Log in
English

83- श्रीकृष्ण का गोकुल आगमन, गोप-गोपियों ने मनाया नन्द-उत्सव और नंद-वसुदेव भेंट

Oct 25th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 4-5

श्रीशुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं की वसुदेवजी श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्द के घर छोड़ उहाँ से योगमयरूपी कन्या को लेकर जब मथुरा लौटते हैं तो नगर के सभी दरवाजे अपने-आप बंद हो जाते हैं। वासुदेवजी कन्याको देवकी के गोद में रखकर पहेले जैसे ही बैठते हैं। तभी कन्या रोने लगती हैं। नवजात शिशु के रोने से द्वारपालों की नींद टूटती है। वे तुरंत कंस के पास जाकर देवकी को संतान होने की सूचना देते हैं। कंस बहुत घबराता और बेचैन रहता है।

यह सुनकर वह पलंग से उठकर सूतिकागृह की ओर भागता है। सोचता है, “इस बार तो मेरा काल जन्मा है।” भागते-भागते उसके बाल बिखर गए और रास्ते में कई बार लड़खड़ाता भी है। बंदीगृह में पहुँचकर देवकी बड़ी दुखी होकर कंस से कहती है कि यह कन्या है, स्त्रीजातिकी है; तुम्हें स्त्रीकी हत्या कदापि नहीं करनी चाहिये। भैया! तुमने दैववश मेरे बहुत-से अग्निके समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो। तुम मुझ मन्दभागिनीको यह अन्तिम सन्तान अवश्य दे दो।

कन्याको अपनी गोदमें छिपाकर देवकीजीने अत्यन्त दीनताके साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकीजीको झिड़ककर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली।अपनी उस नन्ही-सी नवजात भानजीके पैर पकड़कर कंसने उसे बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा। स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था। परन्तु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरन्त आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी।

वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा ये आठ आयुध थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकीसामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे। उस समय देवीने कंससे यह कहा, "रे मूर्ख! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर।"

कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुईं।

देवी की बात सुनकर कंस बहुत चकित रह जाता है। उसी समय वह देवकी और वसुदेव को जेल से मुक्त कर देता है और बहुत विनम्र होकर कहता है, “बहन देवकी और जीजाजी, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। जैसे कोई राक्षस अपने ही बच्चों को मार डालता है, वैसे ही मैंने तुम्हारे कई पुत्रों को निर्दयता से मार दिया। मुझे इसका बहुत दुख है। मैं इतना कठोर हो गया था कि मेरे मन में ज़रा भी दया नहीं बची थी। मैंने अपने ही परिवार और शुभचिंतकों को छोड़ दिया। अब पता नहीं मुझे किस नरक में जाना पड़ेगा। सच तो यह है कि मैं जीवित होकर भी मरे समान हूँ। केवल मनुष्य ही नहीं, कभी-कभी भाग्य भी झूठा साबित होता है। उसी पर भरोसा करके मैंने तुम्हारे निर्दोष बच्चों को मार डाला। मैं सचमुच बहुत पापी हूँ। मेरी यह क्रूरता तुम दोनों क्षमा करो, क्योंकि तुम दयालु और सज्जन हो, दीनों की रक्षा करने वाले हो।”

यह कहकर कंस देवकी और वसुदेव के चरण पकड़ लेता है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। इसके बाद वह योगमाया की बातों पर विश्वास करके उन्हें पूरी तरह मुक्त कर देता है और उनके प्रति प्रेम जताने लगता है।

जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा, "भैया कंस! जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है। और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं।

जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार कंसके साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया। वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्त्रियोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया।

कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे। वे दैत्य थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से देवताओं से शत्रुता रखते थे। कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे,“भोजराज, अगर बात ऐसी है तो आज ही हम हर जगह के छोटे-बड़े बच्चों को मार डालेंगे, बड़े शहर हों या गाँव, अहीर-आबादियाँ या जहाँ बच्चे हैं, चाहे वे दस दिन के हों या कम, सबको मार डाल देंगे। देवता युद्ध में डर जाते हैं; आपके धनुष की आहट सुनते ही वे काँप उठते हैं। वे लोग केवल वहीं बहादुर बनते हैं जहाँ किसी संघर्ष का प्रश्न ही न हो। इसीलिए हमारी सलाह है कि आप हमारे भरोसेमंद असुरों को नियुक्त कर दें ताकि हम उनकी जड़ खत्म कर सकें।

अगर किसी रोग का समय रहते इलाज न हो, तो वह बढ़कर असाध्य हो जाता है। उसी तरह शत्रु की वक़्त पर उपेक्षा करने पर वह मज़बूत हो जाता है और फिर हराना मुश्किल होता है। देवताओं की जड़ विष्णु है, और विष्णु वहीं रहता है जहाँ सनातन धर्म कायम है। सनातन धर्म की जड़ वेद, गाय, ब्राह्मण, तपस्या और यज्ञ हैं। इसलिए हम इन्हें नष्ट कर देंगे। ब्राह्मणों, तपस्वियों, यज्ञ-विधियों और यज्ञ में देने वाली गायों का संहार कर देंगे। ब्राह्मण, गाय, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रिय-नियंत्रण, श्रद्धा, दया और यज्ञ ये सब विष्णु के शरीर हैं। विष्णु देवताओं का स्वामी है और असुरों का सबसे बड़ा विरोधी। उसे खत्म करने के लिए हमारी राय है कि पहले ऋषियों को मार डालो।”

एक तो कंसकी बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी; फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढ़कर दुष्ट थे। इस प्रकार उनसे सलाह करके कालके फंदेमें फँसे हुए असुर कंसने यही ठीक समझा कि ब्राह्मणोंको ही मार डाला जाय। उसने हिंसाप्रेमी राक्षसोंको संतपुरुषोंकी हिंसा करनेका आदेश दे दिया। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंसने अपने महलमें प्रवेश किया।

उन असुरोंकी प्रकृति थी रजोगुणी। तमोगुणके कारण उनका चित्त उचित और अनुचितके विवेकसे रहित हो गया था। उनके सिरपर मौत नाच रही थी। यही कारण है कि उन्होंने सन्तोंसे द्वेष किया ।

शुकदेवजी परीक्षित् को कहते हैं कि जो लोग महान् सन्त पुरुषोंका अनादर करते हैं, उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक, विषय-भोग और सब-के सब कल्याणके साधनोंको नष्ट कर देता है।

गोकुल में नन्द उत्सव

नन्दबाबा बड़े मनस्वी और उदार थे। जब उनके घर पुत्र का जन्म हुआ, तो वे खुशी से भर गए। उन्होंने स्नान किया, साफ़-सुथरे सुंदर वस्त्र और आभूषण पहने और वेद जानने वाले ब्राह्मणों को बुलाकर शुभ मंत्रों का उच्चारण और अपने पुत्र का जातकर्म संस्कार करवाया। साथ ही देवताओं और पितरों की पूजा भी करवाई। नन्दबाबा ने ब्राह्मणों को दो लाख गायें दान दीं, जो वस्त्रों और गहनों से सजाई गई थीं। उन्होंने रत्नों और सोने के कपड़ों से ढके हुए तिल (अन्न) के सात पहाड़ भी दान किए।

कहा गया है कि अलग-अलग चीजें अलग-अलग तरह से शुद्ध होती हैं: समय से (नया पानी या भूमि), स्नान से (शरीर), धोने से (वस्त्र), संस्कारों से (गर्भ), तपस्या से (इन्द्रियाँ), यज्ञ से (ब्राह्मण), दान से (धन), और संतोष से (मन)। लेकिन आत्मा की सच्ची शुद्धि केवल आत्मज्ञान से होती है। उस समय ब्राह्मण, सूत, मागध और वंदीजनों ने शुभकामनाएँ दीं और स्तुति करने लगे। गायक गाने लगे, और नगाड़े तथा भेरियाँ बार-बार बजने लगीं। पूरा गोकुल आनन्द और उत्सव से भर गया।

व्रजमण्डल में हर घर उत्सव के रंग में डूब गया था। सभी घरों के दरवाज़े, आँगन और भीतर के हिस्से अच्छी तरह साफ़ किए गए। उन पर सुगंधित जल का छिड़काव किया गया और रंग-बिरंगी झंडियों, फूलों की मालाओं, सुंदर कपड़ों और पत्तों की तोरणों से सजावट की गई। गायों, बैलों और बछड़ों को भी सजाया गया। उनके शरीर पर हल्दी-तेल लगाया गया और उन्हें गेरू, मोरपंख, फूलों की मालाएँ, सुंदर वस्त्र और सोने की जंजीरें पहनाई गईं।

सब ग्वाल लोग अच्छे वस्त्र, गहने, अँगरखे और पगड़ियाँ पहनकर, अपने हाथों में भेंट-सामग्री लेकर नन्दबाबा के घर पहुँचे।जब गोपियों ने सुना कि यशोदाजी के यहाँ पुत्र जन्मा है, तो वे भी बहुत खुश हुईं। उन्होंने जल्दी से सुंदर वस्त्र और गहने पहने, अंजन लगाया और अपना श्रृंगार किया। उनके मुख ऐसे चमक रहे थे जैसे खिले हुए कमल, और उनके माथे का कुंकुम कमल की केसर-सा लग रहा था।
वे सभी भेंट लेकर यशोदाजी के घर की ओर चल पड़ीं। चलते समय उनके गले के हार, कानों के कुण्डल और हाथों के कंगन चमक रहे थे। उनके बालों में लगे फूल झूमते हुए गिर रहे थे और उनकी चाल में अपार उत्साह था। नन्दबाबा के घर की ओर जाते समय उनकी शोभा देखते ही बनती थी, मानो स्वयं व्रज की सम्पूर्ण शोभा गोपियों के रूप में चल रही हो। नन्दबाबाके घर जाकर वे नवजात शिशुको आशीर्वाद देतीं ‘यह चिरजीवी हो, भगवन्! इसकी रक्षा करो।’ और लोगोंपर हल्दी-तेलसे मिला हुआ पानी छिड़क देतीं तथा ऊँचे स्वरसे मंगलगान करती थीं।

भगवान श्रीकृष्ण, जो पूरे जगत के स्वामी हैं, जब नन्दबाबा के घर व्रज में प्रकट हुए, तब वहाँ अद्भुत उत्सव मनाया गया। पूरा व्रज खुशी से झूम उठा, और मंगलमय बाजे-गाजे बजने लगे। गोप लोग आनंद में मग्न होकर एक-दूसरे पर दही, दूध, घी और पानी उछालने लगे। कोई मक्खन मुँह पर मल रहा था, कोई फेंक रहा था पूरा माहौल प्रेम और हँसी-खुशी से भर गया था।

नन्दबाबा स्वभाव से बहुत उदार और बड़े दिल वाले थे। उन्होंने गोपों को वस्त्र, आभूषण और बहुत-सी गायें दान दीं। सूत, मागध, वंदीजनों और नृत्य-वाद्य से जीवन यापन करने वालों को भी उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मनचाही भेंटें दीं। उनका उद्देश्य केवल एक था कि इन सब कर्मों से भगवान विष्णु प्रसन्न हों और उनके नवजात पुत्र श्रीकृष्ण का मंगल हो।

नन्दबाबा को बधाई देने के लिए जब लोग आ रहे थे, तब रोहिणीजी सुंदर वस्त्र, माला और गहनों से सजी हुई गृहस्वामिनी की तरह सब स्त्रियों का सत्कार कर रही थीं। पूरा व्रजमण्डल उस दिन आनंद, संगीत और प्रेम से भर गया था। उसी दिन से नन्दबाबा के व्रज में हर तरह की ऋद्धिसिद्धियाँ बस गई। भगवान श्रीकृष्ण के निवास से वह स्थान लक्ष्मीजी का क्रीड़ा स्थल बन गया मानो स्वयं सौभाग्य और सम्पन्नता व्रज में रहने लगी हो। कुछ समय बाद नन्दबाबा ने गोकुल की देखभाल का जिम्मा अन्य गोपों को सौंप दिया और स्वयं राजा कंस को वार्षिक कर देने के लिए मथुरा चले गए।

नन्दबाबा और वासुदेवजी के भेंट

जब वसुदेवजी को पता चला कि उनके भाई नन्द मथुरा आए हैं और कर भी चुका चुके हैं, तो वे तुरंत उनसे मिलने पहुँचे। नन्दबाबा ने जैसे ही वसुदेवजी को देखा, वे खुशी से खड़े हो गए जैसे किसी मृत देह में प्राण लौट आए हों। उन्होंने वसुदेवजी को गले लगाकर प्रेम से स्वागत किया। वसुदेवजी के प्रति उनका प्रेम उमड़ पड़ा था।

वासुदेवजी ने उनका सत्कार किया, उन्हें आसन दिया और हालचाल पूछा। वसुदेवजी ने कहा, “भाई! तुम्हारी उम्र अब ढलान पर थी और तुम्हें अब तक कोई संतान नहीं हुई थी। अब तुम्हें पुत्र प्राप्त हुआ यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और आज हम दोनों भाइयों का मिलना हुआ है, यह भी ईश्वर की कृपा है। जैसे नदी की तेज धारा में तिनके और नावें एक साथ नहीं टिक पातीं, वैसे ही अपने लोग भी हमेशा साथ नहीं रह पाते — सबका प्रारब्ध अलग-अलग होता है।

तुम अब जिस महावन में रह रहे हो, वहाँ जल, घास और लताएँ पर्याप्त हैं न? वह स्थान पशुओं के लिए उपयुक्त है और किसी रोग या विपत्ति से सुरक्षित है न? मेरा पुत्र बलराम, जो अपनी माता रोहिणी के साथ तुम्हारे यहाँ रहता है, वह तुम्हारे और यशोदा के स्नेह से पलता है। वह ठीक है न? वह तुम्हें ही अपना माता-पिता मानता होगा। मनुष्य के लिए वही धर्म, अर्थ और काम उचित हैं जिनसे अपने लोगों को सुख मिले। जो कर्म केवल अपने हित के लिए हों पर अपनों को दुख पहुँचाएँ, वे किसी काम के नहीं।”

नन्दबाबा ने कहा, “भाई वसुदेव, कंस ने देवकी के गर्भ से जन्मे तुम्हारे कई पुत्रों को निर्दयता से मार डाला। अंत में केवल एक कन्या बची थी, वह भी स्वर्ग चली गई। वास्तव में सुख-दुख सब भाग्य पर निर्भर हैं। भाग्य ही जीव का सबसे बड़ा सहारा है। जो यह समझ लेता है, वह जीवन में घटने वाली घटनाओं से विचलित नहीं होता।”

वसुदेवजी ने फिर कहा, “भाई, तुमने कर चुका दिया है और हम मिल भी लिए। अब देर मत करो, क्योंकि गोकुल में इन दिनों कुछ अशुभ घटनाएँ हो रही हैं। जल्दी लौट जाओ।”

वसुदेवजी की बात सुनकर नन्दबाबा और अन्य गोपों ने उनसे विदा ली और बैलों से जुते हुए छकड़ों पर सवार होकर गोकुल की ओर लौट पड़े।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 17.10.2025