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72- भक्त के वश में हैं भगवान: अम्बरीष की भक्ति के सामने विवश हुए दुर्वासा

Aug 7th, 2025 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 4-5

नाभाग और रुद्र भगवान की कथा

मनु के पुत्र नभग के एक पुत्र थे, जिनका नाम था नाभाग। नाभाग ने युवावस्था में लम्बे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन किया और जब वे वापस लौटे, तब तक उनके बड़े भाइयों ने पिता की सारी संपत्ति आपस में बाँट ली थी। जब नाभाग ने भाइयों से पूछा, "मुझे क्या हिस्सा मिला?" तो उन्होंने कहा,"तूने तो ब्रह्मचर्य में समय बिताया, अब तेरे हिस्से में केवल पिताजी ही आएँगे।" नाभाग ने जाकर अपने पिता से कहा,"पिताजी! मेरे भाइयों ने आपके अलावा मुझे कुछ नहीं दिया।"

पिता ने कहा, "बेटा! उनकी बात मत मानो। मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ, उसको सुनो। कुछ अंगिरस गोत्र के ब्राह्मण एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। वे हर छठे दिन यज्ञ की विधि में गलती कर बैठते हैं। तुम उनके पास जाकर उन्हें 'वैश्वदेव' नामक दो मंत्र बता देना। जब यज्ञ पूरा हो जाएगा और वे स्वर्ग को प्रस्थान करेंगे, तब वे यज्ञ में बचा हुआ सारा धन तुम्हें दे देंगे।"

नाभाग ने वैसा ही किया। ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर यज्ञ का बचा हुआ सारा धन नाभाग को दे दिया और स्वयं स्वर्ग चले गए। किंतु तभी एक काले रंग का पुरुष उत्तर दिशा से आया और बोला,"इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा है, वह सब मेरा है।" 

नाभाग ने उत्तर दिया,"यह धन मुझे ऋषियों ने दिया है, इसलिए यह मेरा है।" तब वह पुरुष बोला,"चलो, इस विवाद का निर्णय तुम्हारे पिताजी करें।" नाभाग फिर अपने पिता के पास गया और पूरा किस्सा बताया।

पिता ने कहा,"बेटा! एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में यह तय किया गया था कि यज्ञ में जो कुछ बचता है, वह रुद्र भगवान का होता है। इसलिए यह धन भी उन्हीं का है।"

नाभाग तुरंत उस काले पुरुष के पास गया, जो वास्तव में रुद्र भगवान ही थे, और कहा,"प्रभो! यज्ञभूमि की वस्तुएँ आपकी ही हैं। मेरे पिताजी ने यही कहा है। मुझसे भूल हुई, कृपा करके मुझे क्षमा करें।"

भगवान रुद्र प्रसन्न हो गए और बोले,"तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुसार बात कही है और तुमने भी सत्य कहा है। तुम वेदों का अर्थ पहले से जानते हो, अब मैं तुम्हें ब्रह्म का ज्ञान देता हूँ।" फिर रुद्र भगवान ने कहा,"यह जो धन यज्ञ में बचा है, यह अब मैं तुम्हें देता हूँ।" ऐसा कहकर रुद्र भगवान अंतर्धान हो गए।

भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त राजा अम्बरीष

नाभाग के पुत्र अम्बरीष एक महान राजर्षि थे। वे बहुत धार्मिक, उदार, और भगवत्भक्त थे। उनका इतना प्रभाव था कि जिस ब्रह्मशाप को कोई रोक नहीं पाता था, वह भी अम्बरीष को छू नहीं सका। वे पूरी पृथ्वी, सातों द्वीपों और अपार धन-वैभव के स्वामी थे।

लेकिन ये सभी ऐश्वर्य उन्हें क्षणिक और मायाजाल ही लगते थे, क्योंकि उन्होंने जाना था कि ये सब दुख और पतन का कारण बन सकते हैं। उन्हें केवल एक ही चीज़ मूल्यवान लगती थी- भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम। उनका जीवन पूर्णतः कृष्णमय था। मन श्रीकृष्ण के चरणों में लगा था। वाणी श्रीहरि की महिमा गाने में। हाथ श्रीहरि के मंदिर की सेवा में। कान भगवत्कथाएँ सुनने में। आंखें भगवान के रूप दर्शन में। त्वचा भक्तों की संगति और स्पर्श में। नाक तुलसी-दल की दिव्य सुगंध में। जिह्वा प्रसाद और नैवेद्य में। पाँव तीर्थों की यात्रा में। सिर भगवान के चरणों की वन्दना में।

उन्होंने हर कर्म भगवान को समर्पित कर दिया था, बिना किसी स्वार्थ के। राजा होकर भी उन्होंने तपस्वी जीवन जिया। उन्होंने वशिष्ठ, गौतम, असित आदि ऋषियों की देखरेख में अनेक अश्वमेध यज्ञ किए। उनकी प्रजा भी इतनी धर्मपरायण थी कि स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करती थी, क्योंकि उन्हें अपने राजा के माध्यम से भगवान के दर्शन और कथाओं का आनंद मिलता था।

अम्बरीष ने घर, परिवार, सेना, रत्न, खजाना सब कुछ भगवान को अर्पित कर दिया था। उनके लिए सब कुछ मिथ्या था, केवल भगवान श्रीकृष्ण ही सत्य थे। इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे सभी सांसारिक आसक्तियाँ छोड़ दीं और भगवद्भक्ति में लीन हो गए। उनकी अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनकी रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया।

राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं की तरह धर्मनिष्ठ, भक्ति में लीन और संसार से विरक्त थीं। एक बार दोनों ने मिलकर भगवान श्रीकृष्ण की आराधना के लिए एक वर्ष तक एकादशी व्रत का संकल्प लिया। व्रत समाप्त होने पर, कार्तिक मास में उन्होंने तीन दिन तक उपवास किया। फिर यमुनाजी में स्नान करके मधुवन में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति भाव से पूजा की।

अम्बरीष ने भगवान श्रीकृष्ण का वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला, अर्घ्य आदि से भव्य अभिषेक किया। उन्होंने ब्राह्मणों का भी सम्मानपूर्वक पूजन किया, भले ही वे पूर्णकाम और सिद्ध थे। उन्होंने उन्हें स्वादिष्ट भोजन कराया और साथ में 60 करोड़ गौएँ दान कीं, जिनके सींग सोने से जड़े थे, खुर चाँदी के थे, वे सुंदर, दूध देने वाली और बछड़ों वाली थीं। साथ में गाय दुहने की सारी सामग्री भी भेजी।

जब सब कुछ पूर्ण हो गया और राजा अम्बरीष व्रत पारण की तैयारी करने लगे, तभी दुर्वासा ऋषि अतिथि बनकर आए। राजा ने तुरंत उठकर उनका स्वागत किया, उन्हें आसन दिया, और भोजन हेतु निवेदन किया।दुर्वासाजी ने भोजन के लिए हामी भर दी और बोले,"मैं स्नान करके आता हूँ।" वे यमुनाजी के तट पर ध्यान और स्नान के लिए चले गए।

अब समस्या यह थी कि द्वादशी समाप्त होने में थोड़ी ही देर बची थी। राजा सोच में पड़ गए, "यदि पारण नहीं करता तो द्वादशी चली जाएगी, जो व्रत नियम के विपरीत है। लेकिन यदि दुर्वासाजी को खिलाए बिना खुद खा लूं, तो अतिथि-सत्कार का उल्लंघन होगा।"

ब्राह्मणों से सलाह करने पर तय हुआ कि "श्रुति कहती है जल पीना भोजन भी है और नहीं भी।"इसलिए राजा ने मन में भगवान का स्मरण करते हुए केवल जल पिया, ताकि व्रत भी न टूटे और अतिथि को भोजन कराने की मर्यादा भी बनी रहे।

जब दुर्वासाजी लौटे और देखा कि राजा ने जल पीकर पारण कर लिया है, तो वे भयंकर क्रोधित हो गए। उनकी भौंहें तनी हुई थीं, शरीर क्रोध से कांप रहा था। उन्होंने अम्बरीष को अपशब्द कहे,"अरे! तू कितना घमंडी है! तू खिलाए बिना खुद खा लिया। यह मेरा घोर अपमान है। अब इसका फल भुगत!"

उन्होंने क्रोध में अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे एक भयंकर राक्षसी (कृत्या) को उत्पन्न किया। वह प्रलयकालकी आगके समान जलती हई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समस उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

भक्त अम्बरीष की रक्षा में चला चक्र, त्रिलोक में दुर्वासा को पड़ा भागना

भगवान ने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सदर्शन चक्रको नियक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया। जब दुर्वासाजी ने देखा कि कृत्या तो भस्म हो गई और अब चक्र सीधे उनकी ओर आ रहा है, तो वे घबरा गए और अपनी जान बचाने के लिए भागने लगे। 

चक्र पीछे-पीछे दौड़ रहा था, दुर्वासाजी आगे आगे। दुर्वासाजी भागते-भागते सुमेरु पर्वत की गुफा में घुसे, धरती, आकाश, पाताल, स्वर्ग, समुद्र, लोकपालों के पास दौड़े। लेकिन सुदर्शन चक्र हर जगह उनके पीछे-पीछे पहुँच गया। उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिली। थक-हारकर दुर्वासाजी ब्रह्माजी के पास गए और बोले, "भगवन! आप सबके रचयिता हैं, मेरी रक्षा कीजिए!" 

लेकिन ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर कहा,"जब मेरी आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सष्टिलीला समेटने लगेंगे और इस जगतको जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंगमात्रसे यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा। मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमोंमें बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसारका हित करते हैं, (उनके भक्तके द्रोहीको बचानेके लिये हम समर्थ नहीं हैं)।"

अब दुर्वासाजी कैलास गये और महादेवजी से रक्षा की प्रार्थना की। शिवजी ने कहा,"दुर्वासाजी! मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिलदेव, तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर—ये हम सभी भगवान्की मायाको नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी मायाके घेरेमें हैं। यह चक्र उन विश्वेश्वरका शस्त्र है। यह हमलोगोंके लिये असह्य है। तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। वे भगवान् ही तुम्हारा मंगल करेंगे।"

जब भगवान ने कहा – 'मैं भक्त के वश में हूँ'

थककर, निराश होकर और बहुत डर के साथ दुर्वासाजी भगवान के परमधाम वैकुण्ठ पहुँचे। वे उस समय सुदर्शन चक्र की अग्नि से जल रहे थे। काँपते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने करुण भाव से प्रार्थना की,"हे अच्युत! हे अनंत प्रभु! मैं आपका अपराधी हूँ। मैंने आपके प्यारे भक्त अम्बरीष का अपमान किया, लेकिन अब मुझे क्षमा कीजिए। आप तो उस परम करुणामय प्रभु हैं, जिनके नाम मात्र से भी नरक में गिरे जीव मुक्त हो जाते हैं।"
श्रीभगवानुवाच
अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतंत्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥
श्रीभगवान्ने कहा- दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे। (भागवत 9.4.63)

ब्रह्मन्! अपने भक्तोंका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मीको।
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तान् त्यक्तुमुत्सहे ॥
जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक-सबको छोड़कर केवल मेरी शरणमें आ गये हैं, उन्हें छोड़नेका संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? (भागवत 9.4.65)

जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पति को अपने प्रेम और सेवा से वश में कर लेती है, वैसे ही जो समदर्शी साधु और अनन्य प्रेमी भक्त होते हैं, वे मुझे अपने प्रेम के बंधन में बाँध लेते हैं। मेरे सच्चे भक्त सेवा को ही सबकुछ मानते हैं। अगर उन्हें मेरी सेवा के फलस्वरूप सालोक्य, सारूप्य जैसी मुक्तियाँ भी मिलें, तो वे उन्हें भी स्वीकार नहीं करते तो फिर इस संसार की नाशवान चीज़ों की तो बात ही क्या!"

"दुर्वासाजी! मैं क्या कहूँ? मेरे भक्त मेरे हृदय हैं और मैं उनके हृदय में हूँ। वे मेरे सिवा और कुछ नहीं जानते और मैं भी उनके सिवा किसी को नहीं जानता। अब एक उपाय बताता हूँ, आप राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी।"

जब भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी तब सुदर्शन चक्रकी ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ लिये। यह लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान्के चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था।

अम्बरीषजी ने कहा कि यदि उन्होंने कभी निष्काम दान किया हो, भगवान को सब प्राणियों के आत्मा के रूप में देखा हो, या यदि भगवान उनसे प्रसन्न हों तो उनके पुण्य से दुर्वासाजी की पीड़ा शांत हो जाए।

जब राजा अम्बरीषने सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे।

दुर्वासाजी कहते हैं कि “धन्य हैं आप, महाराज अम्बरीष! आज मुझे भगवान के भक्तों की महिमा का साक्षात अनुभव हुआ। मैंने आपका अपमान किया, फिर भी आपने मेरे लिये केवल कल्याण की भावना रखी। जो व्यक्ति श्रीहरि के चरणों में दृढ़ प्रेम रखते हैं, उनके लिये कोई कार्य असंभव नहीं है। भगवान के नाम का श्रवण ही जीव को पवित्र कर देता है, और जो व्यक्ति ऐसे भगवत्पाद के दास हैं, उनका जीवन सफल हो चुका होता है। उन्हें संसार में और कुछ सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रहती। अंत में दुर्वासाजी भावविभोर होकर कहा कि आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है!”

श्रीशुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं की जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये।

अब उन्होंने आदरसे कहा, "राजन्! अब आप भी भोजन कीजिये। अम्बरीष! आप भगवानके परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मनको भगवानकी ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ। स्वर्गकी देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी।"

दुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर ब्रह्मलोककी यात्रा की। जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भागे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष केवल जल पीकर ही रहे।

राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे भगवानमें भक्तिभावकी अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्तिके प्रभावसे उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगोंको नरकके समान समझा । तदनन्तर राजा अम्बरीषने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आत्मस्वरूप भगवान्में अपना मन लगाकर गुणोंके प्रवाहरूप संसारसे मुक्त हो गये। 

श्रीशुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं, "महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है।"

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 04.08.2025