। अपने जीवन-सर्वस्व के बिना उन्हें सारा संसार सूना लगने लगा।
माता यशोदा अपने लाड़ले पुत्र के पीछे कालियदह में कूदने ही वाली थीं, लेकिन गोपियों ने उन्हें रोक लिया। उनके हृदय में भी वही पीड़ा थी और आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। सबकी निगाहें श्रीकृष्ण के मुख पर टिकी थीं। जिनमें अभी होश था, वे श्रीकृष्ण की पूतना-वध जैसी लीलाओं को याद कर यशोदा मैया को ढाढ़स बँधाने लगीं, लेकिन अधिकतर तो बेहोश होकर भूमि पर गिर चुकी थीं।
नन्दबाबा और अन्य गोपों के प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे उनके लिए कालियदह में उतरने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले बलरामजी ने किसी को समझाकर, किसी को बल से और किसी को मन में प्रेरणा देकर रोक लिया।
श्रीकृष्ण ने किया कालिया नाग के फणों पर नृत्य
साँप के शरीर से बँध जाना श्रीकृष्ण की एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रज के सभी लोग, स्त्रियाँ और बच्चे उनके लिए बहुत दुःखी हो रहे हैं, तब वे थोड़ी देर तक सर्प के बंधन में रहकर स्वयं बाहर निकल आए। उस समय श्रीकृष्ण ने अपना शरीर फुला लिया और बहुत भारी बना लिया। इससे साँप का शरीर दबने लगा। कालिय नाग ने नागपाश छोड़ दिया और अलग हट गया। वह क्रोध से भरकर अपने फण उठाकर फुफकारने लगा।
मौका पाकर श्रीकृष्ण पर वार करने के लिए वह एकटक उनकी ओर देखने लगा। उसके नथुनों से विष की धार निकल रही थी। उसकी आँखें लाल हो गई थीं और मुँह से आग जैसी लपटें निकल रही थीं। कालिय नाग अपनी दोहरी जीभ हिलाते हुए होंठ चाट रहा था और आँखों से विष उगल रहा था। भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़ की तरह उसके साथ खेलते हुए पैंतरे बदलने लगे। साँप भी वार करने के लिए पैंतरे बदलता रहा।
इस तरह पैंतरे बदलते-बदलते कालिय का बल कम हो गया। तब श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को दबाया और उछलकर उन पर चढ़ गए। कालिय के सिरों पर लाल-लाल मणियाँ जड़ी थीं। उनके स्पर्श से श्रीकृष्ण के कोमल चरण और भी लाल दिखाई देने लगे। नृत्य और कला के आदि प्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरों पर सुंदर नृत्य करने लगे।
गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाएँ जब यह देखने लगे कि भगवान् नृत्य कर रहे हैं, तो वे प्रेम से भर गए। वे मृदंग, ढोल और नगाड़े बजाने लगे, मधुर गीत गाने लगे और पुष्पों की वर्षा करने लगे। वे भेंट लेकर उसी समय भगवान् के पास आ पहुँचे।
कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। जो सिर वह नहीं झुकाता था, उसी को भगवान् अपने चरणों की चोट से दबा देते थे। इससे कालिय की शक्ति धीरे-धीरे कम होने लगी। वह मुँह और नथुनों से खून उगलने लगा और अंत में चक्कर खाकर बेहोश हो गया।
थोड़ी-थोड़ी चेतना आने पर वह आँखों से विष उगलता और क्रोध में जोर-जोर से फुफकारने लगता। इस प्रकार वह जब भी कोई सिर उठाता, नृत्य करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उसे अपने चरणों से दबाकर झुका देते। उस समय भगवान् के चरणों पर जो रक्त की बूँदें पड़ती थीं, वे ऐसी लगती थीं मानो उनके चरणों की रक्त-पुष्पों से पूजा हो रही हो।
भगवान् के इस अद्भुत नृत्य से कालिय नाग के फण टूट गए। उसका पूरा शरीर बुरी तरह घायल हो गया और उसके मुँह से खून निकलने लगा। भगवान् श्रीकृष्ण के उदर में पूरा संसार है। इसलिए उनके भार से कालिय नाग के शरीर की सारी शक्ति टूटने लगी। श्रीकृष्ण की एड़ियों की चोट से उसके छत्र जैसे फण चूर-चूर हो गए। तब उसे सारे जगत् के आदि गुरु भगवान् नारायण का स्मरण हुआ और वह मन ही मन उनकी शरण में चला गया।
नाग पत्नियों श्रीकृष्ण से माँगी क्षमा
अपने पति की यह दशा देखकर कालिय की पत्नियाँ बहुत घबरा गईं और भगवान् की शरण में आ गईं। भय के कारण उनके वस्त्र और आभूषण बिखर गए और बाल खुल गए। उन नागपत्नियों का मन अत्यन्त व्याकुल था। वे अपने बच्चों को आगे करके भूमि पर गिर पड़ीं और हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करने लगीं। भगवान् को शरणागतों पर कृपा करने वाला जानकर उन्होंने अपने अपराधी पति को बचाने के लिए उनकी शरण ली।
नागपत्नियाँ भगवान् श्रीकृष्ण से क्षमा की प्रार्थना करती हैं। वे कहती हैं कि कालिय को दण्ड मिलना न्यायसंगत है, फिर भी वह दण्ड भी भगवान् की कृपा है। वे मानती हैं कि किसी पूर्व पुण्य के कारण ही कालिय को भगवान् के चरणों का स्पर्श मिला और भगवान् ही सर्वशक्तिमान और सबके आधार हैं। अंत में वे करुणा की याचना करती हैं कि उनके अपराधी पति को क्षमा कर दिया जाए और उन्हें सेवा की आज्ञा दी जाए।
कालिया नाग ने माँगी श्रीकृष्ण से क्षमा और अभय दान
जब नागपत्नियोंने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया ।
धीरे-धीरे कालिय नागकी इन्द्रियों और प्राणोंमें कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनतासे श्वास लेने लगा और थोड़ी देरके बाद बड़ी दीनतासे हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्णसे बोला की हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत क्रोधी हैं। अपने स्वभाव को छोड़ना जीवों के लिए बहुत कठिन होता है। आपने ही गुणों के अनुसार इस संसार में अलग-अलग स्वभाव, शक्ति, शरीर और योनियाँ बनाई हैं। आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं, और हमारा स्वभाव ही क्रोधी होना है। हम स्वयं आपकी माया में मोहित हैं। इस माया को अपने बल से छोड़ना हमारे लिए संभव नहीं है। हमारा स्वभाव और यह माया भी आपकी ही व्यवस्था है। अब आप जैसा उचित समझें, वैसा करें—चाहे कृपा करें या दण्ड दें।
कालिय नाग की बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, “सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिए। तू अपने भाई-बन्धुओं, पुत्रों और पत्नियों के साथ तुरंत समुद्र में चला जा। अब से गौएँ और मनुष्य यमुना के जल का उपयोग करेंगे। जो मनुष्य दिन में दो बार मेरी इस आज्ञा का स्मरण और कीर्तन करेगा, उसे साँपों से कभी भय नहीं होगा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर यहाँ आया था। अब तेरे शरीर पर मेरे चरणचिह्न अंकित हैं, इसलिए गरुड़ अब तुझे नहीं खाएँगे।”
श्रीशुकदेवजी कहते हैं की भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने आदरपूर्वक भगवान् की पूजा की और उन्हें दिव्य वस्त्र, पुष्प, मणि, आभूषण, चन्दन और कमलों की माला अर्पित की। फिर परिक्रमा और वन्दना करके अनुमति ली और अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धुओं के साथ समुद्र के रमणक द्वीप को चले गए। भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना का जल उसी समय विषरहित होकर अमृत के समान मधुर हो गया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 15.12.2025