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88- कृष्ण बाल लीलाएँ: फलवाली लीला, गोकुल से वृंदावन गमन, वत्सासुर और बकासुर उद्धार

Dec 4th, 2025 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 11

सर्वशक्तिमान् भगवान् कभी-कभी गोपियोंके फुसलानेसे साधारण बालकोंके समान नाचने लगते। कभी भोले-भाले अनजान बालककी तरह गाने लगते। वे उनके हाथकी कठपुतली-उनके सर्वथा अधीन हो गये। वे कभी उनकी आज्ञासे पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलनेके बटखरे उठा लाते। कभी खडाऊँ ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तोंको आनन्दित करनेके लिये पहलवानोंकी भाँति ताल ठोंकने लगते।

इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान् अपनी बाल-लीलाओंसे व्रजवासियोंको आनन्दित करते और संसारमें जो लोग उनके रहस्यको जानने-वाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकोंके वशमें हूँ।

कृष्ण और फलवाली

एक दिन कोई फल बेचनेवाली आकर पुकार उठी, ‘फल लो फल! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओंके फल देनेवाले भगवान् अच्युत फल खरीदनेके लिये अपनी छोटी-सी अंजलीमें अनाज लेकर दौड़ पड़े। उनकी अंजलिमेंसे अनाज तो रास्तेमें ही बिखर गया, पर फल बेचनेवालीने उनके दोनों हाथ फलसे भर दिये। इधर भगवान्ने भी उसकी फल रखनेवाली टोकरी रत्नोंसे भर दी।

यह प्रसंग हमें यह गहन संदेश देता है कि फल देने वाले केवल भगवान हैं, जहाँ फल का अर्थ हमारे कर्मों के फल से है। फलवाली जीव का प्रतीक है और उसके लाये हुए फल जीव के अनंत जन्मों से संचित कर्म–फलों का संकेत करते हैं, जिन्हें वह जन्म-जन्मांतर से ढोता रहता है। जब फलवाली कृष्ण को अपने फल देती है, तो यह दर्शाता है कि जीव अपने सभी कर्म-फलों को भगवान को समर्पित करता है। भगवान अच्युत अपनी छोटी अंजलि में अनाज लेकर दौड़ते हैं, यह इस सत्य का सुंदर संकेत है कि जब जीव अपना सब कर्म-फल भगवान को सौंपने आता है, तब सभी कर्मों के फलदाता भगवान भी भक्त के प्रेम से विवश होकर प्रेम का सौदा करने स्वयं आगे बढ़ते हैं। फलवाली जब अपने फल कृष्ण के हाथों में उंडेल देती है, तभी वह दिव्य सौदा पूर्ण होता है। जीव अपने संचित कर्म–फलों को भगवान के चरणों में समर्पित कर देता है, और बदले में भगवान उसकी टोकरी रत्नों से भर देते हैं। ये रत्न भगवान के वास्तविक धन बंधन-मुक्ति और अंततः दिव्य आन्दन प्राप्ति का प्रतीक हैं।

कृष्ण और यशोदा

एक दिन कृष्ण और बलराम ग्वाल–बालकों के साथ यमुनातट पर खेल में मग्न थे। रोहिणीजी ने उन्हें आवाज़ दी, पर वे खेल में डूबे होने के कारण नहीं आये। तब उन्होंने यशोदा मैया को भेजा। 
यशोदा मैया वहाँ पहुँचीं तो देखा कि दोनों भाई देर से खेलते-खेलते थक गये हैं और धूल–मिट्टी से भरे हैं। वे उन्हें प्यार से पुकारने लगीं, “कन्हैया, कृष्ण, कमलनयन, श्यामसुन्दर… आओ बेटा! दूध पी लो, नहा लो, तुम भूख से कमजोर हो रहे हो।

बलराम! व्रजराज तुम्हारी बाट देख रहे हैं। आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र भी है, पवित्र होकर ब्राह्मणों को दान देना है।”

मैया ने समझाया कि सारे ग्वाल–बालकों को उनकी माताएँ नहलाकर सजाकर ले गयी हैं, अब तुम दोनों भी घर चलो। यशोदाजी का हृदय प्रेम से भरा हुआ था। वे जगत के स्वामी कृष्ण और बलराम को बिल्कुल अपने छोटे-छोटे पुत्रों की तरह समझकर, एक हाथ से बलराम और दूसरे हाथ से कृष्ण को पकड़कर प्रेम से घर ले आयीं। फिर उन्होंने दोनों के मंगल के लिये सब विधियाँ प्रेमपूर्वक कीं।

गोकुल से वृंदावन गमन

जब नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने देखा कि महावनमें तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, तब वे लोग इकटे होकर ‘अब व्रजवासियोंको क्या करना चाहिये’-इस विषयपर विचार करने लगे। उनमेंसे एक गोपका नाम था उपनन्द। वे अवस्थामें तो बड़े थे ही, ज्ञानमें भी बड़े थे। उन्हें इस बातका पता था कि किस समय किस स्थानपर किस वस्तुसे कैसा व्यवहार करना चाहिये। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि राम और श्याम सुखी रहें, उनपर कोई विपत्ति न आवे।

उन्होंने कहा कि अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चोंके लिये तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिये यदि हमलोग गोकुल और गोकुलवासियोंका भला चाहते हैं, तो हमें यहाँसे अपना डेरा-डंडा उठाकर कूच कर देना चाहिये ।

देखो, यह सामने बैठा हुआ नन्दरायका लाड़ला सबसे पहले तो बच्चोंके लिये कालस्वरूपिणी हत्यारी पूतनाके चंगुलसे किसी प्रकार छूटा। इसके बाद भगवान्की दूसरी कृपा यह हुई किइसके ऊपर उतना बड़ा छकड़ा गिरते गिरते बचा ।

बवंडररूपधारी दैत्यने तो इसे आकाशमें ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मत्युके मुख) में ही डाल दिया था, परन्तु वहाँसे जब वह चट्टानपर गिरा, तब भी हमारे कुलके देवेश्वरोंने ही इस बालककी रक्षा की।

यमलार्जुन वृक्षोंके गिरनेके समय उनके बीचमें आकर भी यह या और कोई बालक न मरा। इससे भी यही समझना चाहिये कि भगवान्ने हमारी रक्षा की।

इसलिये जबतक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और हमारे व्रजको नष्ट न कर दे, तबतक ही हमलोग अपने बच्चोंको लेकर अनुचरोंके साथ यहाँसे अन्यत्र चले चलें । कहाँ चलें, जब इस विषय पर चर्चा हुई तो वृंदावन का नाम सामने आया। 
वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।
गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रि तृणवीरुधम् ॥
‘वृन्दावन’ नामका एक वन है। उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नये-नये। हरे-भरे वन हैं। वहाँ बड़ा ही पवित्र पर्वत, घास और हरी-भरी लता-वनस्पतियाँ हैं। हमारे पशुओंके लिये तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायोंके लिये वह केवल सुविधाका ही नहीं, सेवन करनेयोग्य स्थान है। (भागवत 10.11.28)  

सो यदि तुम सब लोगोंको यह बात अँचती हो तो आज ही हमलोग वहँके लिये कूच कर दें।
उपनन्दकी बात सुनकर सभी गोपोंने एक स्वरसे कहा, 'बहुत ठीक, बहुत ठीक।’ सब लोगोंने अपनी झुंड-की-झुंड गायें इकट्ठी की और छकड़ोंपर घरकी सब सामग्री लादकर वृन्दावनकी यात्रा की।

ग्वालोंने बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियोंको छकड़ोंपर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानीसे चलने लगे। उन्होंने गौ और बछड़ोंको तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिंगी और तुरही जोर-जोरसे बजाते हुए चले। उनके साथ ही-साथ पुरोहितलोग भी चल रहे थे।

गोपियाँ अपने-अपने वक्षःस्थलपर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर, गलेमें सोनेके हार धारण किये हुए रथोंपर सवार थीं और बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंके गीत गाती जाती थीं। यशोदारानी और रोहिणीजी भी वैसे ही सजधजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा बलरामके साथ एक छकड़ेपर शोभायमान हो रही थीं। वे अपने दोनों बालकोंकी तोतली बोली सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहती थीं।

वृन्दावन बड़ा ही सुन्दर वन है। चाहे कोई भी ऋतु हो, वहाँ सुख-ही-सुख है। उसमें प्रवेश करके ग्वालोंने अपने छकड़ोंको अर्द्धचन्द्राकार मण्डल बाँधकर खड़ा कर दिया और अपने गोधनके रहनेयोग्य स्थान बना लिया।

वृंदावन में सखाओं के साथ कृष्ण की लीला

वृन्दावनका हरा-भरा वन, अत्यन्त मनोहर गोवर्धन पर्वत और यमुना नदीके सुन्दर-सुन्दर पुलिनोंको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके हृदयमें उत्तम प्रीतिका उदय हुआ। दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यन्त मधुर लीलाओंसे गोकुलकी ही तरह वृन्दावनमें भी व्रजवासियोंको आनन्द देते रहे। थोड़े ही दिनोंमें समय आनेपर वे बछड़े चराने लगे।

दूसरे ग्वालबालोंके साथ खेलनेके लिये बहुत-सी सामग्री लेकर वे घरसे निकल पडते और गोष्ठ के पास ही अपने बछड़ोंको चराते। वे कहीं बाँसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेले या गोलियाँ फेंक रहे हैं। किसी समय अपने पैरोंके घुघरूपर तान छेड़ रहे हैं तो कहीं बनावटी गाय और बैल बनकर खेल रहे हैं। एक ओर देखिये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते हुए आपसमें लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर मोर, कोयल, बंदर आदि पशु-पक्षियोंकी बोलियाँ निकाल रहे हैं। इस प्रकार सर्वशक्तिमान् भगवान् साधारण बालकोंके समान खेलते रहते।

वत्सासुर का उद्धार

एक दिनकी बात है, श्याम और बलराम ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर बछड़े चरा रहे थे। उसी समय उन्हें मारनेकी नीयतसे एक दैत्य आया। भगवान्ने देखा कि वह बनावटी बछड़ेका रूप धारणकर बछड़ोंके झुंडमें मिल गया है। वे आँखोंके इशारेसे बलरामजीको दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वे दैत्यको तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़ेपर मुग्ध हो गये हैं।

परंतु पास पहुँचकर और मौक़ा देखकर भगवान् श्रीकृष्णने पूँछके साथ उसके दोनों पिछले पैर पकड़कर आकाशमें घुमाया और मर जानेपर कैथके वृक्षपर पटक दिया। उसका लम्बा तगड़ा दैत्यशरीर बहुत-से कैथके वृक्षोंको गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा। यह देखकर ग्वालबालोंके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे ‘वाह-वाह’ करके प्यारे कन्हैयाकी प्रशंसा करने लगे। देवता भी बड़े आनन्दसे फूलोंकी वर्षा करने लगे। 

जो सारे लोकोंके एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब बछड़ोंके चरवाहे बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवेकी सामग्री ले लेते और बछड़ोंको चराते हुए एक वनसे दूसरे वनमें घूमा करते।

बकासुर का उद्धार

एक दिनकी बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के-झुंड बछड़ोंको पानी पिलानेके लिये जलाशयके तटपर ले गये। उन्होंने पहले बछड़ोंको जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया।
ग्वालबालोंने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्रके वज्रसे कटकर कोई पहाड़का टुकड़ा गिरा हुआ है।

ग्वालबाल उसे देखकर डर गये। वह ‘बक’ नामका एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुलेका रूपधरके वहाँ आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान् था। उसने झपटकर श्रीकृष्णको निगल लिया। जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्णको निगल गया, तब वे अचेत हो गये। 

श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्माके भी पिता हैं। वे लीलासे ही गोपाल-बालक बने हुए हैं। जब वे बगुलेके तालुके नीचे पहुँचे, तब वे आगके समान उसका तालु जलाने लगे। अतः उस दैत्यने श्रीकृष्ण को झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोधसे अपनी कठोर चोंचसे उनपर चोट करनेके लिये टूट पड़ा। तभी श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकड़ लिये और ग्वालबालोंके देखते-देखते खेल-ही-खेलमें उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई तिनके को चीर डाले। 

सभी देवता भगवान् श्रीकृष्णपर नन्दनवनके बेला, चमेली आदिके फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शंख आदि बजाकर एवं स्तोत्रोंके द्वारा उनको प्रसन्न करने लगे। यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये।

जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि श्रीकृष्ण बगुलेके मुँहसे निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हआ, मानो प्राणोंके संचारसे इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयी हों। सबने भगवान्को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब व्रजमें आये और वहाँ उन्होंने घरके लोगोंसे सारी घटना कह सुनायी।

बकासुरके वधकी घटना सुनकर सब-के-सब गोपी-गोप आश्चर्यचकित हो गये। उन्हें ऐसा जान पड़ा, जैसे कन्हैया साक्षात् मृत्युके मुखसे ही लौटे हों। वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदरसे श्रीकृष्णको निहारने लगे। उनके नेत्रोंकी प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तप्ति न होती थी ।

वे आपसमें कहने लगे, ‘हाय! हाय!! यह कितने आश्चर्यकी बात है। इस बालकको कई बार मृत्युके मुँहमें जाना पड़ा। परन्तु जिन्होंने इसका अनिष्ट करना चाहा, उन्हींका अनिष्ट हुआ। क्योंकि उन्होंने पहलेसे दूसरोंका अनिष्ट किया था।

यह सब होनेपर भी वे भयंकर असुर इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते। आते हैं इसे मार डालनेकी नीयतसे, किन्तु आगपर गिरकर पतिंगोंकी तरह उलटे स्वयं स्वाहा हो जाते हैं।
सच है, ब्रह्मवेत्ता महात्माओंके वचन कभी झठे नहीं होते। देखो न, महात्मा गर्गाचार्यने जितनी बातें कही थीं, सब-की-सब सोलहों आने ठीक उतर रही हैं’।

नन्दबाबा आदि गोपगण इसी प्रकार बड़े आनन्दसे अपने श्याम और रामकी बातें किया करते। वे उनमें इतने तन्मय रहते कि उन्हें संसारके दुःख-संकटोंका कुछ पता ही न चलता।
इसी प्रकार श्याम और बलराम ग्वालबालोंके साथ कभी आँखमिचौनी खेलते, तो कभी पुल बाँधते। कभी बंदरोंकी भाँति उछलते-कूदते, तो कभी और कोई विचित्र खेल करते। इस प्रकारके बालोचित खेलोंसे उन दोनोंने व्रजमें अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 01.12.2025