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70- मत्स्य अवतार: सत्यव्रत, सप्तर्षि और प्रलय काल की कथा

Jul 31st, 2025 | 5 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 24

श्री शुकदेवजी से वामन अवतार लीला कथा सुनने के पश्चात राजा परीक्षित ने पूछा, “भगवान के कर्म बहुत ही अद्भुत हैं। एक बार उन्होंने अपनी योगमाया से मत्स्य (मछली) का अवतार लिया और सुंदर लीला की। कृपा करके उनकी यह लीला हमें विस्तार से सुनाइए।”

श्रीशुकदेवजी ने कहा – पिछले कल्प के अंत में जब ब्रह्माजी सो गए, तब नैमित्तिक प्रलय हुआ और सारे लोक समुद्र में डूब गए। उसी समय ब्रह्माजी के मुख से वेद बाहर निकल आए। यह देखकर हयग्रीव नाम का एक बलशाली दैत्य उन्हें चुराकर ले गया। भगवान श्रीहरि ने यह देखकर मत्स्य रूप धारण किया, ताकि वेदों की रक्षा कर सकें।

उसी समय सत्यव्रत नाम के एक तपस्वी राजा थे, जो केवल जल पीकर कठोर तप कर रहे थे। वही आगे चलकर वैवस्वत मनु बने। एक दिन सत्यव्रत नदी में तर्पण कर रहे थे, तभी उनकी अंजलि में एक छोटी-सी मछली आ गई। राजा ने करुणा करके उसे फिर से नदी में छोड़ दिया। लेकिन मछली ने उनसे कहा, "राजन! जल में बड़ी मछलियाँ मुझे खा लेंगी, कृपा करके मेरी रक्षा करें।"

राजा को नहीं पता था कि यह स्वयं भगवान हैं। उन्होंने दया करके मछली को अपने कमंडलु में रख लिया और आश्रम ले आए। लेकिन एक ही रात में मछली इतनी बड़ी हो गई कि कमंडलु में समाना मुश्किल हो गया। फिर राजा ने उसे एक मटके में रखा, वहाँ भी वह कुछ ही समय में और बढ़ गई। तब उसे एक सरोवर में डाला, लेकिन वहाँ भी वह पूरी जगह घेरने लगी। राजा उसे बड़े-बड़े सरोवरों में ले जाते रहे, पर मछली उतनी ही तेजी से बढ़ती रही। अंत में राजा ने उसे समुद्र में डालने की सोची।

तब मछली ने कहा, "राजन! समुद्र में मगरमच्छ जैसे भयानक जीव रहते हैं, वे मुझे खा लेंगे। वहाँ मत छोड़िए।"
मछली की यह मधुर और विलक्षण बात सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने कहा, "आप कोई साधारण मछली नहीं हैं। एक ही दिन में इतना बढ़ जाना किसी जलचर के बस की बात नहीं। न मैंने ऐसा देखा, न सुना। आप अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि हैं!"

"प्रभु! आपने यह अवतार जरूर किसी खास उद्देश्य से लिया है। कृपा करके बताइये, आपने यह रूप क्यों धारण किया?"

जब भगवान मत्स्यरूप में राजर्षि सत्यव्रत की प्रार्थना सुनी, तो वे उनकी रक्षा और कल्याण के लिए बोले, “सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगा। भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक – ये तीनों लोक प्रलय के जल में डूब जाएंगे। उस समय मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक विशाल नाव आ जाएगी। तब तुम सप्तर्षियों के साथ उस नाव पर चढ़ जाना। साथ में सब प्रकार के अनाज और पेड़-पौधों के बीज भी रख लेना, ताकि आगे फिर जीवन की शुरुआत हो सके।

चारों तरफ सिर्फ जल ही जल होगा – कोई सूरज, चाँद या तारे नहीं होंगे। बस ऋषियों की दिव्य चमक ही प्रकाश देगी। उस स्थिति में तुम बिना घबराए उस नाव में विचरण करना। जब समुद्र में तेज आंधी चलेगी और नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं उसी मत्स्य रूप में वहाँ आ जाऊँगा। तुम वासुकि नाग की सहायता से उस नाव को मेरे सींग में बाँध देना। जब तक ब्रह्माजी की रात चलेगी, मैं उस नाव को खींचकर समुद्र में विचरण कराऊँगा। तुम और सप्तर्षि उसमें सुरक्षित रहोगे। उस समय तुम मुझसे जो भी प्रश्न करोगे, मैं तुम्हें उत्तर दूँगा। मेरी कृपा से तुम्हारे हृदय में ‘परब्रह्म’ का गहरा ज्ञान जाग उठेगा। तुम मेरी सच्ची महिमा को जान सकोगे।”

भगवान् राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये और राजा भी उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवानने आज्ञा दी थी।

उन्होंने कुश बिछाकर पूर्वोत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ गए। वे मन-ही-मन भगवान मत्स्य के चरणों का ध्यान करने लगे। कुछ समय बाद वही घड़ी आ पहुँची, जिसकी भगवान ने भविष्यवाणी की थी। राजा ने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा लांघ रहा है। प्रलय के भयंकर बादल गरजते हुए वर्षा करने लगे। धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी जल में डूबने लगी।

राजा को भगवान की आज्ञा याद आ गई। उन्होंने देखा कि एक विशाल नौका भी आ चुकी है। फिर वे सभी धान्य और बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नाव पर चढ़ गए। सप्तर्षियों ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा, “राजन! अब भगवान का ध्यान करो। वही हमें इस संकट से बचाएंगे।” राजा ने उनका आदेश मानकर भक्तिभाव से भगवान का ध्यान किया।

उसी समय विशाल समुद्र में भगवान मत्स्यरूप में प्रकट हुए। उनका शरीर सोने के समान चमक रहा था और लंबाई थी चार लाख कोस। उनके शरीर पर एक विशाल सींग भी था। वासुकि नाग की मदद से नाव को भगवान के सींग में बाँध दिया गया। तब राजा सत्यव्रत का हृदय आनंद से भर गया और उन्होंने श्रद्धा से भगवान की स्तुति की।

राजा सत्यव्रत ने भगवान से प्रार्थना की कि जीव अनादि अज्ञान से ढका होने के कारण संसार में दुख भोगता है। केवल भगवान की कृपा से ही वह सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर सकता है और बंधन से मुक्त हो सकता है। उन्होंने कहा कि आप ही 

सच्चे गुरु हैं, जो जीव के अज्ञान को दूर कर उसे आत्मस्वरूप में स्थित करते हैं। जैसे आग से सोना शुद्ध होता है, वैसे ही आपकी सेवा से जीव शुद्ध होता है। संसार के सारे देवता और गुरु भी आपकी कृपा के सामने तुच्छ हैं। अज्ञानी लोग अज्ञानी को ही गुरु बना लेते हैं, जिससे और अंधकार बढ़ता है। लेकिन आप आत्मज्ञान देने वाले दिव्य गुरु हैं। आप ही सच्चे सुहृद, ईश्वर और आत्मा हैं। कृपा करके अपने ज्ञान से मेरे हृदय की अज्ञान-गांठ काट दीजिए।

जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तमभगवान्ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश किया। भगवान्ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं।

सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट – सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया। सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट – सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया।

इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये। भगवान्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए।

अन्त में श्री शुकदेवजी कहते हैं कि प्रलयकालीन समुद्र में जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था। भगवान्ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दी एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्के परम कारण लीलामत्स्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 28.07.2025