श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 14-15
भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप दर्शन करने के बाद ब्रह्माजी ने हाथ जोड़ लिये। अत्यन्त नम्र होकर, भरायी हुई आवाज़ में वे कहते हैं की हे प्रभो कृष्ण! आपका मेघ-श्याम शरीर, पीताम्बर, मकर-कुण्डल, मोर-पंख मुकुट और गोपाल-वेष अद्भुत शोभा दे रहे हैं; आपके चरणों में मेरा प्रणाम है। आपका सत्त्वमय, स्वयं-प्रकाश विग्रह पंचभूतों से परे है; न योगी इसे जान सकते, न ज्ञानी इसे अपनी बुद्धि से माप सकते।
जो विनम्र भाव से संत-संग और आपकी लीला-कथा का श्रवण करते हैं, वे आपको प्रेम से वश में कर लेते हैं; क्योंकि भक्ति ही सर्व-मंगल का स्रोत है, ज्ञान-मार्ग कठिन और क्लेशकारी है।
प्राचीन योगियों ने भी जब योग द्वारा आपको दुर्लभ पाया, तब अपने सारे कर्म आपके चरणों में समर्पित किए; उसी से उन्हें भक्ति और भक्ति से आपके परम पद की प्राप्ति हुई।
प्रभो, पृथ्वी के परमाणु गिनने वाले भी आपके अनन्त गुणों की गणना नहीं कर सकते। आपकी महिमा अगम्य और अनन्त है।
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ८ ॥
इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपाका ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गदगद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता है—इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र! (भागवत 10.14.8)
ब्रह्माजी नम्र होकर कहते हैं की हे प्रभो! मैं रजोगुण और अज्ञान से मोहित होकर आप पर माया चलाने का दुस्साहस किया। आपके आगे मैं चिनगारी-सा भी नहीं हूँ। आपके रोम-रोम में असंख्य ब्रह्माण्ड विचरते हैं; और मैं तीन हाथ के शरीर वाला क्षुद्र जीव। माता गर्भस्थ बालक की मूर्खता को जिस प्रकार क्षमा करती है, वैसे ही मेरी भूलें भी आपकी शरण में क्षम्य हैं।
श्रुतियाँ कहती हैं कि मैं आपके नाभिकमल से जन्मा हूँ अतः आपका पुत्र ही हूँ। आपका विराट रूप न दिखना, फिर आपका मेरी तपस्या में हृदय में प्रकट होना और पुनः अन्तर्धान होना यह सब आपकी अद्भुत माया ही है। आज भी आपने दिखा दिया की समस्त ग्वालबाल, बछड़े, ब्रह्माण्ड सब आप ही हैं, और अंत में केवल आपका ब्रह्मस्वरूप शेष रहता है।
अज्ञानी आपको प्रकृति-बद्ध जीव समझते हैं, तभी सृष्टि-विनाश-पोषण में आप ब्रह्मा, विष्णु, रुद्ररूप से प्रतीत होते हैं। आप दुष्टों का दर्प तोड़ने और भक्तों पर कृपा करने के लिये अनेक योनियों में अवतरित होते हैं। आपकी योगमाया अगाध है। संसार माया से उत्पन्न स्वप्न समान है; सत्य केवल आपका परमानन्दमय स्वरूप है।
स्वयंप्रकाश आत्मतत्त्व ही सत्य है; बन्धन-मोक्ष केवल अज्ञान की कल्पनाएँ हैं—जैसे रस्सी में साँप का भ्रम। जीव आपका परित्याग कर शरीर को ‘मैं’ मान लेता है और यही महान अज्ञान है। संतजन अन्तःकरण की शुद्धता से ही आपको पाते हैं। आपकी कृपा से ही माया विलीन होती है और आपकी सच्चिदानन्द महिमा का साक्षात्कार होता है; केवल ज्ञान-वैराग्य से यह सिद्ध नहीं होता।
प्रभो! मुझे किसी भी योनि में ऐसा सौभाग्य मिले कि मैं आपका दास बनकर आपके चरणों की सेवा कर सकूँ। बड़े यज्ञ आपको तृप्त न कर सके, पर व्रज की गोपियाँ और गायें अपने शुद्ध स्नेह से आपको तृप्त कर देती हैं। आपने स्वयं उनके बछड़े और बालक बनकर उनका प्रेम ग्रहण किया; वे ही वास्तव में धन्य हैं।
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् ।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥
अहो, नन्द आदि व्रजवासी गोपोंके धन्य भाग्य हैं। वास्तवमें उनका अहोभाग्य है। क्योंकि परमानन्दस्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगेसम्बन्धी और सहृद हैं। (भागवत 10.14.32)
हे कृष्ण! व्रजवासियों का सौभाग्य तो अनन्त है, पर हम देवताओं का भी कितना बड़ा भाग्य है कि हमारी समस्त इन्द्रियाँ बार-बार आपके चरणों के अमृत को चखने का अवसर पाती हैं—वह अमृत जिसे शंकरजी भी पाना चाहते हैं।
तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां ।
यद्गोकुलेऽपि कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम् ।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्दः
त्वद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव ॥
प्रभो! इस व्रजभूमिके किसी वनमें और विशेष करके गोकुलमें किसी भी योनिमें जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जानेपर आपके किसी-न-किसी प्रेमीके चरणोंकी धुली अपने ऊपर पड़ ही जायगी।
प्रभो! आपके प्रेमी व्रजवासियोंका सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवनके एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिये उनके चरणोंकी धूलि मिलना आपके ही चरणोंकी धूलि मिलना है और आपके चरणोंकी धूलिको तो श्रुतियाँ भी अनादि कालसे अबतक ढूँढ़ ही रही हैं । (भागवत 10.14.34)
ब्रह्माजी प्रार्थना करते हैं, "हे प्रभो! व्रजवासियों को आप क्या फल देंगे? जब समस्त फलों का परम फल आप स्वयं ही हैं। पूतना जैसी क्रूर भी आपके चरण से धाम को पा गई, फिर जिन्होंने तन-मन-प्राण सब आपको अर्पित कर दिया, उनके प्रति आप उऋण कैसे हो सकते हैं।
जीव राग-द्वेष और मोह में तभी तक बँधा रहता है, जब तक वह आपका नहीं हो जाता। आप निर्लिप्त होकर भी भक्तों को आनन्द देने के लिये अवतरित होते हैं; आपकी महिमा वाणी और मन की सीमा से परे है। प्रभो, मुझे स्वीकार कीजिये और अपने लोक में जाने की आज्ञा दें।"
ऐसा कहकर ब्रह्माजी स्तुति पूर्ण कर सत्यलोक को लौट जाते हैं।
कृष्ण बछड़ों को लेकर यमुना-तट पर आते हैं; योगमाया से ग्वालबालों को एक वर्ष आधा क्षण-सा प्रतीत होता है। वे कृष्ण को देखकर उल्लास से भोजन करते हैं। कृष्ण हँसते-खेलते उन्हें साथ लेकर वन से व्रज लौटते हैं और बालक व्रज में बतलाते हैं, ‘आज नन्दनन्दन ने एक विशाल अजगर का वध किया।’
परीक्षित पूछते हैं की व्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरेके पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्णके प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकोंपर भी पहले कभी नहीं हुआ था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है?
शुकदेवजी कहते हैं की संसारके सभी प्राणी अपने आत्मासे ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं। जो लोग देहको ही आत्मा मानते हैं, वे भी अपने शरीरसे जितना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम शरीरके सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदिसे नहीं करते ।
जब विचारके द्वारा यह मालूम हो जाता है कि ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीरसे भी आत्माके समान प्रेम नहीं रहता।
कृष्णमेनमवेहि त्वं आत्मानं अखिलात्मनाम् ।
जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥
इन श्रीकृष्णको ही तुम सब आत्माओंका आत्मा समझो। संसारके कल्याणके लिये ही योगमायाका आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारीके समान जान पड़ते हैं। (भागवत 10.15.55)
जो ज्ञानी श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को पहचान लेते हैं, उनके लिये समस्त चराचर जगत, और उससे परे परमात्मा–ब्रह्म आदि सभी तत्त्व, कृष्णस्वरूप ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि कारणों के भी परम कारण भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं; अतः उनसे भिन्न कोई वस्तु कही ही नहीं जा सकती।
जो सत्पुरुष मुकुन्द मुरारी के चरण-कमलों की नौका का आश्रय ले लेते हैं, उनके लिये यह भवसागर बछड़े के खुर के गढ़े के समान (भवाम्बुधि वत्सपदं) तुच्छ हो जाता है। वे परमपद को प्राप्त होकर संसार-जनित भय और विपत्तियों से मुक्त हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण का गोचारण के लिए वन में जाना
श्रीशुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं की जब श्रीकृष्ण और बलराम पौगण्ड अवस्था में पहुँचे, तब उन्हें गौएँ चराने की अनुमति मिली। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौओँ को ले जाते हुए वृन्दावन में प्रवेश करते, और उनके चरणों से वह धाम अत्यन्त पावन हो उठता।
वृन्दावन हरी-घास, पुष्प-समृद्ध वनों, कलकल जल, मधुर भौंरों, मृगों और पक्षियों से सुशोभित था। सरोवर महात्माओं के हृदय की भाँति निर्मल थे और कमलों की सुगन्ध से वन सुवासित था। इस मनोहर दृश्य को देखकर श्रीकृष्ण ने वहाँ विहार का संकल्प किया।
श्रीकृष्ण मुस्कराकर बलरामजी से कहते हैं, “भैया, ये वृक्ष फल-फूलों से झुककर आपकी पूजा कर रहे हैं; ब्रह्मज्ञानी मुनि वृक्ष-योनि ग्रहण कर आपके दर्शन से अज्ञान का नाश कर रहे हैं। देखिए, मोर आपके दर्शन से नृत्य कर रहे हैं, हरिणियाँ प्रेम प्रकट कर रही हैं, कोयलें मधुर स्वरों से स्वागत कर रही हैं। वृन्दावन की भूमि, उसकी लताएँ, पर्वत, नदियाँ और समस्त पशु-पक्षी आपके चरण-स्पर्श और कृपा से कृतार्थ हो रहे हैं; व्रज की गोपियाँ तो आपके वक्षःस्थल के स्पर्श से अत्यन्त धन्य हो रही हैं।”
आघे श्रीशुकदेवजी कहते हैं की श्रीकृष्ण बलराम और ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई और यमुना-तट पर गौओँ को चराते हुए विविध रमणीय लीलाएँ करने लगे। ग्वालबाल उनके चरित्र गाते, और श्रीकृष्ण-बलराम भौरों की गुंजार में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापते। कभी कृष्ण राजहंसों के साथ कूजन करने लगते, कभी नाचते मोरों के साथ ठुमुकते; कभी गायों को प्रेम से पुकारते, तो कभी पक्षियों और वन्य पशुओं की बोली की नकल करके हास्य-लीला करते।
जब बलराम थककर किसी ग्वालबाल की गोद में विश्राम लेते, तब श्रीकृष्ण उनके पैर दबाते और पंखा झलते। ग्वालबाल नाचते या कुश्ती करते तो कृष्ण-बलराम हँसकर उन्हें सराहते। कभी स्वयं कृष्ण ग्वालबालों के साथ खेलते-खेलते थक जाते और किसी वृक्ष के नीचे किसी सखा की गोद में सिर रखकर विश्राम करते, तब कोई उनके चरण दबाता और कोई पंखा करता।
कुछ ग्वालबाल प्रेम से कृष्ण के प्रिय गीत गाते और उनके हृदय को आनन्दित करते। योगमाया के प्रभाव से भगवान् अपने असली ऐश्वर्य को छिपाकर सखा-बालकों के समान खेलते; पर कभी-कभी उनकी दिव्य महिमा स्वयमेव प्रकट हो जाती थी।
तालवन में बलरामजी द्वारा धेनुकासुर का वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं की व्रज के प्रधान सखा श्रीदामा, सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) एक दिन बड़े प्रेम से कृष्ण-बलराम से बोले, “हे दाऊ बलराम! आपका बल अपार है, और हे श्याम! दुष्टों का विनाश करना तो आपका स्वभाव ही है। निकट ही तालवन नाम का घना वन है, जहाँ पंक्तियों में ताड़-वृक्ष खड़े हैं और सुगन्धित पके फल प्रचुर मात्रा में गिरे रहते हैं।
पर वहाँ धेनुक नाम का भयङ्कर गधारूप दैत्य रहता है। वह अत्यन्त बलवान है, और उसके अनेक बलिष्ठ साथी भी उसी रूप में वहाँ डेरा डाले हैं। न जाने वह अब तक कितने मनुष्यों को मार चुका है, इसी कारण न मनुष्य वहाँ जाते हैं, न पशु-पक्षी। इन फलों की सुगन्ध मन को मोह लेती है, पर हमने उन्हें कभी चखा नहीं। श्याम! उनके रस की मन्द-मन्द खुशबू से हमारा मन व्याकुल हो रहा है तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ! हमें उन फलों की बड़ी प्रबल इच्छा है। यदि आपको उचित लगे, तो चलिये, उस वन में चलें।”
ग्वालबालों की विनती सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम हँस पड़े और उन्हें प्रसन्न करने हेतु तालवन की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर बलरामजी ने ताड़-वृक्षों को मतवाले हाथी-शावक की तरह हिलाया, जिससे बहुत-से फल नीचे गिर पड़े।
फल गिरने का शब्द सुनते ही गधारूप दैत्य धेनुकासुर पृथ्वी को कंपाता हुआ क्रोध से वहाँ पहुँचा। उसने वेगपूर्वक बलरामजी की छाती पर दुलत्ती मारी और गर्जन करता हुआ हट गया। क्रोध से उन्मत्त होकर वह फिर लौटा और पुनः दुलत्ती चलायी।
परन्तु इस बार बलरामजी ने उसके दोनों पैर एक हाथ से ही पकड़ लिये, उसे आकाश में चक्रवत् घुमाया और ताड़-वृक्ष पर दे मारा। दैत्य तत्काल मारा गया। उसके गिरते ही अनेक वृक्ष एक-दूसरे पर गिरते चले गये।
उसके साथी गधे भी बलराम और श्रीकृष्ण पर टूट पड़े, पर दोनों भाई उन्हें खेल-ही-खेल में पकड़कर ताड़-वृक्षों पर पटकते गये। देखते ही देखते दैत्यों की टोली नष्ट हो गई; भूमि फलों और गिरे हुए वृक्षों से भर गयी, मानो आकाश बादलों से ढक गया हो।
देवता इस विजय-लीला से प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा करने लगे और बाजे बजाने लगे।
जिस दिन धेनुकासुर मारा गया, उसी दिन से मनुष्य निर्भय होकर तालवन के फल खाने लगे और पशु भी स्वतंत्रता से वहाँ चरने लगे।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 12.12.2025