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86- श्रीकृष्ण की बाल लीलाएँ: माटी-भक्षण, ऊखल बंधन और नन्द–यशोदा का पूर्वजन्म रहस्य

Nov 27th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 10 अध्याय: 8-9

कुछ ही दिनों में श्याम और बलराम अपनी ही उम्रके ग्वालबालोंको अपने साथ लेकर खेलनेके लिये व्रजमें निकल पड़ते और व्रजकी गोपियोंको निहाल करते हए तरह-तरहके खेल खेलते। उनके बचपनकी चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियोंको तो वे बड़ी ही मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्द-बाबाके घर आयीं और यशोदा माताको सुना-सुनाकर कन्हैयाके करतूत कहने लगीं।

‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहनेका समय न होनेपर भी यह बछड़ोंको खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खाजाता है। केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरोंको बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जानेपर नहीं खा पाते, तब यह हमारे माटोंको ही फोड़ डालता है। यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालोंपर बहुत खीझता है और हमारे बच्चोंको रुलाकर भाग जाता है। 

जब हम दहीदूधको छीकोपर रख देती हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँतक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कहीं दो-चार पीढ़ोंको एकके ऊपर एक रख देता है। कहीं ऊखलपर चढ़ जाता है तो कही ऊखलपर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो अपने किसी साथीके कंधेपर ही चढ़ जाता है।) जब इतनेपर भी काम नहीं चलता, तब यह नीचेसे ही उन बर्तनोंमें छेद कर देता है। 

इसे इस बातकी पक्की पहचान रहती है कि किस छीकेपर किस बर्तन में क्या रखा है। और ऐसे ढंगसे छेद करना जानता है कि किसीको पतातक न चले। जब हम अपनी वस्तुओंको बहुत अँधेरेमें छिपा देती हैं। तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत-से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाशसे अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीरमें भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। 

यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घरके काम-धंधोंमें उलझी रहती हैं, तब यह अपना काम बना लेता है। ऐसा करके भी ढिठाईकी बातें करता है- उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घरका मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरोंमें मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ 

गोपियाँ बातें करती जातीं और श्रीकृष्ण के डर और आश्चर्य से भरी आँखों वाला प्यारा मुखड़ा देखती रहतीं। उनकी यह हालत देखकर नन्दरानी यशोदासमझ जातीं कि गोपियों के मन में क्या चल रहा है। उनके अपने हृदय में भी स्नेह और खुशी उमड़ पड़ती। वे इतनी ज़ोर से हँस देतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को कुछ कह भी न पातीं, डाँटना तो दूर, उलाहना देने का भी विचार नहीं कर पातीं।

श्रीकृष्ण की माटी खाने की लीला

एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्णके साथ खेल रहे थे। उन लोगोंने मा यशोदाके पास आकर कहा, ‘मा! कन्हैयाने मिट्टी खायी है’।

यशोदाने श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्णकी आँखें डरके मारे नाच रही थीं। यशोदा मैयाने डाँटकर कहा, ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेलेमें छिपकर मिट्टी क्यों खायी? देख तो तेरे दलके तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हींकी ओरसे गवाही दे रहे हैं’।

श्रीकृष्णने कहा, ‘मा! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहे हैं। यदि तुम इन्हींकी बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखोंसे देख लो। यशोदाजीने कहा, ‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माताके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपना मुँह खोल दिया। 

शुकदेवजी परीक्षित् को कहते हैं कि भगवान् श्रीकृष्णका ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीलाके लिये ही मनुष्यके बालक बने हुए हैं। यशोदाजीने देखा कि उनके मुँहमें चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है। आकाश (वह शुन्य जिसमें किसीकी गति नहीं), दिशाएँ, पहाड, द्वीप और समुद्रोंके सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारोंके साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियोंके चलने-फिरनेका आकाश), वैकारिक अहंकारके कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्णके मुखमें दीख पड़े।
जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासनाएँ, शरीर, तरह-तरह के रूपों में फैला यह अद्भुत संसार, पूरा व्रज और स्वयं अपना रूप भी मैया को दिखे तो वे बहुत घबरा गयीं।

उनके मन में सवाल उठने लगे, ‘क्या यह कोई सपना है? या फिर भगवान की माया है? कहीं मेरी बुद्धि भ्रमित तो नहीं हो गयी? या फिर मेरे इस बालक में जन्म से ही कोई योग की शक्ति है?’

फिर वे मन ही मन सोचने लगीं, ‘जिस भगवान को मन, बुद्धि, कर्म और वाणी से ठीक तरह समझा नहीं जा सकता, जिस पर यह सारा संसार टिका हुआ है, जो इसे चलाते हैं और जिनकी शक्ति से ही हमें यह दुनिया दिखाई देती है, जिनका स्वरूप समझ से परे है, मैं उन प्रभु को प्रणाम करती हूँ।’

‘यह मैं हूँ, ये मेरे पति हैं, यह मेरा बच्चा है, मैं व्रज की रानी हूँ, गोधन, गोप-गोपियाँ सब मेरे अधीन हैं, यह सोच ही भगवान की माया है। वास्तव में वे ही मेरे सच्चे आश्रय हैं। मैं उनकी ही शरण में हूँ।’

जब यशोदा माता को समझ आ गया कि उनका लाड़ला कन्हैया वास्तव में कौन है, तब सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक प्रभुने वैष्णवी योगमाया के द्वारा उनके हृदय में फिर से मातृ-स्नेह भर दी। यशोदातुरंत सब कुछ भूल गयीं। उन्होंने अपने प्यारे लाल को गोद में उठा लिया। उनके हृदय में पहले जैसा प्रेम का समुद्र फिर से उमड़ पड़ा।

नन्दबाबा और यशोदा मैया पिछले जन्म में कौन थे? 

जिन भगवान का माहात्म्य वेद, उपनिषद, सांख्य, योग और भक्तजन लगातार गाते रहते हैं, जिनकी महिमा का वर्णन करते-करते थकते नहीं उन्हीं भगवान को यशोदाअपने पुत्र के रूप में देखती और मानती थीं।

राजा परीक्षितने पूछा, "भगवन्! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा महान शुभ कर्म किया था? और परम भाग्यशाली यशोदाने कौन-सी तपस्या की थी, जिसके फलस्वरूप स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से स्तनपान किया?

भगवान श्रीकृष्ण की वे बाल लीलाएँ, जिनमें वे अपना ऐश्वर्य और महिमा छिपाकर ग्वालबालों के साथ खेलते हैं, इतनी पवित्र हैं कि जो भी उन्हें सुनता या गाता है, उसके पाप और दुख दूर हो जाते हैं। आज भी ज्ञानी, त्रिकालदर्शी महापुरुष उनका गान करते रहते हैं। पर आश्चर्य यह है कि वे लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी और वसुदेवजी तक को देखने को नहीं मिलीं, जबकि नन्द-यशोदा उनका पूरा आनंद उठा रहे हैं। ऐसा क्यों?”

श्री शुकदेवजी ने परीक्षित को बताया कि नन्दबाबा अपने पिछले जन्म में एक महान वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा। दोनों ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की थी कि, ‘भगवन्! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब हमें भगवान श्रीकृष्ण के प्रति ऐसा अनन्य प्रेमभरा भक्ति भाव मिले, जिसकी सहायता से लोग सरलता से संसार की कठिनाइयों से पार हो जाते हैं।’

ब्रह्माजी ने उत्तर दिया, ‘ऐसा ही होगा।’ उसी द्रोण का इस जन्म में व्रज में नन्द के रूप में जन्म हुआ और वही धरा यशोदा के रूप में उनकी पत्नी बनीं।

परीक्षित! इसी जन्म में भगवान स्वयं उनके पुत्र रूप में प्रकट हुए ताकि उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर सकें। व्रज में सभी गोप-गोपियों की अपेक्षा नन्द और यशोदा का भगवान के प्रति सबसे अधिक प्रेम था। ब्रह्माजी की बात को सत्य करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ व्रज में रहने लगे और अपनी मधुर बाल लीलाओं से सभी व्रजवासियों को आनंदित करने लगे।

श्रीकृष्ण की ऊखल बंधन लीला

श्री शुकदेवजी आगे परीक्षित को कहते हैं की एक बार नन्दरानी यशोदाने घर की दासियों को दूसरे कामों में लगा दिया और खुद अपने लाल कन्हैया को मक्खन खिलाने के लिये दही मथने लगीं। दही मथते समय वे अब तक भगवान की जो-जो बाल लीलाएँ हुई थीं, उन्हें याद करतीं और गुनगुनाती जातीं।

उन्होंने रेशमी लहँगा पहन रखा था। लगातार मथानी चलाने से उनकी बाँहें थक गयी थीं। हाथों के कंगन और कानों के झुमके हिल रहे थे। चेहरे पर पसीने की बूंदें थीं, चोटी में लगी मालती के फूल गिर रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस तरह दही मथ रही थीं।

इसी बीच श्रीकृष्ण अपनी माँ के पास दूध पीने आ गये। उन्होंने प्यार जताते हुए मथानी पकड़ ली और मथना बंद करा दिया। फिर वे माँ की गोद में चढ़ गये। माँ के प्रेम से उनके स्तनों से दूध बह ही रहा था, वे उन्हें पिलाने लगीं और मुस्कुराते हुए उनका चेहरा देखने लगीं। तभी दूसरी ओर चूल्हे पर रखा दूध उफनने लगा। उसे देखकर यशोदाकन्हैया को अधपेटा ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने चली गयीं।

इससे कन्हैया को गुस्सा आ गया। उनके लाल होंठ फड़कने लगे। उन्होंने दाँत भींचे, पास पड़े मूसल से दही का मटका फोड़ दिया और बनावटी आँसू भरकर दूसरे कमरे में जाकर बासी मक्खन खाने लगे।

जब यशोदादूध उतारकर लौटीं, तो उन्होंने मटका टूटा हुआ देखा। वे समझ गयीं कि यह मेरे नटखट लाल की शरारत है। उसे वहाँ न पाकर वे हँसने लगीं। ढूँढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण उलटी रखी हुई ओखली पर चढ़कर ऊपर लटके मक्खन के बर्तन से मक्खन निकाल-निकालकर बंदरों को खिला रहे हैं। चोरी पकड़े जाने के डर से चारों ओर सावधानी से देख भी रहे हैं। यह देखकर यशोदा धीरे-धीरे पीछे से पहुँचीं।

कन्हैया ने माँ को छड़ी लिये अपनी ओर आते देखा तो झट ओखली से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। जिन भगवान को बड़ी तपस्या और मन को पूर्ण शुद्ध करके भी योगी प्राप्त नहीं कर पाते, उन्हीं भगवान के पीछे-पीछे यशोदा उन्हें पकड़ने के लिये दौड़ रही थीं।

दौड़ते-दौड़ते यशोदाकी गति धीमी हो गयी। उनकी चोटी ढीली पड़ गयी, फूल गिरते गये, फिर भी वे किसी तरह कन्हैया को पकड़ ही लिया। उन्होंने कन्हैया का हाथ पकड़कर डाँटना शुरू किया। कन्हैया रोने की कोशिश रोकते हुए भी रो पड़ते थे। आँखें मलने से चेहरा काजल से काला पड़ गया था, डर के कारण आँखें ऊपर उठी हुई थीं।
अग जग सब जग संहारक जेई, 
डरपत यशुमति के साँटिन तेई, 
धनी लीला 'कृपालु' सरकार, प्रेम के बन्धन में।
जब यशोदाने देखा कि कन्हैया बहुत डर गया है, तो उनके मन में फिर प्रेम उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फेंक दी और सोचा—इसे थोड़ा बाँध दूँ, नहीं तो फिर भाग जायेगा। उन्हें यह पता नहीं था कि यह वही भगवान हैं जो न बाहर हैं न भीतर, न आदि हैं न अन्त, जो जगत से पहले भी थे और बाद में भी रहेंगे, जो सबके भीतर भी हैं और बाहर भी। वही भगवान मनुष्य रूप में उनके बेटे के रूप में हैं, और वे उसे साधारण बच्चे की तरह बाँधने लगीं।

जब उन्होंने रस्सी से बाँधना चाहा, तो रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गयी। उन्होंने दूसरी रस्सी जोड़ दी—वह भी छोटी। जितनी रस्सियाँ जोड़तीं, सब दो अंगुल छोटी ही रहतीं। पूरे घर की रस्सियाँ जोड़ दीं, फिर भी कन्हैया न बँधे। गोपियाँ यह देखकर हँसने लगीं, यशोदा भी आश्चर्य से मुस्कुराने लगीं।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ थक गयी हैं, पसीने से भीग गयी हैं, चोटी के फूल गिर गये हैं तो दया करके स्वयं ही बँध गये।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र और पूरा जगत उनके अधीन है। फिर भी उन्होंने दिखाया कि वे अपने प्रेमी भक्तों के वश में रहते हैं।
नित खोजत वेद ऋचान जेई, 
बनि यशुमति के सुत कान्ह तेई, 
बँधे ऊखल में लेहु निहार, प्रेम के बंधन में।
यशोदा को जो अनोखा कृपाप्रसाद मिला, वह ब्रह्माजी को भी नहीं मिला, न शिवजी को और न ही उनके हृदय में रहने वाली लक्ष्मीजी को। श्रीकृष्ण अनन्य प्रेमी भक्तों के लिये जितने सुलभ हैं, उतने कर्मकाण्डियों, तपस्वियों और केवल ज्ञानियों के लिये नहीं हैं।

इसके बाद यशोदा फिर अपने घर के कामों में लग गयीं। और ऊखल में बँधे श्रीकृष्ण ने सोचा कि अब उन दो अर्जुन वृक्षों को मुक्त करूँ, जो पहले कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे। नारदजी के शाप के कारण वे वृक्ष बन गये थे।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 24.11.2025