श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 15 से 20
मैत्रेयीजी ने विदुरजी को बताया कि दिति को अपने पुत्रों द्वारा देवताओं को कष्ट पहुँचाने की आशंका थी। इसलिए उसने कश्यपजी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षों तक अपने गर्भ में ही धारण किए रखा। उस गर्भस्थ तेज के प्रभाव से लोकों में सूर्य आदि का प्रकाश क्षीण होने लगा और इन्द्रादि सभी लोकपाल भी अपने तेज से वंचित हो गए। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर प्रार्थना की कि सभी दिशाओं में अंधकार फैल गया है, जिससे बड़ी अव्यवस्था हो रही है। आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकारके विषयमें भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं। देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि इस अंधकार के कारण दिन और रात का विभाजन स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, जिससे लोकों के सारे कर्म (कर्तव्य और दैनिक कार्य) लुप्त हो रहे हैं और लोग अत्यंत दुःखी हो रहे हैं। उन्होंने निवेदन किया कि कृपा करके उनका कल्याण करें और उन पर अपनी अपार दयादृष्टि डालें।
सनकादि ऋषि द्वारा विष्णु पार्षद जय-विजय को शाप देना
जब देवताओं ने यह प्रार्थना की तब ब्रह्माजी देवताओं से कहते हैं, "देवताओ! मेरे मानसपुत्र सनकादि ऋषि, जिन्होंने सभी लोकों की आसक्ति छोड़ दी थी, एक बार आकाशमार्ग से भगवान विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय वैकुण्ठधाम पहुंचे। वहां केवल वही जा सकते हैं, जो सभी कामनाओं को त्याग कर भगवच्चरण की शरण में आते हैं। वैकुण्ठ में नारायण, जो भक्तों को सुख देने के लिए शुद्धसत्त्वमय स्वरूप में रहते हैं, सदैव विराजमान हैं। वहाँ के गन्धर्वगण भगवान की लीलाओं का गान करते हैं, जो सभी पापों का नाश करती हैं। परम सौंदर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिए देवता भी प्रयत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवन में चंचलता का त्याग कर निवास करती हैं।”
येऽभ्यर्थितामपिच नो नृगतिं प्रपन्ना ज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्म यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य सम्मोहिता विततया बतमायया ते ।।
अहो ! इस मनुष्ययोनिकी बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इसकी चाह करते हैं। इसीमें तत्त्वज्ञान और धर्मकी भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान्की आराधना नहीं करते, वे वास्तवमें उनकी सर्वत्र फैली हुई मायासे ही मोहित हैं । (भागवत 3.15.24)
ब्रह्माजी ने कहा की ऐसे भाग्यशाली भक्त, जो भगवान का निरंतर चिंतन करते हैं, वैकुण्ठ में निवास करते हैं, जहां यमराज भी उनसे भयभीत रहते हैं। सनकादि मुनि अपने योगबल से वैकुण्ठधाम पहुंचे, जहां का दृश्य अद्भुत था। वे भगवान श्रीहरि के दर्शन की लालसा में छह ड्यौढ़ियाँ पार कर सातवीं पर पहुंचे, तब वहाँ उन्हें हाथमें गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये-जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणोंसे अलंकृत थे। उनकी चार श्यामल भुजाओंके बीचमें वनमाला सुशोभित थी तथा भौंहें, फड़कते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनोंके कारण उनके चेहरेपर कुछ क्षोभके-से चिह्न दिखायी दे रहे थे। सनकादि मुनि ज्ञान में पूर्ण और ब्रह्मा जी की सृष्टि में सबसे प्राचीन होते हुए भी बालक जैसे प्रतीत होते थे और नग्न थे। द्वारपालों ने उनका उपहास करते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया। इससे मुनियों के दर्शन में बाधा आई, जिससे उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गए, और वे कुछ कहने लगे।
सनकादि मुनि द्वारपालों से कहते हैं, "अरे द्वारपालो! जो वैकुण्ठ में रहते हैं, वे भगवान की तरह समदर्शी होते हैं। तुम भी उनके सेवक हो, फिर यह भेदभाव क्यों? भगवान शांत और निष्पक्ष हैं, तुम स्वयं कपटी हो, इसलिए दूसरों पर शंका करते हो। भगवान के भीतर पूरा ब्रह्माण्ड समाहित है, और ज्ञानीजन उनमें कोई भेद नहीं देखते। तुम पार्षद होकर भी किससे डर रहे हो? हालांकि तुम वैकुण्ठनाथ के सेवक हो, लेकिन तुम्हारी बुद्धि अत्यंत मन्द है। इसलिए तुम्हारा कल्याण करने के लिए हम तुम्हारे अपराध के योग्य दंड देंगे। तुम इस भेदबुद्धि के दोष से वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध और लोभ जैसे शत्रु निवास करते हैं।"
सनकादि मुनियों के कठोर वचन सुनकर, ब्राह्मणों के शाप को अवश्यंभावी जानकर, श्रीहरि के दोनों पार्षद अत्यंत दीनभाव से उनके चरणों में गिर पड़े। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से अत्यंत भय मानते हैं। पार्षदों ने व्याकुल होकर कहा, "भगवान, हम अपने अपराध के लिए दंड के योग्य हैं। हमने आपकी आज्ञा न समझते हुए उल्लंघन किया है, और यह दंड हमें हमारे पाप से मुक्त करेगा। कृपया हमारी इतनी कृपा करें कि अधम योनियों में जाने पर भी हमें आपकी स्मृति न भूलने वाला मोह न हो।"
जब भगवान श्रीहरि को यह ज्ञात हुआ कि उनके द्वारपालों ने सनकादि मुनियों का अनादर किया है, तो वे लक्ष्मीजी के साथ उन मुनियों के पास स्वयं चले आए। मुनियों ने भगवान के दिव्य रूप को देखकर उन्हें प्रणाम और उनकी महिमा का गुणगान करते हैं। श्रीभगवान ने बताया कि उनके पार्षद जय-विजय ने मुनियों का जो अपमान किया है उसके लिए वे भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि जय-विजय उनके अनुचर हैं और उनसे क्षमा माँगी। अंत में, भगवान ने मुनियों से अनुरोध किया कि वे जय-विजय का निर्वासन शीघ्र समाप्त करें ताकि वे उनके पास लौट सकें। सनकादि मुनि भगवान की मधुर वाणी सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान से पूछा कि वे यह क्यों कह रहे हैं कि उन्होंने उन पर अनुग्रह किया है। श्रीभगवान ने कहा कि मुनिगण, आपने जो द्वारपालों को शाप दिया है, वह मेरी प्रेरणा से है। वे जल्दी ही दैत्य योनियों को प्राप्त होंगे और वहाँ की एकाग्रता से सुदृढ़ होकर पुनः मेरे पास लौट आएंगे।
ब्रह्माजी बताते हैं कि मुनियों ने भगवान विष्णु और उनके वैकुण्ठधाम के दर्शन कर उनका पूजन किया। भगवान ने अपने अनुचरों से कहा कि उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं है, उनका कल्याण होगा। भगवान ने बताया कि एक बार जब वे योगनिद्रा में थे, तब लक्ष्मीजी ने द्वारपालों को रोकने पर क्रोधित होकर उन्हें पहले ही शाप दे दिया था। इस दैत्य योनिमें क्रोध की स्थिति से उनकी एकाग्रता बढ़ेगी, जिससे वे पाप से मुक्त होकर जल्दी लौटेंगे। फिर भगवान ने विमानों से सुसज्जित अपने धाम में प्रवेश किया। जय-विजय उस शाप के कारण वहाँ से गिर पड़े और उनका गर्व मिट गया। वैकुण्ठवासियों में हाहाकार मच गया।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का जन्म
इस समय दितिके गर्भमें स्थित जो कश्यपजीका उग्र तेज है, उसमें भगवान्के उन पार्षदों ने ही प्रवेश किया है। उन दोनों असुरोंके तेजसे ही देवताओं का तेज फीका पड़ गया था। श्रीमैत्रेयजीने विदुरजी को आगे बताया कि ब्रह्माजीके कहनेसे अन्धकारका कारण जानकर देवताओंकी शंका निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोकको लौट आये। इधर जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब दिति ने दो जड़वे पुत्र उत्पन्न किये। उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें अनेकों उत्पात होने लगे—जिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये। वे दोनों दैत्य, जन्म के बाद शीघ्र ही विशाल पर्वतों के समान कठोर और ऊँचे हो गए। उनके सुवर्णमय मुकुट स्वर्ग को छूने लगे और उनका शरीर सारी दिशाओं को आच्छादित करने लगा। उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमक रहे थे, और पृथ्वी पर उनके कदम रखते ही भूकंप आ जाता था। कश्यपजी ने उन्हें नाम दिया—पहले जन्मा हिरण्यकशिपु और उसके बाद हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु, ब्रह्माजी के वर से मृत्युभय से मुक्त होकर अत्यंत उद्धत हो गया। उसने अपने बल से तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष हमेशा उसके प्रिय कार्य करता था।
हिरण्याक्ष का उद्धार
एक दिन, हिरण्याक्ष युद्ध के अवसर की तलाश में स्वर्गलोक पहुँचा। हिरण्याक्ष का वेग असह्य था, और देवता डरकर छिप गए। उसने देखा कि इंद्रादि गर्वीले देवता भी उसके सामने नहीं आ रहे हैं, तो उसने भयंकर गर्जना की। फिर वह समुद्र में गहरे जाकर जलक्रीड़ा करने लगा। जैसे ही उसने समुद्र में कदम रखा, वरुण के सैनिक डरकर भाग गए। महाबली हिरण्याक्ष कई वर्षों तक समुद्र में घूमता रहा। अंततः वह वरुण की राजधानी विभावरीपुरी पहुँचा। वहाँ जाकर उसने वरुण का उपहास करते हुए युद्ध की भिक्षा मांगी। उस मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे वरुणको क्रोध तो बहुत आया, किंतु अपने बुद्धिबलसे वे उसे पी गये और बदलेमें उससे कहने लगे, “'भाई! हमें तो अब युद्धादिका कोई चाव नहीं रह गया है। भगवान् पुराणपुरुषके सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं जो तुम-जैसे रणकुशल वीरको युद्धमें सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज! तुम उन्हींके पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हींका गुणगान किया करते हैं । वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी। वे तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप धारण किया करते हैं।”
वरुणजीकी यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथनपर कि ‘तू उनके हाथसे मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजीसे श्रीहरिका पता लगाकर रसातलमें पहुँच गया। वहाँ उसने वराहभगवानको अपनी दाढ़ोंकी नोकपर पृथ्वीको ऊपरकी ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रोंसे उसके तेजको हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँसे आया’। फिर हिरण्याक्ष ने वराह भगवान से कहा, "अरे नासमझ! इस पृथ्वी को छोड़ दे, क्योंकि इसे ब्रह्माजी ने रसातलवासियों के हवाले कर दिया है। सूकररूपधारी, तुम मेरे सामने इसे लेकर नहीं जा सकते। तुम मायासे छिपकर दैत्यों को जीतते हो, लेकिन क्या इसी से तुम्हारे शत्रु तुम्हें पाला है? मूढ़! तुम्हारा बल तो योगमाया का है, तुम्हारे पास पुरुषार्थ नहीं है। आज मैं तुम्हें समाप्त करके अपने बंधुओं का शोक दूर करूंगा। जब तुम मेरे गदा के प्रहार से मर जाओगे, तब तुम्हारी आराधना करने वाले देवता और ऋषि जड़ कटे वृक्षों की तरह नष्ट हो जाएंगे।"
हिरण्याक्ष भगवान को दुर्वचन दे रहा था, लेकिन भगवान ने पृथ्वी को भयभीत देखकर उसकी चोट सह ली और जल से बाहर आ गए। जब उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, तो हिरण्याक्ष ने उनका पीछा किया। तब श्रीहरि ने गदा लिए हुए हिरण्याक्ष से अत्यंत क्रोधित होकर हंसते हुए कहा की युद्ध करके अपना मनोरथ पूरी कर। इसके पश्चात दोनों में भयंकर युद्ध होता है। जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंके सहित ब्रह्माजी आये। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, तब वे भगवान नारायणसे इस प्रकार कहने लगे की मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। यह देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं और अन्य निरपराध जीवों को बहुत हानि पहुँचाने वाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसका मुकाबला करने वाला कोई योद्धा नहीं है, इसलिए यह महाकंटक वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है।
यह दुष्ट बड़ा मायावी, घमंडी और निरंकुश है। आप इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिए। इसकी मृत्यु आपके ही हाथों में है। हमारे बड़े भाग्य हैं कि स्वयं अपने कालरूप में यह आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शांति प्रदान कीजिए। इसके बाद भगवान ने कुछ समय युद्ध क्रीड़ा करके अंत में हिरण्याक्ष को मार दिया।
सृष्टि का विस्तार
अपनी मायासे वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी रसातलसे पृथ्वीको निकालने और खेलमें ही हिरण्याक्षको मार डालनेकी लीला सुनकर विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेयजीसे कहा की आगे का सृष्टि प्रसंग सुनाइए। मैत्रेयजी आगे सुनाते हैं-
- सबसे पहले, ब्रह्माजी ने अपनी छाया से पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन्न की—तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह, और महामोह। ब्रह्माजीको अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया।
- तब उस शरीरको उसीसे उत्पन्न हए यक्ष और राक्षस भूख-प्याससे अभिभूत होकर खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे—'इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’
- "खा जाओ"- बोलकर दौड़ने वालों का नाम "यक्ष" पड़ा।
- "रक्षा मत करो"- बोलकर दौड़ने वालों का नाम "राक्षस" पड़ा।
- इसके बाद, ब्रह्माजी ने एक प्रकाशमय शरीर धारण किया और मुख्य देवताओं की रचना की। फिर, उन्होंने कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया, जो तुरंत ब्रह्माजी के पास आए। यह देखकर, ब्रह्माजी पहले तो हँसे, लेकिन असुरों के अत्यधिक इच्छाशक्ति को देखकर घबरा गए।
- ब्रह्माजी ने श्रीहरि से प्रार्थना की कि वे उनकी रक्षा करें। भगवान ने उन्हें कहा कि वे अपने कामकलुषित शरीर को त्याग दें। ब्रह्माजी ने अपना वह शरीर छोड़ा, जो बाद में सुंदर संध्या देवी में बदल गया जिसे देखकर असुर मोहित हो गए और उनकी सुंदरता की प्रशंसा करने लगे। ब्रह्माजीने गम्भीर भावसे हँसकर अपनी ज्योत्स्ना से, गन्धर्व और अप्सराओंको उत्पन्न किया।
- आगे, ब्रह्माजी ने अपनी तन्द्रासे भूत-पिशाच उत्पन्न किए। उन्हें वस्त्रहीन और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूंद लीं।
- ब्रह्मा ने अपने अदृश्य तेजोमय रूप से साध्यगण और पितृगण को उत्पन्न किया। अपनी तिरोधानशक्ति (अंतर्धान) से सिद्ध और विद्याधरों की सृष्टि की और उन्हें अद्भुत शरीर दिया। अपने प्रतिबिम्ब को देखकर बहुत सुंदर मानकर उससे किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किए। सृष्टि की वृद्धि न होने पर ब्रह्मा ने अपने भोगमय शरीर को त्याग दिया। ब्रह्मा के त्यागे हुए शरीर से जो बाल झड़े, वे अहि बने; और उनके सिकुड़ने से सर्प और नाग उत्पन्न हुए।
- एक बार ब्रह्माजीने अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्तमें उन्होंने अपने मनसे मनुओंकी सृष्टि की। मनस्वी ब्रह्माजीने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओंको देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्माजीकी स्तुति करने लगे ।
- फिर आदिऋषि ब्रह्माजीने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधिसे सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगणकी रचना की और उनमेंसे प्रत्येकको अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीरका अंश दिया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 20.09.2024