Log in
English

90- ब्रह्मा-विमोहन लीला: श्रीकृष्ण ने कैसे दूर किया ब्रह्माजी का भ्रम

Dec 10th, 2025 | 13 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 13

सूतजी शौनकजी और अन्य ऋषियो से बोले की जब परीक्षित ने अपने रक्षक और जीवनदाता श्रीकृष्ण की अघसुर उद्धार की अद्भुत लीला सुनी, तो उनका मन इस रस में पूरी तरह खिंच गया। इसलिए उन्होंने श्रीशुकदेवजी से भगवान् की इसी पवित्र लीला से जुड़ा एक और प्रश्न पूछ लिया।

राजा परीक्षित ने कहा, “भगवन्! आपने बताया था कि भगवान् कृष्ण ने यह लीला पाँचवें वर्ष में की थी, लेकिन ग्वालबालों ने इसे व्रज में छठे वर्ष में जाकर बताया। कृपा करके यह समझाइये कि एक ही समय में घटी घटना दूसरे समय में वर्तमान काल की तरह कैसे दिखाई देती है? इसमें कोई रहस्य अवश्य है। इस अद्भुत बात को जानने की बड़ी उत्सुकता है। निश्चय ही यह श्रीकृष्ण की मायाशक्ति का कार्य है, क्योंकि साधारण रूप से ऐसा होना संभव नहीं। मैं क्षत्रिय धर्म से च्युत हो चुका हूँ, इसलिए नाममात्र का क्षत्रिय हूँ, पर इतना सौभाग्य अवश्य है कि मैं आपके मुख से निरंतर गिरने वाले श्रीकृष्ण की पवित्र लीलामृत का पान कर पा रहा हूँ।”

सूतजी आगे कहते हैं की शौनकजी! राजा परीक्षित के इस प्रश्न को सुनकर श्रीशुकदेवजी को भगवान् की वह लीला स्मरण हो आई। उनकी इन्द्रियाँ और मन कृष्ण की नित्य लीलाओं में डूब गये। कुछ समय बाद जब वे धीरे-धीरे बाह्य अवस्था में लौटे, तब उन्होंने परीक्षित को भगवान की लीला का वर्णन आरम्भ किया।

श्रीकृष्ण का सखाओं के साथ वनभोज

श्रीशुकदेवजी ने कहा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ग्वालबाल साथियों को मृत्यु-स्वरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे सबको यमुना के किनारे ले आये और बोले, “मित्रो! यमुना का यह किनारा बहुत सुंदर है। देखो, यहाँ की रेत कितनी मुलायम और साफ है। खेलने की हर चीज़ यहीं मिल जाती है। अब हमें यहीं भोजन कर लेना चाहिए। दिन काफी बीत गया है और हम सब भूखे हैं। बछड़े पानी पीकर यहीं आसपास हरी घास चरते रहें।”

ग्वालबाल एक-साथ बोले, “हाँ, बहुत अच्छा!” उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाया, उन्हें घास में छोड़ दिया और अपने छीके खोलकर भगवान् के साथ प्रसन्नता से बैठ गये।
श्रीकृष्ण बीच में बैठे और ग्वालबालों ने उनके चारों ओर गोल-गोल पंक्तियाँ बना लीं। सब एक-दूसरे से सटकर बैठे थे। सभी के चेहरे श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें खुशी से चमक रही थीं। उस वन-भोजन का दृश्य ऐसा लग रहा था, मानो कमल के बीच वाले भाग (कर्णिका) के चारों ओर पंखुड़ियाँ सुशोभित हों।

कोई फूलों को, कोई पत्तों को, कोई अंकुरों को, तो कोई छाल, फल या पत्थर के छोटे पात्रों को कटोरी बनाकर भोजन करने लगा। श्रीकृष्ण और ग्वालबाल अपनी-अपनी रुचि दिखाते, एक-दूसरे को हँसाते, और कभी खुद ही हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। इसी तरह सभी आनंद से भोजन करने लगे।
बिभ्रद् वेणुं जठरपटयोः श्रृङ्‌गवेत्रे च कक्षे ।
वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्‌गुलीषु ।

तिष्ठन् मध्ये स्वपरिसुहृदो हासयन् नर्मभिः स्वैः।
स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग् बालकेलिः॥
(उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे निराली थी।) उन्होंने मुरलीको तो कमरकी फेंटमें आगेकी ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही-भातका ग्रास था और अँगलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोंको हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान् ग्वालबालोंके साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे । (भागवत 10.13.11)

इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछडे हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बडी दूर निकल गये। जब ग्वालबालों का ध्यान उस दिशा में गया, जहाँ से बछड़े दिखाई नहीं दे रहे थे, तो वे डर गये। तब श्रीकृष्ण ने कहा, “मित्रो! तुम लोग भोजन बंद मत करो। मैं अभी बछड़ों को लेकर आता हूँ।”

यह कहकर श्रीकृष्ण हाथ में दही–भात का ग्रास लिये ही, पहाड़ियों, गुफाओं, कुंजों और अन्य कठिन स्थानों में अपने और अपने साथियों के बछड़ों को ढूँढ़ने निकल पड़े। ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे। प्रभुके प्रभावसे अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हआ। उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हए भगवान श्रीकृष्णकी कोई और लीला देखनी चाहिये। 
देखो देखो री, ग्वाल-बालन यारी।
इन ग्वालन मुख छोरि-छोरि हरि, खात कौर कहि बलिहारी।
रिझवत खेल जिताय सखन को, घोड़ा बनि बनि बनवारी।
कबहुँक देत रिसाय सकन कहँ, पुनि तिन सुनत मधुर गारी।
नख धार्योत गोवर्धन-गिरि जब, सखन कह्यो हम गिरिधारी।
सो 'कुपालु' छवि अनुपम जब कहुँ, द्वे तातरू द्वे महतारी।।

एक रसिक कहता है- अरे ! इन निरक्षर-भट्टाचार्य ग्वालबालों के प्रेम की महिमा तो देखो। इन ग्वालबालों के मुख से छीन छीन कर उच्छिष्ट कौर स्वयं भगवान् विभोर होकर खा रहे हैं। कभी इन सखाओं को खेल में जिता देते हैं और स्वयं उनका घोड़ा बनकर उन्हें सुख पहुँचाते हैं और कभी उन्हें क्रुद्ध कर देते हैं एवं उनकी परमात्मीयतायुक्त साधिकार गाली सुनकर आनन्दित होते हैं। जब श्यामसुन्दर ने गोवर्धन पहाड़ उठाया तब ग्वालबालों ने कहा कि कन्हैया ने तो केवल एक नाखून से ही छू रखा था, वास्तव में गिरिधारी तो हम लोग हैं। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि हमें तो वह छवि सबसे मधुर लगती है जब, सखाओं द्वारा, दो बाप एवं दो माता-वाला कहे जाने पर रोदनशील बन जाती है।
जब ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान एक साधारण मनुष्य जैसे ग्वालबालकों के मुख से कोर छीन-छीन कर खा रहें हैं तो उन्हें भ्रम हुआ। उन्होंने सोचा कि यह सच में वही ब्रह्म है या कोई और देखना चाइए। अन्ततः वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं ।

ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और श्रीकृष्णके चले जानेपर ग्वाल-बालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। भगवान् कृष्ण जब बछड़े नहीं मिले तो वे यमुना किनारे लौट आए। लेकिन वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि ग्वालबाल भी गायब हैं। तब उन्होंने वन में घूम–घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ना शुरू किया। परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है। वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं।

श्रीकृष्ण ने लिया ग्वालबाल और बछड़ों का रूप

उन्होंने सोचा कि अब ऐसी लीला की जाए की ब्रह्मा का भ्रम तो दूर हो ही जाए साथ में माताओं और ब्रजवासियों को भी आनंद मिले। इसलिए श्रीकृष्ण स्वयं ही सभी ग्वालबालों और सभी बछड़ों के रूप में प्रकट हो जाते हैं। क्योंकि वही सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता, सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। जितने ग्वालबाल और बछड़े थे, जैसे उनके छोटे-छोटे शरीर थे, जैसे उनके हाथ-पैर, उनकी बाँसुरी, छड़ियाँ, सिंगी, छीके थे, जैसे उनके कपड़े और गहने थे, उनका स्वभाव, चाल-ढाल, बातें, सब कुछ जैसा था ठीक वैसा ही रूप श्रीकृष्ण ने धारण कर लिया। मानो वेदों का वचन “पूरा जगत् विष्णुरूप है” उस समय आँखों के सामने उतर आया। भगवान् स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने ही रूपों के बछड़ों को अपने ही रूपों वाले ग्वालबालों ने घेर लिया और सब मिलकर खेलते हुए व्रज लौट आये।

जिस ग्वालबाल का जो बछड़ा था, कृष्ण उसी ग्वालबाल-रूप में उसे उसके घर तक पहुँचा देते। फिर दूसरे-तीसरे ग्वालबाल-रूप धारण करके सभी घरों में अलग-अलग चले जाते। ग्वालनें जब बाँसुरी की धुन सुनतीं, तो दौड़कर आतीं और ग्वालबाल बने श्रीकृष्ण को अपना बच्चा समझकर गोद में उठा लेतीं। अत्यधिक स्नेह से वे उन्हें दूध पिलातीं।

प्रतिदिन शाम को कृष्ण ग्वालबालों के रूप में वन से लौटते और अपनी बाल-लीलाओं से माताओं का मन प्रसन्न करते। माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दन लगातीं, अच्छे वस्त्र और गहने पहनातीं और बहुत प्यार से भोजन करातीं। नजर न लगे इसलिए माथे पर काजल का टीका भी लगा देतीं।

गायें भी जब जंगल से लौटकर अपने-अपने बछड़ों की आवाज सुनतीं, तो दौड़कर उन्हें चाटतीं और दूध पिलातीं। उनके प्रेम के कारण कई बार दूध अपने आप ही बहने लगता। ग्वालिनों और गायों का प्रेम पहले जैसा ही सरल और निष्कपट था, बस अब इन रूपों वाले बालकों और बछड़ों के प्रति उनका स्नेह और भी बढ़ गया था। भगवान् भी वैसे ही पुत्रभाव दिखाते थे, पर उनके भीतर वैसा ‘मोह’ नहीं था जैसा सामान्य बालकों में होता है। एक वर्ष तक व्रज में सबका स्नेह इन रूपों वाले बच्चों पर लगातार बढ़ता रहा। जैसे कृष्ण पर उनका अनोखा प्रेम था, वैसा ही इन बालकों पर भी हो गया।

बलराम को हुआ आश्चर्य

एक वर्ष पूरा होने में पाँच–छः दिन बाकी थे। एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी बछड़ों को चराते हुए वन में गये। गोवर्धन पर्वत की चोटी पर गायें घास चर रही थीं। वहाँ से उन्होंने अपने बछड़ों को नीचे दूर घास चरते देखा। बछड़ों को देखते ही उनका ममता-भाव उमड़ पड़ा। वे अपनी सुध-बुध खो बैठीं। ग्वालों ने रोकने की कोशिश की, पर गायें किसी भी बात की परवाह किये बिना उस कठिन रास्ते से तेज़ दौड़ पड़ीं, जिससे वे सामान्य रूप से जाती भी नहीं थीं। वे इतनी तेजी से भाग रही थीं कि लगता था मानो उनके दो ही पैर हैं। बछड़ों के पास आकर प्रेम से उन्हें दूध पिलाने लगीं। वे अपने बछड़ों को ऐसे चाट रही थीं, जैसे उन्हें सीने से लगाकर समेट लेना चाहती हों।

गोपों ने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की, पर कुछ भी काम न आया। बड़ी मुश्किल से वे उस कठिन रास्ते से नीचे पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि बछड़ों के साथ उनके अपने बच्चे भी खड़े हैं। अपने बच्चों को देखते ही उनका हृदय प्रेम से भर गया। क्रोध एकदम गायब हो गया। वे बच्चों को गोद में उठाकर छाती से लगा लेने लगे और बहुत प्रसन्न हुए। बूढ़े गोप भी अपने बच्चों को गले लगाकर बड़े आनन्दित हुए। बड़ी मुश्किल से वे अपने बच्चों को छोड़कर घर की ओर चले। घर जाते समय भी उनके नेत्र प्रेम के आँसुओं से भरे थे।

उधर बलरामजी यह सब देखकर सोच में पड़ गये। उन्हें आश्चर्य हुआ कि व्रज के गोप, गोपियाँ और गायें, सब अपने इन बच्चों और बछड़ों पर इतना अधिक स्नेह क्यों कर रहे हैं, जबकि इनमें से कई तो अब दूध भी नहीं पीते। उनका प्रेम हर क्षण बढ़ता ही जा रहा था। बलरामजी के मन में विचार आया, “यह कैसी अद्भुत बात है! जैसा प्रेम सभी का कृष्ण पर है, वैसा ही प्रेम इन बालकों और बछड़ों पर भी हो रहा है। यह कैसी माया है? यह किसी देवता की है या किसी असुर की? पर यह तो संभव ही नहीं। मुझे भी मोहित कर सके, ऐसी शक्ति तो केवल मेरे प्रभु श्रीकृष्ण की ही हो सकती है।”

यह सोचकर बलरामजी ने अपने दिव्य ज्ञान से देखा। तब उन्हें पता चला कि ये सब बछड़े और ग्वालबाल वास्तव में श्रीकृष्ण ही हैं, जो अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं। तब बलरामजी ने कृष्ण से कहा, “भगवन! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न ऋषि। अलग-अलग रूप धारण करके भी यहाँ केवल आप ही दिखाई दे रहे हैं। कृपया बताइये कि आपने बछड़े, बालक, रस्सी, सिंगी आदि इतने रूप क्यों धारण कर रखा हैं?”

तब भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी की सारी लीला और उनके द्वारा छिपाये गये वास्तविक बछड़ों और ग्वालबालों की पूरी घटना बलरामजी को सुना दी। बलरामजी सब समझ गये और आश्चर्य व आनन्द से भर गये।

श्रीकृष्ण ने किया ब्रह्माजी का मोह भंग

तब तक ब्रह्माजी ब्रह्मलोक से व्रज लौट आये। उनके लोक में जितना समय बीता था वह केवल एक “त्रुटि” भर था, यानी जितनी देर में नुकीली सूई कमल की पंखुड़ी को छेद दे। लौटकर उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण पहले की तरह ग्वालबालों और बछड़ों के साथ खेल रहे हैं। ब्रह्माजी सोचने लगे, “गोकुल के जितने ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी माया में सो रहे हैं, मैंने उन्हें अचेत कर दिया था। वे तो अब तक जगे भी नहीं। तो फिर यह एक साल से कृष्ण के साथ कौन खेल रहे हैं? ये दूसरे बच्चे और बछड़े यहाँ आये कहाँ से?”

उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से बहुत देर तक समझने की कोशिश की कि असली कौन हैं और कृष्ण ने जो बनाए हैं वे कौन हैं, पर वे कुछ भी तय नहीं कर सके। वह भगवान् कृष्ण को माया में फँसाना चाहते थे, पर खुद ही अपनी माया में उलझ गये। ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके सामने अचानक सभी ग्वालबाल और बछड़े चारभुजा वाले कृष्ण-रूप में दिखाई देने लगे। श्याम वर्ण, पीताम्बर, चार हाथ, हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में सुन्दर हार और वनमाला।

उनके वक्ष पर श्रीवत्स की चिह्न, भुजाओं में बाजूबंद, हाथ-पैर में कड़े–नूपुर, कमर में करधनी, उंगलियों में अंगूठियाँ चमक रही थीं। हर रूप पर नयी तुलसीमाला सुशोभित थी। चंद्र के समान उनकी मुस्कान और दृष्टि अत्यन्त मधुर थी। ऐसा लग रहा था मानो वे सत्त्व और रजोगुण के सहारे भक्तों के हृदय में शुद्ध इच्छाएँ जगाकर उन्हें पूरा कर रहे हों।

ब्रह्माजी ने यह भी देखा कि ब्रह्मा जैसे अनगिनत ब्रह्माण्डों के देवता, छोटे से लेकर बड़े सभी जीव, सब मूर्त रूप में खड़े होकर इन अनेक कृष्ण-रूपों की पूजा कर रहे हैं। सिद्धियाँ, शक्तियाँ, माया-विद्याएँ, प्रकृति के तत्त्व सब भी भगवान की उपासना कर रहे थे। काल, स्वभाव, संस्कार, इच्छाएँ, कर्म ये सब भी मानो मूर्त बनकर कृष्ण के आगे नतमस्तक थे। भगवान की महत्ता के सामने सबकी महत्ता नगण्य लग रही थी।

ब्रह्माजी ने देखा कि ये सारे रूप भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों कालों से परे हैं। वे सब स्वयंप्रकाश, अनन्त आनंद से भरे हैं। उनमें जड़ और चेतन का कोई भेद नहीं, वे सब एकरस हैं। उपनिषद् के ज्ञानी भी जिनकी महिमा तक पहुँच नहीं सकते। इस प्रकार ब्रह्माजी ने एक साथ देखा कि यह सब ग्वालबाल, बछड़े, ब्रह्मा, जीव, शक्ति सब वास्तव में एक ही परब्रह्म श्रीकृष्ण के रूप हैं। यह दृश्य देखकर वे स्तब्ध रह गये। उनकी इन्द्रियाँ काम करना जैसे बंद हो गयीं। वे पूरी तरह निस्तेज होकर मौन खड़े रह गये।

शुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं कि भगवान का स्वरूप तर्क से परे है। वे स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया के पार हैं। वेद उनकी महिमा को ठीक-ठीक शब्दों में नहीं बता पाते, केवल संकेत देते हैं। ब्रह्माजी सब विद्याओं के स्वामी होते हुए भी इस दिव्य स्वरूप को समझ नहीं सके। उनकी आँखें तक बंद हो गयीं, वे कुछ भी देख न सके।

तब श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी की यह दशा देखकर अपनी माया का परदा तुरंत हटा दिया। इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे। सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा। फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृन्दावन में क्रोध, लोभ, तृष्णा जैसे दोष टिक ही नहीं सकते। वहाँ मनुष्य, पशु और पक्षी प्रेम से, मानो मित्रों की तरह, शान्ति से रहते हैं। 

ब्रह्माजी को लगा कि अद्वितीय परब्रह्म, जो अनन्त हैं, एक साधारण ग्वालबाल की तरह लीला कर रहे हैं। एक होते हुए भी उनके सखा हैं। सर्वव्यापक होते हुए भी वे इधर-उधर घूम रहे हैं। सबकुछ जानने वाले होते हुए भी वे अपने हाथ में दही-भात का ग्रास लिये बालकों को ढूँढ़ रहे हैं।

भगवान् कृष्ण को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंस से कूद सीधे पृथ्वी पर दण्डवत् होकर गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुखों के मुकुटों से भगवान के चरणों को स्पर्श किया और आनन्द के आँसुओं से उनके पैर धो दिये। वे बार-बार कृष्ण की दिव्य महिमा को याद करते, चरणों पर गिरते, फिर उठते, फिर गिर पड़ते। वे बहुत देर तक कृष्ण के चरणों में ही पड़े रहे।

फिर धीरे-धीरे उठे, आँखें पोंछीं। प्रेम और मुक्ति के एकमात्र स्रोत भगवान् श्रीकृष्ण को सामने देखकर उनका सिर अपने आप झुक गया। शरीर काँपने लगा। उन्होंने हाथ जोड़ लिये और अत्यन्त नम्र होकर, भरायी हुई आवाज़ में भगवान की स्तुति करने लगे।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 08.12.2025