श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 2-3
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के इस धरती पर प्राकट्य का समय आता है। सदा सबके भीतर विद्यमान रहने वाले वे सर्वांतर्यामी भगवान्, वसुदेवजी के हृदय में अव्यक्त अवस्था से प्रकट होकर स्वयं को व्यक्त करते हैं। भगवान् की दिव्य ज्योति को धारण करते ही वसुदेवजी सूर्य के समान तेजस्वी हो उठते हैं। उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधिया जाती हैं। उस समय कोई भी व्यक्ति अपने बल, वाणी या प्रभाव से उन्हें दबा नहीं पाता।
भगवान्के उस ज्योतिर्मय अंशको, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी देवकीने ग्रहण किया। देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान होते ही उनके चेहरे पर दिव्या मुस्कान और चारों ओर तेज़ दिखाई देता है। यह देख कंस अपने मन में समझता है कि इस बार विष्णु ने अवश्य ही देवकी के गर्भ में प्रवेश किया है, क्योंकि देवकी पहले ऐसी कभी न थी।
कंस गर्भवती बहन को मारने का कलंक नहीं लेना चाहता। इसलिए वह देवकी को मारता परंतु भगवान के प्रति उसका वैर और गहरा हो जाता है। उसको उठते, बैठते, खाते, सोते, हर पल श्रीकृष्ण ही काल के रूप में दिखने लगते है।
शुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं कि भगवान के देवकी के गर्भ में आते ही भगवान् शंकर और ब्रह्माजी कंसके कैदखानेमें आये। उनके साथ अपने अनुचरोंके सहित समस्त देवता और नारदादि भी थे। वे लोग श्रीहरिकी स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले जाते हैं।
श्रीकृष्ण कंस के कारगार में प्रकट हुए
अब बहुत शुभ और सुंदर समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश में तारे, ग्रह और नक्षत्र सब शांत और सौम्य हो गये थे। दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं। निर्मल आकाशमें तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वीके बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मंगलमय हो रही थीं ।
नदियों का जल एकदम स्वच्छ हो गया था। रात में भी तालाबों में कमल खिल उठे थे। जंगलों में पेड़-पौधे रंग-बिरंगे फूलों से लदे थे। पक्षी गा रहे थे, भौंरे गुनगुना रहे थे। उस समय हवा बड़ी ठंडी, सुगंधित और सुखद थी। ब्राह्मणों के वे यज्ञाग्नि, जो कंस के अत्याचारों से बुझ गये थे, अपने-आप फिर जल उठे। संत पुरुषों के मन भी हर्ष और शांति से भर गये। उन्हें लगा जैसे अधर्म की रात अब ख़त्म होने वाली है।
देवताओं की नगरी में दुन्दुभियाँ अपने आप बजने लगीं। किन्नर और गंधर्व गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। ऋषि-मुनि और देवता आकाश से पुष्पों की वर्षा करने लगे। बादल भी समुद्र के पास जाकर धीरे-धीरे गड़गड़ाने लगे।
ऐसे ही पवित्र और निश्छल वातावरण में, जब चारों ओर घना अंधकार था, सबके हृदय में विराजमान भगवान देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। वे वैसे ही दीख रहे थे, जैसे पूर्व दिशा में अपनी पूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा उदित हो जाता है।
वसुदेवजीने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमलके समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथोंमें शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है।
बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डलकी कान्तिसे सुन्दर-सुन्दर घुघराले बाल सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं। कमरमें चमचमाती करधनीकी लड़ियाँ लटक रही हैं। बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कंकण शोभायमान हो रहे हैं।
जब वसुदेवजीने देखा कि मेरे पुत्रके रूपमें तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं। उनका पूरा शरीर आनंद से झूम उठा। जन्म की खुशियों में ही उन्होंने ब्राह्मणों के लिए दस हजार गाय का दान करने का संकल्प कर लिया।
भगवान् श्रीकृष्णजी की अंग-भूषणों से सुतिका-घर जगमगा उठा था। वसुदेवजी ने शांत मन से भगवान् की स्तुति करते हुए कहा, “प्रभु! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिये ही आप मेरे घर अवतरित हुए हैं। आजकल अनेक असुर सेनापतियों ने राजा बनने का दंभ पाल रखा है और बड़ी- बड़ी सेनाएँ जमा कर रखी हैं। आप उन सबका नाश करेंगे। कंस बड़ा अत्याचारी है। जब उसे पता चला कि आपका अवतार हमारे घर हो रहा है, तब उसने आपके भय से आपके बड़े भाइयों को मार डाला। अब वह आपके जन्म की खबर सुनकर तुरन्त हथियार लेकर आ सकता है।”
श्रीशुकदेवजी कहते हैं की जब माता देवकी ने अपने पुत्र को देखा, तो समझ गयीं कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् हैं। पहले उन्हें कंस का भय हुआ, पर फिर वे शांत हुईं और पवित्र भाव से मुस्कराकर भगवान् की स्तुति करने लगीं।
देवकी ने कहा, “प्रभो! आप भक्तों के भय को हरने वाले हैं, और हम कंस से अत्यंत भयभीत हैं। कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज रूप दिव्य है, ध्यान के योग्य है, इसे साधारण लोगों के सामने प्रकट मत होने दीजिये।
मधुसूदन! कंस को यह पता न चले कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हुआ है। मैं बहुत भयभीत हूँ। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपका यह रूप अलौकिक है। कृपया अपनी शंख, चक्र, गदा और कमल से सुशोभित चतुर्भुज आकृति छिपा लीजिये।
प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप आकाशको। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है?”
देवकी और वासुदेव पूर्वजन्म में क्या थे?
देवकी और वासुदेव के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान् ने मुस्कराते हुए देवकी से कहा, “देवि! बहुत समय पहले, स्वायम्भुव मन्वंतर में तुम्हारा नाम पृश्नि था और वसुदेव का नाम सुतपा प्रजापति था। तुम दोनों के हृदय बहुत पवित्र थे। जब ब्रह्माजी ने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब तुम दोनों ने अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर कठोर तपस्या शुरू की।
तुम दोनों ने वर्षा, ठंड, गर्मी और हवा जैसी कठिन परिस्थितियों को सहा और मन को शुद्ध किया। कभी सूखे पत्ते खाकर और कभी केवल हवा पीकर ही तुमने दिन बिताए। तुम्हारा मन बहुत शांत था। इस प्रकार तुमने मन में मुझे पाने की इच्छा से मेरी आराधना की।
तुम्हारी यह तपस्या देवताओं के बारह हजार वर्ष तक चलती रही। तब मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुमने बड़ी श्रद्धा, प्रेम और निरंतर भक्ति से मुझे अपने हृदय में धारण किया था। जब मैं वर देने आया और कहा, ‘जो चाहो, माँग लो’, तब तुम दोनों ने मुझ जैसा पुत्र माँगा।
उस समय तक तुम संसारिक भोगों से दूर थे और तुम्हारी कोई सन्तान भी नहीं थी। इसलिए मेरी माया के प्रभाव से तुमने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा, बल्कि पुत्र के रूप में मुझे पाने की इच्छा की। तब मैंने कहा, ‘तथास्तु’। तुम्हें वर मिल गया, और फिर मैं वहाँ से चला गया।
बाद में जब तुम दोनों ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। मैंने देखा कि मेरे समान शील, स्वभाव और उदारता वाला कोई नहीं है, इसलिए मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनकर प्रकट हुआ। उस समय मेरा नाम पृश्निगर्भ था।
फिर दूसरे जन्म में तुम अदिति बनीं और वसुदेव कश्यप ऋषि हुए। तब मैं तुम्हारा पुत्र वामन अवतार के रूप में प्रकट हुआ। मेरा नाम उपेन्द्र भी था, और मेरे छोटे शरीर के कारण लोग मुझे ‘वामन’ कहते थे।
अब, इस तीसरे जन्म में, तुम देवकी और वसुदेव के रूप में हुए हो, और मैं फिर तुम्हारा पुत्र बनकर आया हूँ। मेरी वाणी कभी असत्य नहीं होती। मैंने तुम्हें अपना यह दिव्य रूप इसलिये दिखाया है ताकि तुम्हें मेरे पिछले अवतारों की याद आ जाए। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मानव रूप देखकर तुम मुझे पहचान न पातीं। अब तुम दोनों मुझमें पुत्रभाव और साथ ही ब्रह्मभाव रखो। इस प्रेम और सतत चिंतन से तुम मेरे परम पद को प्राप्त करोगी।”
भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमायासे पिता-माताके देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया।
वासुदेवजी ने श्रीकृष्ण को मथुरा से गोकुल पहुँचाया
वसुदेवजी को भगवान् की प्रेरणा हुई कि वे अपने नवजात पुत्र को लेकर सुतिका-गृह से बाहर निकलें। योगमाया ने अपनी दिव्य शक्ति से पहरेदारों और नगरवासियों की चेतना हर ली। वे सब गहरी नींद में सो गये। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे, उन पर भारी किवाड़, लोहे की जंजीरें और मजबूत ताले लगे थे। वहाँ से निकलना असंभव था। पर जैसे ही वसुदेवजी ने श्रीकृष्ण को गोद में लिया और दरवाजे के पास पहुँचे, सारे दरवाजे अपने आप खुल गये, जैसे सूर्योदय होते ही अंधकार हट जाता है।
बाहर हल्की वर्षा हो रही थी और बादल धीरे-धीरे गरज रहे थे। भगवान् की रक्षा के लिए शेषनाग अपने फनों को फैलाकर उनके ऊपर छाया बनाकर चलने लगे। उस समय यमुनाजी में बाढ़ आ गयी थी। जल गहरा और तेज़ी से बह रहा था, लहरें ऊँची उठ रही थीं और भँवर बन रहे थे। लेकिन जैसे समुद्र ने श्रीरामजी को मार्ग दिया था, वैसे ही यमुनाजी ने भी श्रीकृष्ण के लिए रास्ता बना दिया।
वसुदेवजी गोकुल पहुँचे तो देखा कि सभी गोप गहरी नींद में सो रहे हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को यशोदा की शय्या पर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या (योगमाया) को उठाकर वापस मथुरा लौट आये।
जेल में पहुँचकर उन्होंने उस कन्या को देवकी के पास लिटा दिया, फिर अपने पैरों में बेड़ियाँ डाल लीं और पहले की तरह बंदीगृह में कैदी बनकर बैठ गये। उधर यशोदा जी को बस इतना अहसास हुआ कि उन्हें संतान हुई है, पर यह नहीं जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री, क्योंकि वे प्रसव के कष्ट और योगमाया की माया से अचेत हो गयी थीं।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 13.10.2025