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67- आने वाले मन्वंतरों का विवरण: बलि का उदय, अदिति की विनती और भगवान का आश्वासन

Jul 20th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 13-17

श्री शुकदेव जी परीक्षित् को वर्तमान सातवें से लेकर आगे के मन्वंतरों का इस प्रकार वर्णन करते हैं:

सातवाँ मन्वंतर (वर्तमान मन्वंतर):
  • मनु का नाम वैवस्वत (श्राद्धदेव) है। वे सूर्यदेव विवस्वान के पुत्र हैं। उनके पुत्र हैं: इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करूष, पृषध्र और वसुमान।
  • इस मन्वंतर के इन्द्र का नाम पुरन्दर है। देवता आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु हैं।
  • सप्तर्षि हैं: कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज।
  • इस मन्वंतर में भगवान ने कश्यपजी की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन रूप में अवतार लिया और राजा बलि से तीन पग में संपूर्ण त्रिलोकी मांग ली।
आठवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम सावर्णि होगा। वे सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न पुत्र होंगे। उनके पुत्र निर्मोक, विरजस्क आदि होंगे।
  • इस मन्वंतर में विरोचन के पुत्र बलि इन्द्र बनेंगे। देवता सुतपा, विरजा, अमृतप्रभ आदि होंगे।
  • सप्तर्षि होंगे: गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यशृंग और वेदव्यास।
  • भगवान देवगुह्य की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नाम से अवतार लेंगे और इन्द्र से स्वर्ग छीनकर बलि को देंगे।
नवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम दक्षसावर्णि होगा। वे वरुण के पुत्र होंगे। उनके पुत्र होंगे भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि।
  • इस मन्वंतर में अद्भुत इन्द्र बनेंगे। देवता पार, मरीचिगर्भ आदि होंगे।
  • सप्तर्षि द्युतिमान आदि होंगे।
  • भगवान आयुष्मान की पत्नी अम्बुधारा के गर्भ से ऋषभ नाम से अवतार लेंगे और त्रिलोकी इन्द्र को देंगे।
दसवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम ब्रह्मसावर्णि होगा। वे उपश्लोक के पुत्र होंगे। उनके पुत्र भूरिषेण आदि होंगे।
  • इस मन्वंतर में शम्भु इन्द्र बनेंगे। देवता सुवासन, विरुद्ध आदि होंगे।
  • सप्तर्षि होंगे: हविष्मान, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि।
  • भगवान विश्वसृज की पत्नी विषूचि के गर्भ से विष्वक्सेन नाम से अवतार लेंगे और शम्भु इन्द्र के मित्र बनेंगे।
ग्यारहवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम धर्मसावर्णि होगा। उनके पुत्र सत्य, धर्म आदि दस होंगे।
  • इस मन्वंतर में वैधृत इन्द्र बनेंगे। देवता विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि होंगे।
  • सप्तर्षि अरुण आदि होंगे।
  • भगवान आर्यक की पत्नी वैधृता के गर्भ से धर्मसेतु नाम से अवतार लेंगे और त्रिलोकी की रक्षा करेंगे।
बारहवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम रुद्रसावर्णि होगा। उनके पुत्र देववान, उपदेव, देवश्रेष्ठ आदि होंगे।
  • इस मन्वंतर में ऋतुधामा इन्द्र बनेंगे। देवता हरित आदि होंगे।
  • सप्तर्षि होंगे: तपोमूर्ति, तपस्वी, आग्नीध्रक आदि।
  • भगवान सत्यसहा की पत्नी सूनृता के गर्भ से स्वधाम नाम से अवतार लेंगे।
तेरहवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम देवसावर्णि होगा। उनके पुत्र चित्रसेन, विचित्र आदि होंगे।
  • इस मन्वंतर में दिवस्पति इन्द्र बनेंगे। देवता सकर्म, सूत्राम आदि होंगे।
  • सप्तर्षि निर्मोक, तत्त्वदर्श आदि होंगे।
  • भगवान देवहोत्र की पत्नी बहती के गर्भ से योगेश्वर नाम से अवतार लेंगे और दिवस्पति को इन्द्र पद देंगे।
चौदहवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम इन्द्रसावर्णि होगा। उनके पुत्र उरु, गम्भीर, बुद्धि आदि होंगे।
  • इस मन्वंतर में शुचि इन्द्र बनेंगे। देवता पवित्र, चाक्षुष आदि होंगे।
  • सप्तर्षि होंगे: अग्नि, बाह, शुचि, शुद्ध, मागध आदि।
  • भगवान सत्रायण की पत्नी विताना के गर्भ से बृहद्भानु नाम से अवतार लेंगे और कर्मकांड का विस्तार करेंगे।

चौदहों मन्वंतर, उनके मनु, इन्द्र, देवता, सप्तर्षि और भगवान के अवतारों का वर्णन सुनकर राजा परीक्षित् ने शुकदेवजी से पूछा, "भगवन! आपने जिन मनुओं, मनुपुत्रों, सप्तर्षियों आदि का उल्लेख किया है, वे अपने-अपने मन्वंतर में किसके द्वारा नियुक्त किए जाते हैं? वे कौन-कौन-से कार्य करते हैं और किस प्रकार उन कार्यों का पालन करते हैं — कृपा करके मुझे विस्तार से बताइये।"

इसपर श्रीशुकदेवजी कहते हैं की मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता सबको नियुक्त करनेवाले स्वयं भगवान् ही हैं । भगवान्के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार शरीरोंका वर्णन मैंने किया है, उन्हींकी प्रेरणासे मनु आदि विश्व-व्यवस्थाका संचालन करते हैं। चतुर्युगीके अन्तमें समयके उलट-फेरसे जब श्रुतियाँ नष्टप्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्यासे पुनः उनका साक्षात्कार करते हैं। उन श्रतियोंसे ही सनातनधर्मकी रक्षा होती है।

भगवानकी प्रेरणासे अपने-अपने मन्वन्तरमें बड़ी सावधानीसे सब-के-सब मनु पृथ्वीपर चारों चरणसे परिपूर्ण धर्मका अनुष्ठान करवाते हैं। मनुपुत्र मन्वन्तरभर काल और देश दोनोंका विभाग करके प्रजापालन तथा धर्मपालनका कार्य करते हैं। पंच-महायज्ञ आदि कर्मोंमें जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदिका सम्बन्ध है—उनके साथ देवता उस मन्वन्तरमें यज्ञका भाग स्वीकार करते हैं। इन्द्र, भगवानकी दी हई त्रिलोकीकी अतुल सम्पत्तिका उपभोग और प्रजाका पालन करते हैं। संसारमें यथेष्ट वर्षा करनेका अधिकार भी उन्हींको है।

भगवान् युग-युगमें सनक आदि सिद्धोंका रूप धारण करके ज्ञानका, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियोंका रूप धारण करके कर्मका और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरोंके रूपमें योगका उपदेश करते हैं। वे मरीचि आदि प्रजापतियोंके रूपमें सृष्टिका विस्तार करते हैं, सम्राटके रूपमें लुटेरोंका वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणोंको धारण करके कालरूपसे सबको संहारकी ओर ले जाते हैं। नाम और रूपकी मायासे प्राणियोंकी बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकारके दर्शनशास्त्रोंके द्वारा महिमा तो भगवान्की ही गाते हैं, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान पाते।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं, “परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्पका परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्वके विद्वानोंने प्रत्येक अवान्तर कल्पमें चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं।”

राजा बलि का उत्कर्ष, इन्द्र की पराजय और वामन अवतार की पृष्ठभूमि

राजा परीक्षित् ने जिज्ञासावश पूछा, “भगवन्! श्रीहरि तो स्वयं सर्वशक्तिमान और पूर्णकाम हैं, फिर उन्होंने राजा बलि से दीनवत होकर तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी? और जब उन्होंने जो चाहा वह मिल गया, तो फिर बलि को बाँधा क्यों? क्या कारण है कि यज्ञेश्वर भगवान् को याचना करनी पड़ी और निर्दोष बलि को बंधन में डालना पड़ा?”

श्रीशुकदेवजी ने उत्तर दिया की जब देवराज इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सारी संपत्ति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिए, तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से बलि को पुनर्जीवित किया। इसके बाद बलि ने शुक्राचार्य और समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया। इससे प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और ‘विश्वजित्’ नामक यज्ञ का आयोजन करवाया। यज्ञ में बलि ने जब आहुति दी, तो अग्निकुंड से स्वर्णमंडित रथ, दिव्य धनुष-बाण, अक्षय तरकश, कवच, ध्वजा और अन्य युद्ध-सामग्री प्रकट हुई। दादा प्रह्लाद ने उन्हें एक अमर माला दी और शुक्राचार्य ने शंख प्रदान किया।

युद्ध-सज्जा से सुसज्जित होकर बलि ने दिव्य रथ पर सवार होकर अपनी विशाल दैत्य-सेना सहित स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। वे इतने प्रभावशाली दिख रहे थे कि जैसे अग्निकुंड में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो। बलि की सेना इतनी प्रचंड थी कि ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे आकाश को निगल लेंगे। उन्होंने समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न अमरावती पर चढ़ाई कर दी। अमरावती नगरी अपने दिव्य वैभव, सौंदर्य, अप्सराओं, देवांगनाओं, विमानों और संगीत से परिपूर्ण थी, जिसका निर्माण स्वयं देव शिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।

बलि ने अपनी विशाल सेना से अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और युद्ध का शंख बजा दिया। इन्द्र को जब बलि की शक्ति का आभास हुआ तो वे देवगुरु बृहस्पति के पास गए और चिंता प्रकट की कि बलि की यह अद्भुत शक्ति कहाँ से आई है। बृहस्पति ने बताया कि बलि की यह सारी उन्नति भृगुवंशी ब्राह्मणों की कृपा से हुई है। अब बलि को केवल स्वयं भगवान ही रोक सकते हैं, कोई और नहीं। बृहस्पति ने सलाह दी कि देवता स्वर्ग छोड़ दें और किसी गुप्त स्थान में छिपकर बलि के भाग्य-पलट का इंतजार करें। जब बलि ब्राह्मणों का अपमान करेगा, तभी उसका पतन होगा।

देवगुरु की सलाह मानकर देवता स्वर्ग से चले गए। बलि ने अमरावती पर अधिकार कर लिया और तीनों लोकों को जीत लिया। फिर भृगुवंशियों ने उससे सौ अश्वमेध यज्ञ करवाए। इन यज्ञों से बलि की कीर्ति दसों दिशाओं में फैल गई और वे चन्द्रमा के समान शोभायमान हो गए। वे ब्राह्मणों की कृपा से प्राप्त समृद्ध राज्य का भोग कर कृतकृत्य हो गए। 

जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदितिको बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं। एक बार बहुत दिनोंके बाद जब कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट ही।

कश्यप मुनि ने अदिति से पूछा, “क्या धर्म संकट में है? क्या अतिथि सेवा में कोई कमी हो गई? क्या अग्निहोत्र आदि नियमित नहीं हो पा रहे?” वे आशंका जताते हैं कि शायद उनके बाहर रहने के दौरान कोई चूक हो गई हो।

तब अदिति माता बहुत विनम्रता से कहती हैं, “स्वामी! धर्म, ब्राह्मण, गौ, सब कुशल में हैं। मैंने आपकी स्मृति में सेवा-धर्म से चूक नहीं की है। फिर भी मैं व्यथित हूँ, क्योंकि दैत्यों ने हमारे पुत्रों का ऐश्वर्य, पद और घर छीन लिया है। वे पीड़ा में हैं। आपसे बढ़कर कोई हितैषी नहीं, कृपा कर ऐसा उपाय कीजिए जिससे देवता फिर से अपना स्थान पा सकें।”

कश्यप मुनि यह सुनकर कहते हैं, ““अदिति! यह मोह बड़ी विचित्र शक्ति है। आत्मा तो न किसी की पत्नी है, न पुत्र, पर माया का बंधन इतना गहरा है कि विवेक भी ढक जाता है। फिर भी, तुम भगवान वासुदेव की उपासना करो। वे करुणामय हैं, भक्तवत्सल हैं। निश्चय ही वे तुम्हारी कामनाएँ पूरी करेंगे। भगवत् भक्ति कभी निष्फल नहीं होती। यही एकमात्र उपाय है।”

अदिति का पयोव्रत और भगवान विष्णु का वरदान

अदिति माता ने कश्यपजी से पूछा कि मैं भगवान वासुदेव की आराधना किस विधि से करूँ, जिससे वे प्रसन्न होकर मेरे पुत्रों का ऐश्वर्य लौटा दें। तब कश्यप मुनि ने उन्हें ‘पयोव्रत’ नामक व्रत बताया, जो स्वयं ब्रह्माजी ने पहले उन्हें बताया था। यह व्रत भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है और मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। यह व्रत फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशी तक कुल बारह दिनों तक किया जाता है। व्रत के दौरान केवल दूध का सेवन किया जाता है, भूमि पर शयन किया जाता है और दिन में तीन बार स्नान किया जाता है। व्रती को ब्रह्मचर्य, सत्य और संयम का पालन करना चाहिए और किसी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए।

प्रत्येक दिन भगवान विष्णु की मूर्ति, वेदी, सूर्य, अग्नि और गुरु के रूप में पूजा करनी होती है। भगवान को स्नान कराकर वस्त्र, पुष्प, धूप, दीप आदि से पूजन करना चाहिए और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र से जप व हवन करना चाहिए। यदि संभव हो तो खीर (दूध, घी, गुड़ मिश्रित) बनाकर अर्पण करना चाहिए। अंतिम दिन (त्रयोदशी) को भगवान को पंचामृत से स्नान कराके विशेष पूजन करें, उत्तम वस्त्र, आभूषण, फल, खीर आदि अर्पण करें और ब्राह्मणों व अतिथियों को तृप्त करें। गौ, भूमि, स्वर्ण आदि का दान करें, गरीबों को भी अन्न-वस्त्र दें और अंत में स्वयं भगवान का स्मरण करते हुए भोजन करें।

व्रत के साथ-साथ भगवन्नाम-संकीर्तन, स्तुति और कथा श्रवण भी करना चाहिए। कश्यपजी ने कहा कि यह व्रत सभी यज्ञों, तपों और दानों से श्रेष्ठ है और इससे भगवान वासुदेव शीघ्र प्रसन्न होकर मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। उन्होंने अदिति को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम भाग्यशालिनी हो, श्रद्धा और नियमपूर्वक यह व्रत करो, भगवान अवश्य ही प्रसन्न होकर तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे।

अदितिने बड़ी श्रद्धा और सावधानी से बारह दिन तक यह व्रत किया। उन्होंने बुद्धिको सारथि बनाकर मनकी लगाम से इन्द्रियरूपी दुष्ट घोड़ों को अपने वश में कर लिया और एकनिष्ठ बुद्धि से पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन करती रहीं। एकाग्र मन से उन्होंने पयोव्रत का पालन किया और भगवान वासुदेव में पूर्ण रूप से चित्त को समर्पित कर दिया।

व्रत की पूर्णता पर भगवान प्रकट हुए- पीताम्बरधारी, चार भुजाओंवाले, हाथों में शंख, चक्र, गदा धारण किए हुए। उनके दर्शन से देवी अदिति भावविभोर हो उठीं। प्रेमविह्वल होकर उन्होंने उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। आंखों से अश्रुधारा बह निकली, शरीर पुलकित हो गया और वे कुछ बोल नहीं सकीं, बस प्रेम में स्थिर खड़ी रहीं। कुछ समय बाद उन्होंने धीरे-धीरे भगवान की स्तुति की, “हे प्रभो! आप यज्ञस्वरूप हैं, यज्ञ के भी स्वामी हैं। आपके चरणों का आश्रय लेकर मनुष्य भवसागर से तर जाता है। आपके नाम और कीर्तन से ही जीवन सफल हो जाता है। आप आदिपुरुष हैं, सबका आश्रय हैं, अनन्त हैं, लेकिन फिर भी अपनी लीलाओं के लिये अनेक रूपों को धारण करते हैं। जब आप प्रसन्न हो जाते हैं तो मनुष्य को ब्रह्मलोक, सिद्धियाँ, सम्पदा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तक प्राप्त हो जाता है।”

तब भगवान ने मुस्कुराकर उत्तर दिया, “देवि! मैं तुम्हारे हृदय की कामनाएँ जानता हूँ। तुम्हारे पुत्र इन्द्रादि देवता असुरों से पराजित हो चुके हैं। तुम चाहती हो कि वे फिरसे विजय प्राप्त करें, ऐश्वर्य प्राप्त करें और तुम अपनी आँखों से उन असुरों की पत्नियों को रोते देखो। परन्तु अभी असुरों को पराजित करना संभव नहीं है, क्योंकि इस समय ईश्वर और ब्राह्मण भी उनके पक्ष में हैं। फिर भी तुम्हारे इस पयोव्रत से मैं अतीव प्रसन्न हूँ। तुम्हारी पूजा व्यर्थ नहीं जायेगी। अतः मैं अंशरूप से कश्यपजी के वीर्य में प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनूँगा, जिससे तुम्हारे देवपुत्रों की रक्षा हो सके। तुम कश्यपजी में मुझे इस रूप में देखो और उनका सेवा-भाव से आदर करो। पर ध्यान रहे, यह बात किसी और को मत बताना। देवताओं के रहस्य जितने गुप्त रहते हैं, उतने ही सफल होते हैं।”

इतना कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान् मेरे गर्भसे जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यताका अनुभव करने लगी।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 18.07.2025