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77- परशुराम अवतार : जन्म, सहस्रबाहु का अंत और क्षत्रिय-विनाश

Sep 4th, 2025 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 15-17

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छः पुत्र हुए— आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय।

श्रुतायु का पुत्र था वसुमान्, सत्यायु का श्रुतंजय, रय का एक और जय का अमित। विजय का पुत्र हुआ भीम, भीम का कांचन, कांचन का होत्र और होत्र का पुत्र था जह। वही जह थे जिन्होंने गंगाजी को अपनी अंजलि में भरकर पी लिया था। जह का पुत्र हुआ पूरु, पूरु का बलाक और बलाक का अजक।

अजक का पुत्र था कुश। कुश के चार पुत्र हुए— कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बु का पुत्र हुआ गाधि

परशुराम जन्म कथा

गाधि की कन्या का नाम था सत्यवती। भृगु पुत्र ऋचीक ने गाधि से उनकी कन्या माँगी। पर गाधि ने सोचा कि यह कन्या के योग्य वर नहीं हैं, इसलिए उन्होंने शर्त रखी, “हे मुनिवर! हमारी कन्या मिलना कठिन है। आप एक हज़ार ऐसे घोड़े लाकर दीजिए जिनका पूरा शरीर तो श्वेत हो, पर प्रत्येक के एक-एक कान श्यामवर्ण का हो।”

ऋचीक मुनि ने वरुणदेव से वैसे ही घोड़े मँगवाए और गाधि को देकर सत्यवती से विवाह कर लिया। कुछ समय बाद सत्यवती और उनकी माता दोनों ने ऋचीक मुनि से पुत्र की कामना की। मुनि ने दोनों के लिए अलग-अलग मन्त्रों से चरु (देवताओं को अर्पित करने योग्य हवन-पात्र में पकाया गया पवित्र आहार) पकाया और स्नान करने चले गये।

तभी सत्यवती की माँ ने यह सोचकर कि ऋषि ने अपनी पत्नी के लिए श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, बेटी से उसका चरु माँग लिया। सत्यवती ने निःस्वार्थ भाव से अपना चरु माँ को दे दिया और स्वयं माँ वाला चरु खा लिया।

जब ऋचीक मुनि लौटे और यह बात जानी, तो उन्होंने कहा, “तुमसे बड़ा अनर्थ हो गया। अब तुम्हारा पुत्र तो घोर स्वभाव का होगा और तुम्हारा भाई होगा श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता।”

सत्यवती ने विनती की, “स्वामी! ऐसा न हो।”

तब ऋषि ने कहा, “अच्छा, तुम्हारा पुत्र नहीं, तुम्हारा पौत्र घोर स्वभाव का होगा।”

समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। बाद में सत्यवती पुण्यमयी कौशिकी नदी बन गयीं।

जमदग्नि ने रेणु ऋषि की कन्या रेणुका से विवाह किया। उनके गर्भ से कई पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसार में फैला।

कहते हैं कि हैहयवंश का अन्त करने के लिए स्वयं भगवान् ने ही परशुरामजी के रूप में अवतार लिया। उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया।

परीक्षित् ने पूछा, “भगवन्! क्षत्रिय अवश्य ही विषय-लोलुप हो गये थे, पर परशुरामजी ने ऐसा कौन-सा अपराध देखा कि बार-बार उनका वध किया?”

श्रीशुकदेवजी बोले, “उस समय हैहयवंश का राजा अर्जुन था, जिसे सहस्रबाहु कहा जाता था। उसने भगवान् दत्तात्रेयजी की सेवा करके वर पाया— एक हज़ार भुजाएँ, अपराजेयता, असाधारण बल, सम्पत्ति और योगसिद्धियाँ। वह मनचाहा रूप धारण करता और वायु की तरह सर्वत्र घूमता।

परशुराम द्वारा सहस्रबाहु अर्जुन का वध

एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन नर्मदा नदी में अनेक स्त्रियों संग जलविहार कर रहा था। उसने अपनी भुजाओं से नदी की धारा रोक दी। उसी समय दशानन रावण का शिविर पास ही था। उलटी धारा से उसका शिविर डूबने लगा। क्रोधित होकर रावण सहस्रबाहु के पास गया, पर अर्जुन ने उसे खेल-खेल में पकड़कर अपनी राजधानी माहिष्मती में कैद कर लिया। बाद में पुलस्त्यजी के कहने पर उसे छोड़ा।

एक दिन सहस्रबाहु शिकार खेलते हुए जमदग्नि मुनि के आश्रम पहुँचा। वहाँ कामधेनु रहती थी। उसके प्रभाव से मुनि ने राजा और उसकी सेना का आतिथ्य किया। राजा ने देखा कि जमदग्नि का ऐश्वर्य उससे भी बढ़ा है। अभिमानवश उसने कामधेनु को छीनने का आदेश दिया। सेवक उसे बछड़े समेत ले गये।

जब परशुरामजी लौटे और यह सुना, तो क्रोध से भरकर उन्होंने फरसा, धनुष और बाण उठाए और राजा का पीछा किया। सहस्रबाहु ने अपनी सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी, पर परशुरामजी ने अकेले ही सबको मार गिराया। फिर सहस्रबाहु स्वयं लड़ने आया। उसने अपनी हज़ार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ाकर छोड़े, पर परशुरामजी ने सब काट डाले।

फिर उसने पहाड़-पेड़ उठाकर हमला किया, पर परशुरामजी ने उसका एक-एक भुजा काट डाला और अंत में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसके दस हज़ार पुत्र भय से भाग गये।

परशुरामजी ने कामधेनु को लौटा कर पिता को सौंपा और पूरी घटना सुनाई।

जमदग्नि मुनि ने कहा, “हाय राम! तुमने बड़ा पाप कर डाला। हम ब्राह्मण क्षमा से ही पूजनीय हैं। सर्वदेवमय राजा का वध ब्राह्मण-हत्या से भी बढ़कर पाप है। अब भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करो और अपने पाप का प्रायश्चित करो।” अपने पिता की आज्ञा स्वीकार कर वे पूरे एक वर्ष तक तीर्थयात्रा करते रहे और फिर अपने आश्रम लौट आये।

जब पिता की आज्ञा पर परशुरामजी ने किया माता का वध

एक दिन माता रेणुका गंगातट पर जल लाने गयीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा है। रेणुका उस दृश्य को देखती रह गयीं और पति के हवन का समय भूल गयीं। थोड़ी देर के लिए उनका मन चित्ररथ की ओर खिंच भी गया।
जब उन्हें याद आया कि हवन का समय निकल गया है, तो वे भयभीत हो गईं और जल्दी से आश्रम लौटकर जल का कलश जमदग्नि मुनि के सामने रख दिया।

महर्षि जमदग्नि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया। क्रोधित होकर उन्होंने अपने पुत्रों से कहा, “मेरे पुत्रो! इस पापिनी को मार डालो।”

लेकिन कोई पुत्र तैयार नहीं हुआ। तब पिताजी की आज्ञा मानकर परशुरामजी ने माता और सब भाइयों को मार डाला। वे पिताजी की तपस्या और योगबल को जानते थे, इसलिए ऐसा किया।

यह देखकर जमदग्नि मुनि प्रसन्न हुए और बोले, “बेटा! वर माँगो।”

परशुरामजी ने कहा, “पिताजी! मेरी माता और भाई सब जीवित हो जाएँ और उन्हें यह भी स्मरण न रहे कि मैंने उन्हें मारा था।”

ज्यों ही उन्होंने यह कहा, सब ऐसे उठ बैठे जैसे गहरी नींद से जागे हों।

परशुरामजी ने किया पापी क्षत्रियों का संहार

सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्र, जो युद्ध में भाग गये थे, उन्हें पिता की मृत्यु की पीड़ा सताती रहती थी। एक दिन जब परशुरामजी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर गये थे, तभी वे बदला लेने आ पहुँचे।

उस समय जमदग्नि मुनि अग्निशाला में भगवान का ध्यान कर रहे थे। तभी उन दुष्ट क्षत्रियों ने उन्हें मार डाला। रोती-गिड़गिड़ाती माता रेणुका की उन्होंने कोई बात न सुनी। क्रूरता से उनका सिर काटकर ले गये।

सती रेणुका विलाप करती हुई बोलीं, “परशुराम! बेटा, शीघ्र आओ!”

दूर बैठे परशुरामजी ने माँ का करुण क्रन्दन सुना और वे दौड़ते हुए आश्रम पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देखा— पिताजी का वध हो चुका है।

परशुरामजी अत्यन्त शोकाकुल हुए। उन्होंने भाइयों को पिता का शरीर सौंपा और स्वयं फरसा उठाकर क्षत्रियों के विनाश का संकल्प लिया। वे माहिष्मती नगरी पहुँचे और सहस्रबाहु के पुत्रों का संहार किया। उनके सिरों का ढेर लगाकर नगर के बीच एक पर्वत जैसा बना दिया। उनके रक्त से भयंकर नदी बह निकली। इसी प्रकार उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक में रक्त से भरे पाँच सरोवर बना दिये।

फिर परशुरामजी ने पिता का सिर धड़ से जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा भगवान का पूजन किया। यज्ञ समाप्त होने के बाद स्नान करके वे सरस्वती नदी के तट पर सूर्य समान शोभायमान हुए।
जमदग्नि मुनि ने स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर पाया और सप्तर्षियों के मण्डल में स्थान प्राप्त किया। और परशुरामजी आगामी मन्वन्तर में वेदों का विस्तार करने के लिए सप्तर्षियों में रहेंगे। वे आज भी महेन्द्र पर्वत पर शांत भाव से निवास करते हैं, जहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके गुणगान करते हैं।

ऋषि विश्वामित्र के वंश का वर्णन

इसके बाद श्रीशुकदेवजी कहते हैं— महाराज गाधि के पुत्र हुए परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। उन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का त्याग कर ब्रह्मतेज प्राप्त किया। विश्वामित्रजी के सौ पुत्र हुए। उनमें बीच के पुत्र का नाम था मधुच्छन्दा, इसलिए सब पुत्र “मधुच्छन्दा” कहलाए। विश्वामित्रजी ने अपने भानजे शुनःशेप (देवरात) को पुत्ररूप में स्वीकार किया और अपने पुत्रों से कहा, “तुम लोग इसे अपना बड़ा भाई मानो।”

यह वही शुनःशेप थे, जिन्हें राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ में यज्ञ-पशु बनाया गया था, पर विश्वामित्रजी ने देवताओं से प्रार्थना करके उसे छुड़ा लिया। देवताओं ने ही शुनःशेप को विश्वामित्र को पुत्र रूप में दिया था, इसीलिए उसका नाम हुआ “देवरात” (देवों द्वारा दिया गया)।

पर बड़े पुत्रों ने उसे बड़ा भाई मानने से इनकार कर दिया। तब क्रोधित होकर विश्वामित्रजी ने उन्हें शाप दिया, “दुष्टो! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ।”

इस प्रकार उनचास पुत्र म्लेच्छ हो गये। तब मधुच्छन्दा ने अपने छोटे भाइयों से कहा, “पिताजी की आज्ञा मानो। हम सब देवरात को बड़ा भाई स्वीकार करते हैं।”

तब विश्वामित्रजी ने कहा, “बेटा! तुम सबने मेरी आज्ञा मानकर मेरा सम्मान बचाया है। तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त हों। यह देवरात अब तुम्हारे ही गोत्र में है। इसकी आज्ञा का पालन करना।”
इस प्रकार विश्वामित्रजी की सन्तानों से कौशिक गोत्र में कई भेद हुए और देवरात (शुनःशेप) का प्रवर अलग हो गया।

पुरूरवा के वंश का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं, पुरूरवाका एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लड़के हुए–नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्धका वंश सुनो। क्षत्रवृद्धके पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्रके तीन पुत्र हुए-काश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समदका पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनकके पुत्र ऋग्वेदियोंमें श्रेष्ठ मुनिवर शौनकजी हुए । काश्यका पुत्र काशि, काशिका राष्ट्र, राष्ट्रका दीर्घतमा और दीर्घतमाके धन्वन्तरि। यही आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं । ये यज्ञभागके भोक्ता और भगवान् वासुदेवके अंश हैं। इनके स्मरणमात्रसे ही सब प्रकारके रोग दूर हो जाते हैं। 

धन्वन्तरिका पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान्का भीमरथ। भीमरथका दिवोदास और दिवोदासका धुमान्—जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही घुमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्वके नामसे भी प्रसिद्ध है। घुमान्के ही पुत्रअलर्क आदि हुए। परीक्षित्! अलर्कके सिवा और किसी राजाने छाछठ हजार (66,000) वर्षतक युवा रहकर पृथ्वीका राज्य नहीं भोगा । 

अलर्कका पुत्र हुआ सन्तति, सन्ततिका सुनीथ, सुनीथका सुकेतन, सुकेतनका धर्मकेतु और धर्मकेतुका सत्यकेतु । सत्यकेतुसे धृष्टकेतु, धृष्टकेतुसे राजा सुकुमार, सुकुमारसे वीतिहोत्र, वीतिहोत्रसे भर्ग और भर्गसे राजा भार्गभूमिका जन्म हुआ । ये सब-के-सब क्षत्रवृद्धके वंशमें काशिसे उत्पन्न नरपति हुए। रम्भके पुत्रका नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीरसे अक्रियका जन्म हआ। अक्रियकी पत्नीसे ब्राह्मणवंश चला। 

अब अनेनाका वंश सुनो। अनेनाका पुत्र था शुद्ध, शुद्धका शुचि, शुचिका त्रिककुद् और त्रिककुद्का धर्मसारथि। धर्मसारथिके पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होनेके कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तानकी आवश्यकता न थी। 

आयुके पुत्र रजिके अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे। देवताओंकी प्रार्थनासे रजिने दैत्योंका वध करके इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया। परन्तु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओंसे भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजिको लौटा दिया और उनके चरण पकड़कर उन्हींको अपनी रक्षाका भार भी सौंप दिया। 

जब रजिकी मृत्यु हो गयी, तब इन्द्रके माँगनेपर भी रजिके पुत्रोंने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञोंका भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पतिजीने इन्द्रकी प्रार्थनासे अभिचारविधिसे हवन किया। इससे वे धर्मके मार्गसे भ्रष्ट हो गये। तब इन्द्रने अनायास ही उन सब रजिके पुत्रोंको मार डाला। उनमेंसे कोई भी न बचा। 

क्षत्रवृद्धके पौत्र कुशसे प्रति, प्रतिसे संजय और संजयसे जयका जन्म हुआ । जयसे कृत, कृतसे राजा हर्यवन, हर्यवनसे सहदेव, सहदेवसे हीन और हीनसे जयसेन नामक पुत्र हुआ । जयसेनका संकृति, संकृतिका पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्धकी वंश-परम्परामें इतने ही नरपति हुए। 

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 01.09.2025