श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 6-7
श्री शुकदेवजी ने कहा की अम्बरीष के तीन पुत्र थे: विरूप, केतुमान और शम्भु। विरूप से पृषदश्व, और उससे रथीतर उत्पन्न हुआ। रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्पराकी रक्षाके लिये उसने अंगिरा ऋषिसे प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नीसे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये। यद्यपि ये सब रथीतरकी पत्नीसे उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतरका था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियोंके प्रवर (कुलमें सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे-क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रोंसे इनका सम्बन्ध था।
एक बार मनुजी के छींकने पर, उनकी नाक से ‘इक्ष्वाकु’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु के 100 पुत्र हुए, जिनमें तीन प्रमुख थे: विकुक्षि, निमि और दण्डक। बाकी में से- 25 पूर्व भारत (आर्यावर्त) के शासक बने, 25 पश्चिम भारत के, और ऊपर के तीन मध्य भारत के। शेष 47 पुत्र दक्षिण और अन्य प्रान्तों के अधिपति बने।
एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्र विकुक्षि से कहा श्राद्ध के लिए आवश्यक सामग्री एकत्र करके शीघ्र लौटो। वीर विकुक्षि आज्ञा पाकर वन की ओर गया और श्रद्धा से सारी सामग्री एकत्र की। यात्रा में उसे भूख और थकान तो हो ही गई थी, और उसने असावधानीवश श्राद्ध में प्रयोग के लिए एकत्रित किया हुआ उन्ही सामग्री में से कुछ खा लिया।
जब वह लौटा और सारी सामग्री अपने पिता को दी, तो राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरु से पूजन-सामग्री की शुद्धता की परीक्षण करवाई। गुरु वसिष्ठजी ने ध्यान से देखकर बताया कि सामग्री में अशुद्धता आ गई है, अतः वह श्राद्ध के योग्य नहीं रही।
यह सुनकर राजा इक्ष्वाकु को बहुत दुख हुआ। उन्होंने शास्त्रविहित विधि का उल्लंघन करने वाले अपने पुत्र को राज्य से बाहर भेज दिया। इसके पश्चात राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरु वसिष्ठजी से ज्ञान चर्चा की, फिर ध्यान और योग के द्वारा शरीर का त्याग करके परम पद प्राप्त किया।
पिताका देहान्त हो जानेपर विकुक्षि अपनी राजधानीमें लौट आया। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्की आराधना की और संसारमें शशादके नामसे प्रसिद्ध हुआ। विकुक्षिके पुत्रका नाम था पुरंजय। उसीको कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं।
सत्ययुगके अन्तमें देवताओंका दानवोंके साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्योंसे हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजयको सहायताके लिये अपना मित्र बनाया। पुरंजयने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परन्तु स्वयं भगवान विष्णु की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये।
भगवान विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरंजयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद (डील)-के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओंको साथ लेकर उन्होंने पश्चिमकी ओरसे दैत्योंका नगर घेर लिया।
वीर पुरंजय का दैत्यों से अत्यंत घोर संग्राम हुआ। जो भी दैत्य उनके सामने आया, उन्होंने अपने तीव्र बाणों से उसका अंत कर दिया। दैत्यों का साहस टूट गया और वे युद्धभूमि छोड़कर अपने-अपने घरों में छिप गए। पुरंजय ने दैत्यों का नगर, धन और ऐश्वर्य जीतकर इन्द्र को समर्पित कर दिया।
इसी कारण वे कई नामों से प्रसिद्ध हुए:
- ‘पुरंजय’ — क्योंकि उन्होंने दैत्यों की ‘पुरी’ (नगर) जीत ली,
- ‘इन्द्रवाह’ — क्योंकि युद्ध के समय इन्द्र उनके वाहन बने,
- और ‘ककुत्स्थ’ — क्योंकि वे बल के कंधे (ककुद्) पर स्थित रहे।
पुरंजयका पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुके विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्रके युवनाश्व।
युवनाश्वके पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्तके बृहदश्व और उसके कुवलयाश्वहुए। ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया। इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे- दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्वा। दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भका जन्म हुआ । निकुम्भ से बर्हणाश्व, उनसे कृशाश्व, उनसे सेनजित, और सेनजित से युवनाश्व नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
युवनाश्व संतानहीन थे, जिससे वे अत्यंत दुखी रहते थे। वे अपनी सौ रानियों सहित वन में चले गए और वहां ऋषियों की शरण ली। ऋषियों ने करुणा पूर्वक इन्द्रदेवता का एक विशेष यज्ञ कराया, जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो सके।
एक रात राजा युवनाश्व को अत्यधिक प्यास लगी। वे यज्ञशाला में पहुँचे और देखा कि ऋषिगण सो रहे हैं। जल की व्यवस्था न देखकर उन्होंने वही जल पी लिया जो यज्ञ के लिए मंत्रों से अभिमंत्रित किया गया था, और जो संतान प्राप्ति हेतु रखा गया था।
जब सुबह ऋषि उठे और देखा कि कलश खाली है, तो आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे, "यह संतान देने वाला पवित्र जल किसने पी लिया?" आखिर पता चला कि भगवान की प्रेरणा से स्वयं राजा युवनाश्व ने वह जल पी लिया है। तब सभी ऋषियों ने भगवान को प्रणाम किया और कहा, "धन्य है! भगवान का बल ही सच्चा बल है।" कुछ समय पश्चात, जब प्रसव का समय आया, तो राजा युवनाश्व की दाहिनी कोख से एक दिव्य चक्रवर्ती पुत्र जन्मा।
उसे रोते देख ऋषियोंने कहा-‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा?’ तब इन्द्रने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी अंगुली उसके मुँहमें डाल दी। ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे युवनाश्वकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया।
इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे। मान्धाता (त्रसद्दस्यु) एक तेजस्वी और चक्रवर्ती सम्राट बने। वे भगवान के तेज से सम्पन्न थे और उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपों वाली पूरी पृथ्वी पर राज्य किया। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का पूरा भूभाग मान्धाता के अधीन था।
उनकी पत्नी बिन्दुमती से तीन पुत्र हुए — पुरुकुत्स, अम्बरीष (यह एक अन्य अम्बरीष हैं), और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें भी थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया।
सौभरि ऋषि के पतन की कथा
परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है। उस एक क्षण के कुसंग से सौभरि ऋषि के मन में भी इस सुखको भोगने का लालसा आती है। इसके लिए वह मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या को माँगते हैं। राजाने कहा-‘ब्रह्मन्! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’।
सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा, “राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है! अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती। अच्छी बात है! मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवांगनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।” ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया।
फिर क्या था, अन्तःपुरके रक्षकने सौभरि मुनिको कन्याओंके सजे-सजाये महलमें पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया। ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। अपने गहन तपोबल के प्रभाव से उन्होंने सुंदर महल, उपवन, जलाशय, सुगंधित पुष्प, कीमती वस्त्राभूषण, स्वादिष्ट भोजन, सेवक-सेविकाएं, गीत-संगीत आदि से भरा अत्यंत ऐश्वर्यशाली और भोगमयी गृहस्थी को बना लिया। सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा।
इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूँदों से आग नहीं बुझती, वैसे ही अनंत विषयों के भोग से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ।
सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्तसे बैठे हुए थे। वे सोचने लगे, "अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मेरा यह अधःपतन तो देखो! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परन्तु जलके भीतर विहार करती हई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया।
अतः जिसे मोक्षकी इच्छा है, उसे चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका संग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोंको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको भगवान्में ही लगा दे। यदि संग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान्के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही संग करे।"
इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें ही रहे और फिर विरक्त होकर वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियोंने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की।
वहाँ सौभरिजीने बडी घोर तपस्या की और अपने आपको परमात्मामें लीन कर दिया। उनकी पत्नियोंने भी पति का ही अनुसरण किया।
श्री शुकदेवजी ने आगे परीक्षित को कहा की मान्धाता के सबसे श्रेष्ठ पुत्र अम्बरीष थे। उनके वंश में यौवनाश्व और हारीत जैसे तेजस्वी राजा हुए। एक अन्य पुत्र पुरुकुत्स से नागों ने अपनी बहन नर्मदा का विवाह कराया। वह नर्मदा उन्हें नागलोक ले गई जहाँ उन्होंने गन्धर्वों का वध किया। इस पर नागराज वासुकी ने वरदान दिया कि जो इस प्रसंग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से भयमुक्त रहेगा।
पुरुकुत्स से त्रसद्दस्यु, फिर अनरण्य, फिर हर्यश्व, अरुण, त्रिबन्धन। त्रिबन्धनके पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशंकुके नामसे विख्यात हए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्रजीके प्रभावसे वे सशरीर स्वर्गमें चले गये। देवताओंने उन्हें वहाँसे ढकेल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाशमें लटके हुए दीखते हैं।
राजा हरिश्चन्द्र, वरुण देव का यज्ञ और रोहित-शुनःशेप की कथा
सत्यव्रत (त्रिशंकु) के पुत्र हुए राजा हरिश्चन्द्र। उनका कोई संतान नहीं थी, जिससे वे अत्यन्त खिन्न रहते थे। देवर्षि नारद के उपदेश से उन्होंने वरुण देव की शरण ली और उनसे प्रार्थना की कि यदि मुझे पुत्र की प्राप्ति हो, तो मैं उसी के द्वारा आपका यज्ञ करूँगा।
वरुण देव की कृपा से हरिश्चन्द्र को एक तेजस्वी पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गया रोहित। पुत्र जन्म के पश्चात जब वरुण देव यज्ञ की अपेक्षा करने लगे, तो राजा हरिश्चन्द्र बार-बार यज्ञ को टालते रहे।
पहले कहा—"यह शिशु अभी दस दिन का भी नहीं हुआ", फिर कहा—"दाँत आ जाएँ तब", "दूध के दाँत गिर जाएँ तब", "स्थायी दाँत आ जाएँ तब", और अन्त में कहा—"जब यह कवच धारण करने लगेगा, तब यज्ञ के योग्य होगा।"
इस प्रकार राजा पुत्र-स्नेह में समय टालते रहे और यज्ञ नहीं कर सके। जब रोहित को यह ज्ञात हुआ कि पिताजी मुझे यज्ञ में समर्पित करना चाहते हैं, तो वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए धनुष लेकर वन में चला गया।
कुछ समय पश्चात जब उसे पता चला कि वरुण देव कुपित होकर पिताजी को महोदर रोग दे चुके हैं, तो वह नगर लौटने चला। किन्तु मार्ग में इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया और कहा की यज्ञ-पशु बनकर मरने से तीर्थों में विचरण करना अधिक श्रेयस्कर है। इस प्रकार इन्द्र हर वर्ष किसी वृद्ध ब्राह्मण का वेष धारण कर रोहित को रोकते रहे, और रोहित छः वर्षों तक वन में ही रहा।
सातवें वर्ष जब वह लौट रहा था, तब उसने अजीगत नामक ब्राह्मण के मझले शुनःशेप को मूल्य देकर खरीदा और अपने स्थान पर यज्ञ के लिए पिताजी को समर्पित किया।
इसके पश्चात राजा हरिश्चन्द्र को महोदर रोग से मुक्ति मिली और उन्होंने यज्ञ द्वारा वरुण तथा अन्य देवताओं की पूजा की। (कुछ अन्य ग्रंथों में यह वर्णन मिलता है कि ऋषि विश्वामित्र के मार्गदर्शन में शुनःशेप ने ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ किया, जिससे वरुणदेव और अन्य देवता प्रसन्न हुए और उसको मुक्त कर दिया गया।)
यज्ञ सम्पन्न होने पर इन्द्र प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को स्वर्ण-रथ प्रदान करते हैं। यज्ञ के उपरान्त जब ऋषि विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को अपनी धर्मपत्नी के साथ सत्य में अडिग देखा, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें अविनाशी ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 08.08.2025