श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 20-21
श्रीशुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं, “राजन! तुम्हारा जन्म राजा पूरु के महान वंश में हुआ है। इस वंश में अनेक तेजस्वी राजर्षि और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए हैं। पूरु का पुत्र जनमेजय हुआ। जनमेजय से प्रचिन्वान, प्रचिन्वान से प्रवीर, प्रवीर से नमस्यु और नमस्यु से चारुपद का जन्म हुआ। चारुपद से सुधु, सुधु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व उत्पन्न हुए।
अप्सरा घृताची से रौद्राश्व के दस वीर पुत्र हुए- ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु। ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ, जिसके तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ से कण्व उत्पन्न हुए। कण्व से मेधातिथि और उनसे प्रस्कण्व आदि ब्राह्मणों की परम्परा चली। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ और रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त के रूप में प्रसिद्ध हुआ।”
दुष्यंत-शकुंतला प्रेम
एक बार दुष्यन्त कुछ सैनिकों के साथ जंगल में शिकार खेलने गए। शिकार करते-करते वे कण्व मुनि के आश्रम पर पहुँच गए। आश्रम में एक बहुत ही सुंदर स्त्री बैठी थी, जिसकी आभा अद्भुत थी। उसके रूप और कान्ति से पूरा आश्रम चमक रहा था।
सुंदरी शकुन्तला को देखकर राजा दुष्यन्त बहुत प्रसन्न हुए। उनके मन में प्रेम और आकर्षण की भावना जाग उठी। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद उन्होंने मुस्कुराते हुए मधुर वाणी में कहा, "कमल की पंखुड़ी जैसे सुंदर नेत्रों वाली देवि! आप कौन हैं और किसकी पुत्री हैं? इस एकांत वन में आपका क्या उद्देश्य है? आपके रूप ने मेरे मन को आकर्षित कर लिया है। मैं समझ रहा हूँ कि आप किसी क्षत्रिय की कन्या हैं, क्योंकि पुरुवंशी कभी अधर्म की ओर झुकते नहीं।"
शकुन्तला बोलीं, "राजन! आप सही कह रहे हैं। मैं विश्वामित्र ऋषि की पुत्री हूँ। मेरी माता मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। महर्षि कण्व ने मेरा पालन-पोषण किया है, वे ही मेरे साक्षी हैं। वीरश्रेष्ठ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ? कृपया आश्रम में बैठें और हमारा स्वागत स्वीकार करें। यहाँ नीवार (जंगली चावल) उपलब्ध है, यदि आप चाहें तो भोजन करें और चाहें तो यहीं विश्राम करें।"
दुष्यन्त ने कहा, "सुंदरी! तुम कुशिक वंश में जन्मी हो, इसलिए ऐसा सत्कार करना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है। क्षत्रिय कन्याएँ अपने योग्य पति का स्वयं वरण करती हैं।"
इस प्रकार, जब शकुन्तला ने भी सहमति दी, तब राजा दुष्यन्त ने देश, काल और शास्त्र की मर्यादा जानकर गंधर्व-विधि से उससे विवाह कर लिया। राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। उन्होंने रात आश्रम में रहकर शकुन्तला के साथ समय बिताया। अगले दिन प्रातः वे अपनी राजधानी लौट गए। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र हुआ।
शकुंतला पुत्र भरत का प्रताप
महर्षि कण्व ने वन में ही उस राजकुमार का जातकर्म और अन्य संस्कार पूरे विधि-विधान से कर दिए। वह बच्चा बचपन से ही इतना शक्तिशाली था कि बड़े-बड़े शेरों को पकड़कर बाँध लेता और उनसे खेलता था। वह बालक भगवान का अंशावतार था, उसका बल और पराक्रम असीम था। फिर शकुन्तला अपने पुत्र को लेकर अपने पति राजा दुष्यन्त के पास पहुँची।
लेकिन जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तभी आकाशवाणी हुई, "दुष्यन्त! शकुन्तला जो कह रही है, वह सत्य है, इस गर्भ के कारण बनने वाले तुम ही हो।"
पिता दुष्यन्त की मृत्यु के बाद उनका पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बने। उनका जन्म भगवान के अंश से हुआ था। आज भी धरती पर उनकी महिमा का गान किया जाता है। भरत के दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न और पैरों में कमल का चिन्ह था। महाभिषेक विधि से उन्हें राजाधिराज का पद दिया गया। वे बहुत पराक्रमी और शक्तिशाली राजा बने।
भरत ने ममताका के पुत्र दीर्घतमा मुनि को अपना पुरोहित बनाया और गंगा तट पर गंगासागर से लेकर गंगोत्री तक55 अश्वमेध यज्ञ किए। इसी तरह यमुना तट पर भी प्रयाग से यमुनोत्री तक 78 अश्वमेध यज्ञ किए। इन सब यज्ञों में उन्होंने अपार धन और गायों का दान किया। इतने अधिक कि एक हज़ार ब्राह्मणों में प्रत्येक को 13,000 गायें मिलीं। कुल मिलाकर भरत ने 133 अश्वमेध यज्ञ किए और एक सौ तैंतीस घोड़े बाँधकर सब राजाओं को आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों से उन्हें अपार यश मिला और अंततः उन्होंने माया पर विजय पाकर भगवान श्रीहरि की प्राप्ति की।
यज्ञ के एक विशेष कर्म ‘मष्णार’ में भरत ने चौदह लाख हाथी दान किए जो काले रंग के, श्वेत दाँतों वाले और सोने से सुसज्जित थे। इतना महान कार्य न पहले किसी राजा ने किया था और न आगे कोई कर सकेगा। भरत ने अपने दिग्विजय में किरात, हूण, यवन, आंध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ जैसे राजाओं को पराजित कर दिया। प्राचीन काल में जब असुरों ने देवताओं पर विजय पाकर उन्हें रसातल में धकेल दिया था और बहुत-सी देवांगनाओं को भी कैद कर लिया था, तब भरत ने उन्हें मुक्त कराया।
भरत के शासन में धरती और आकाश प्रजा की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। उन्होंने 27,000 वर्ष तक समस्त दिशाओं पर एकछत्र शासन किया। अंत में, सम्राट भरत ने सोचा कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, अपार सम्पत्ति, असीम शासन और यह जीवन भी नश्वर है। यह समझकर वे संसार से विरक्त हो गए।
सम्राट भरत की पत्नियाँ विदर्भराज की तीन कन्याएँ थीं। भरत ने देखा कि उनके पुत्र उनके योग्य नहीं हैं। तब उन्होंने सन्तान की प्राप्ति के लिए ‘मरुत्स्तोम यज्ञ’ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर मरुद्गणों ने उन्हें एक तेजस्वी पुत्र दिया, जिसका नाम भरद्वाज पड़ा। भरद्वाज बड़ा ही विद्वान और योग्य हुआ। आगे चलकर वही भरतवंश का पालनकर्ता बना।
दानवीर राजा रन्तिदेव की कथा
भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुए-बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नरका पुत्र था संकृति। संकृतिके दो पुत्र हुए-गुरु और रन्तिदेव। रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है। राजा रन्तिदेव का जीवन करुणा, त्याग और भक्ति का अद्भुत उदाहरण है।
वे कभी अपने उद्योग से नहीं, बल्कि जैसे भाग्य से जो मिलता वही ग्रहण करते और उसे भी दूसरों को दे डालते। स्वयं भूखे-प्यासे रहते, पर संग्रह और ममता से दूर रहते। धीरे-धीरे उनकी संपत्ति घटती गई और वे अपने परिवार के साथ अत्यन्त कष्ट सहने लगे। एक बार तो ऐसा हुआ कि लगातार अड़तालीस दिन तक उन्हें पानी तक पीने को न मिला। उनचासवें दिन प्रातःकाल उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला।
परिवार भूख-प्यास से काँप रहा था। सबने भोजन करना ही चाहा था कि उसी समय एक ब्राह्मण अतिथि रूप में आ पहुँचा। रन्तिदेव सभी प्राणियों में भगवान का ही रूप देखते थे। उन्होंने बिना देर किए श्रद्धा से ब्राह्मण को भोजन कराया।
ब्राह्मण भोजन कर चला गया। अब बचे हुए अन्न को परिवार ने आपस में बाँट लिया और खाने ही वाले थे कि एक शूद्र अतिथि आ पहुँचा। रन्तिदेव ने भगवान को स्मरण कर उसके लिए भी अन्न का भाग अलग किया और प्रेमपूर्वक अर्पित किया।
फिर एक और अतिथि आया, जिसके साथ उसके कुत्ते भी थे। उसने कहा, “राजन! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें भोजन दीजिए।”
रन्तिदेव ने आदरपूर्वक जो कुछ शेष था, सब उन्हें दे दिया और भगवान को नमस्कार किया, क्योंकि वे सबमें भगवान का ही दर्शन करते थे। अब केवल जल ही शेष था। रन्तिदेव और उनका परिवार उसे बाँटकर पीना ही चाहते थे कि तभी एक चाण्डाल आ पहुँचा। वह करुण स्वर में बोला—“मैं नीच हूँ, अत्यन्त प्यासा हूँ। कृपा करके मुझे जल दीजिए।”
उसकी काँपती हुई वाणी सुनकर रन्तिदेव का हृदय दया से भर गया। उन्होंने भगवान का स्मरण कर अमृतमयी वाणी में कहा, "मैं भगवान से आठों सिद्धियाँ या परम गति नहीं चाहता। मोक्ष की भी मेरी कोई इच्छा नहीं है। मेरी तो केवल एक ही कामना है की मैं सब प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनके सारे दुःख मैं स्वयं सह लूँ, ताकि संसार का कोई भी प्राणी दुःख न पाए।"
फिर उन्होंने वह जल भी चाण्डाल को दे दिया। यद्यपि वे स्वयं जल के बिना मरने की स्थिति में थे, पर उनका हृदय इतना करुणा से भरा था कि वे अपने को रोक न सके।
यह सम्पूर्ण घटना भगवान विष्णु, ब्रह्मा और महेश द्वारा रची गई थी। वे ही विभिन्न रूप धारण करके रन्तिदेव के त्याग और भक्ति की परीक्षा ले रहे थे। जब उनकी परीक्षा पूर्ण हुई, तब तीनों देवता अपने वास्तविक दिव्य स्वरूप में प्रकट हुए। रन्तिदेव ने तीनों देवताओं के चरणों में विनम्र प्रणाम किया, किन्तु उनसे कुछ भी माँगा नहीं। उनका हृदय पहले ही सभी आसक्ति और इच्छाओं से मुक्त हो चुका था। वे केवल भगवान वासुदेव की भक्ति और प्रेम में ही लीन रहे। उनके संग का प्रभाव ऐसा था कि उनके अनुयायी भी योगमार्ग में अग्रसर होकर भगवान के भक्त बन गए।
मन्यु के पुत्र गर्ग हुए। उनसे शिनि और शिनि से गार्ग्य जन्मे। गार्ग्य क्षत्रिय थे, पर उनसे ब्राह्मण वंश की शुरुआत हुई। महावीर्य का पुत्र दुरितक्षय था। उसके तीन पुत्र हुए—त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण बने। बहुक्षत्र का पुत्र हस्ती था, जिसने हस्तिनापुर बसाया। हस्ती के तीन पुत्र हुए—अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ। अजमीढ के वंश में प्रियमेध जैसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए।
अजमीढ का एक पुत्र बृहदिषु था। बृहदिषु का पुत्र बृहद्धनु, उससे बृहत्काय और उससे जयद्रथ हुआ। जयद्रथ का पुत्र विशद, उससे सेनजित, और सेनजित के चार पुत्र हुए—रुचिराश्व, दृढ़हनु, काश्य और वत्स। रुचिराश्व का पुत्र पार, उससे पृथुसेन और पार का दूसरा पुत्र नीप हुआ।
नीप के सौ पुत्र थे। उसने शुक की कन्या कत्वी से विवाह किया। उससे ब्रह्मदत्त उत्पन्न हुए। ब्रह्मदत्त बड़े योगी थे। उनकी पत्नी सरस्वती से विष्वक्सेननामक पुत्र हुआ। विष्वक्सेन ने आचार्य जैगीषव्य से शिक्षा पाकर योगशास्त्र की रचना की। विष्वक्सेन का पुत्र उदक्स्वन, उससे भल्लाद हुआ। ये सब बृहदिषु के वंशज थे। द्विमीढ का पुत्र यवीनर, उससे कृतिमान, उससे सत्यधृति, उससे दृढ़नेमि और उससे सुपार्श्व हुआ। सुपार्श्व से सुमति, उससे सन्नतिमान, और उससे कृति हुआ। कृति ने हिरण्यनाभ से योगविद्या प्राप्त की और प्राच्यसाम नामक छह संहिताएँ बताईं।
कृति का पुत्र नीप, उससे उग्रायुध, उससे क्षेम्य, उससे सुवीर, और उससे रिपुंजय हुआ। रिपुंजय का पुत्र बहुरथ हुआ। द्विमीढ का भाई पुरुमीढ संतानहीन रहा। अजमीढ की दूसरी पत्नी नलिनी से नील नामक पुत्र हुआ। उससे शांति, फिर सुशांति, फिर पुरुज, उससे अर्क, और उससे भाश्व जन्मे। भाश्व के पाँच पुत्र हुए- मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य और संजय। भाश्व ने कहा, "ये पाँचों राज्य करने योग्य हैं।" इसलिए वे पंचाल कहलाए।
मुद्गल से मौद्गल्य ब्राह्मण गोत्र चला। भाश्व के पुत्र मुद्गल से जुड़वाँ संतान हुई- दिवोदास और अहल्या। अहल्या का विवाह महर्षि गौतम से हुआ और उनसे शतानन्द उत्पन्न हुए। शतानन्द का पुत्र सत्यधति हुआ, जो धनुर्विद्या में निपुण था। सत्यधति का पुत्र शरद्वान था। एक बार उर्वशी को देखकर शरद्वान का वीर्य धरती पर गिरा और उससे एक पुत्र और एक पुत्री पैदा हुए। राजा शंतनु ने दया करके उन दोनों को अपने साथ ले लिया। पुत्र का नाम कृपाचार्य और पुत्री का नाम कृपी पड़ा। यही कृपी आगे चलकर द्रोणाचार्य की पत्नी बनी।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 08.09.2025