Log in
English

68- वामन रूप में विष्णु का प्राकट्य और बलि से तीन पग भूमि की याचना

Jul 24th, 2025 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 18-20

श्री शुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं कि जब अदिति को यह ज्ञात हुआ कि स्वयं भगवान उनके गर्भ से प्रकट होंगे, तो उन्होंने स्वयं को अत्यंत धन्य और कृतकृत्य अनुभव किया। वे प्रेमपूर्वक अपने पति कश्यपजी की सेवा में लग गईं। कश्यपजी समाधिस्थ और सत्यदर्शी थे। उन्होंने योगबल से जान लिया कि भगवान का अंश अदिति के गर्भ में प्रविष्ट हो चुका है। उन्होंने चित्त को एकाग्र करके तपस्या द्वारा अपने संचित तेज का अदिति में स्थापन किया, जैसे वायु लकड़ी में अग्नि की स्थापना करती है।

तब जन्म-मृत्यु से परे भगवान, अदिति के समक्ष अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए। वे चार भुजाओं से युक्त थे और उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल विराजमान थे। उनका श्यामवर्ण शरीर, कमल के समान कोमल और विशाल नेत्र थे। वक्ष पर श्रीवत्स का चिन्ह था, हाथों में कंगन और बाजूबंद, सिर पर किरीट, कमर में करधनी की लड़ियाँ और चरणों में जगमगाते नूपुर उनकी शोभा को और बढ़ा रहे थे।

भगवान वामन का यह दिव्य अवतार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को, श्रवण नक्षत्र और अभिजित मुहूर्त में हुआ। यह तिथि ‘विजया द्वादशी’ के नाम से जानी जाती है। उस समय सूर्य आकाश के मध्य में स्थित थे और समस्त नक्षत्र एवं तारे इस दिव्य जन्म को मंगलमय बना रहे थे। भगवान के प्राकट्य के साथ ही शंख, मृदंग, नगाड़े आदि वाद्ययंत्र गूंज उठे। अप्सराएं नृत्य करने लगीं, गंधर्व गाने लगे, और देवता, मुनि, पितर आदि स्तुति करने लगे। समस्त दिव्य और अधिदैविक लोकों में आनंद की लहर दौड़ गई, और अदिति के आश्रम पर पुष्पवर्षा होने लगी।

जब अदिति ने अपने गर्भ से स्वयं परमात्मा को प्रकट होते देखा, तो वे आश्चर्य और परमानंद से भर गईं। कश्यपजी भी भगवान को योगमाया से युक्त दिव्य रूप में देखकर विस्मित हो गए और ‘जय हो! जय हो!’ कह उठे। भगवान मूलतः अव्यक्त चिदानंदरूप हैं, पर अपनी लीला से वे जब चाहें, साकार हो जाते हैं। उन्होंने चार भुजाओं वाले तेजस्वी रूप से प्रकट होकर, अदिति और कश्यप के समक्ष तुरंत ही वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया, जैसे कोई नट अपना वेष बदल ले।

भगवान जब वामन ब्रह्मचारी के रूप में प्रकट हुए, तो महर्षियों को अत्यन्त आनंद हुआ। उन्होंने कश्यप प्रजापति को आगे करके भगवान के जातकर्म और उपनयन जैसे वैदिक संस्कार कराए। उपनयन के समय उपस्थित सभी ने उन्हें दिव्य वस्तुएँ उपहार स्वरूप अर्पित कीं।
  • कश्यप-  मेखला (कमरबंद) प्रदान की।
  • देवगुरु बृहस्पति- वामन भगवान को यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाया।
  • सविता देवता- स्वयं उपस्थित होकर भगवान को गायत्री मंत्र का उपदेश दिया।
  • पृथ्वी देवी- वामन ब्रह्मचारी वेष के लिए कृष्णमृगचर्म प्रदान की।
  • चन्द्रदेव- भगवान को दण्ड अर्पित की।
  • माता अदिति- अपने पुत्र को ब्रह्मचारी रूप के लिए कौपीन और कटिवस्त्र समर्पित किए।
  • आकाश के अधिष्ठाता देवता- भगवान के लिए छत्र भेंट किया।
  • ब्रह्मा जी- वामन ब्रह्मचारी को कमण्डलु प्रदान किया।
  • सप्तर्षि गण- यज्ञ कार्य हेतु पवित्र कुश समर्पित किए।
  • सरस्वती देवी- भगवान को रुद्राक्ष की माला अर्पित की।
  • यक्षराज कुबेर- भगवान को भिक्षा पात्र दिया।
  • जगज्जननी भगवती उमा- स्वयं उपस्थित होकर वामन ब्रह्मचारी को भिक्षा प्रदान की।
इस प्रकार जब सभी लोगों ने वट्वेषधारी भगवान का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियों से भरी हुई सभा में अपने ब्रह्मतेज के कारण अत्यन्त शोभायमान हो उठे। इसके बाद भगवान ने अग्नि को स्थापित और प्रज्वलित किया, फिर चारों ओर कुश बिछाकर विधिपूर्वक पूजा की और समिधाओं से हवन किया।

उसी समय भगवान ने सुना कि राजा बलि, भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘भृगुकच्छ’ नाम का एक सुंदर स्थान है। वहीं बलि के भृगुवंशी ऋत्विज श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। जब उन लोगों ने दूर से वामन भगवान को आते देखा, तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो साक्षात सूर्यदेव का उदय हो रहा हो।

भगवान के तेज से यजमान, ऋत्विज और मंडप के सभी सदस्य निस्तेज हो गए और सोचने लगे कि शायद अग्नि, सूर्य या सनत्कुमार यज्ञ दर्शन के लिए पधारे हों। उसी समय भगवान वामन, छत्र, दण्ड और कमण्डलु लेकर यज्ञ मंडप में प्रवेश करते हैं। उनकी कमर में मेखला, गले में यज्ञोपवीत, बगल में मृगचर्म और सिर पर जटाएं थीं। बौने ब्राह्मण के वेष में वे इतने तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे कि उन्हें देखकर सभी भृगुवंशी ब्राह्मण अपने शिष्यों सहित खड़े हो गए और आदरपूर्वक उनका स्वागत करने लगे।

भगवान के लघु रूप के सभी अंग छोटे, सुंदर और अत्यंत मनोहर थे। राजा बलि ने उन्हें देखकर प्रसन्नतापूर्वक उन्हें उत्तम आसन प्रदान किया, उनके चरण धोए और श्रद्धा-भाव से पूजा की। फिर उन्होंने कहा, “ब्राह्मणकुमार! आपका आगमन मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है। आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ब्रह्मर्षियों की तपस्या मूर्त रूप धारण करके मेरे द्वार पर आ पहुंची है। आज मेरे पितर तृप्त हुए, मेरा वंश पवित्र हुआ और यह यज्ञ सफल हो गया। आपके चरणों के स्पर्श से जो पुण्य प्राप्त हुआ है, वह यज्ञ और हवन से भी दुर्लभ है। ऐसा लगता है कि आप कुछ मांगने पधारे हैं। हे पूज्य ब्रह्मचारी! आप जो भी चाहें — गाय, सोना, धान्य, कन्या, गांव, घोड़े, हाथी, रथ — सब कुछ मुझसे निःसंकोच मांग लीजिए।”

श्री शुकदेवजी कहते हैं कि राजा बलि के धर्मयुक्त और मधुर वचनों को सुनकर भगवान वामन प्रसन्न हो गए और बोले, “राजन्! आपने जो कहा, वह आपके कुल की महान परंपरा के अनुरूप है। आप धर्म के विषय में शुक्राचार्य जैसे ज्ञानी को प्रमाण मानते हैं और प्रह्लाद की आज्ञा का पालन करते हैं। आपके वंश में कोई भी कभी दान से पीछे नहीं हटा और न ही युद्ध से विमुख हुआ। इस वंश में प्रह्लाद जैसे महान भक्त, हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु जैसे परम वीर उत्पन्न हुए। आपके पिता विरोचन भी ब्राह्मणों के प्रति इतने श्रद्धालु थे कि जब शत्रु देवताओं ने ब्राह्मण का रूप धरकर उनसे आयु माँगी, तो उन्होंने जानते हुए भी उन्हें अपनी आयु अर्पित कर दी। आप भी उसी धर्मपथ पर अग्रसर हैं, जिस पर प्रह्लाद, शुक्राचार्य और अन्य यशस्वी पूर्वज चले हैं।”

इतना कहकर भगवान वामन कहते हैं,
पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम॥
"दैत्येन्द्र! आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं। आप सर्वस्वदाता हैं, फिर भी मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूँ। क्योंकि विवेकी पुरुष उतना ही दान स्वीकार करता है, जितना आवश्यकता हो; इससे वह प्रतिग्रह से होनेवाले पाप से बच जाता है।"

बलि ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, "ब्रह्मचारी! तुम जैसे तो बोल रहे हो, वैसे तो किसी वृद्ध ऋषि-जैसे लगते हो, पर बुद्धि अभी बालक की है। तुम्हें लाभ-हानि का ज्ञान नहीं। मैं तो तीनों लोकों का स्वामी हूँ, तुम मुझसे सिर्फ तीन पग भूमि मांग रहे हो? कोई बुद्धिमान ऐसा क्यों करेगा?"

"जो एक बार मेरे पास मांगने आए, उसे फिर कभी किसी और से कुछ मांगने की ज़रूरत न पड़े, ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिए अपनी आवश्यकता भर जितनी भूमि हो, निःसंकोच मांगो।"

भगवान ने गम्भीरता से उत्तर दिया, "राजन्! यदि कोई व्यक्ति इन्द्रियों को वश में नहीं रखता, तो तीन पग क्या, पूरे नौ वर्ष (जंबू द्वीप के नौ वर्ष) भी मिलें, तो भी तृष्णा मिटती नहीं। पृथु और गय जैसे राजाओं ने सातों द्वीप (भूलोक के सप्तद्वीप) भोगे, पर संतोष न मिला।"

"वास्तव में जो प्रारब्ध से मिला है, उसी में संतुष्ट रहने वाला ही सुखी रहता है। जो असंतुष्ट है, वह तीनों लोकों का राज्य पाकर भी व्यथित रहता है, क्योंकि उसका मन हमेशा कुछ और चाहता रहता है। असंतोष ही बार-बार जन्म लेने का कारण बनता है, जबकि संतोष ही मोक्ष का मार्ग है।"

"ब्राह्मण का तेज संतोष से बढ़ता है, और असंतोष से बुझ जाता है जैसे जल से अग्नि। इसलिए, हे दानवीर! मुझे तीन पग भूमि ही दीजिए- उतना ही धन पर्याप्त है, जितना आवश्यक हो।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-भगवान्के इस प्रकार कहनेपर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा, “अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।” यों कहकर वामन भगवानको तीन पग पृथ्वीका संकल्प करनेके लिये उन्होंने जलपात्र उठाया।

शुक्राचार्यजी को भगवान की लीला भलीभांति ज्ञात थी। उन्होंने जब देखा कि राजा बलि पृथ्वी दान करने को तैयार हो रहा है, तो तुरंत चेताया, “विरोचनकुमार! यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, स्वयं अविनाशी भगवान विष्णु हैं, जो देवताओं की सहायता हेतु अदिति के गर्भ से प्रकट हुए हैं। तुमने यह न जानकर इन्हें दान देने की प्रतिज्ञा कर ली है, जबकि यह सब कुछ तुमसे छीन लेंगे। यह दैत्यों पर अन्याय है!”

वे बोले, “ये ब्रह्मचारी रूप में स्वयं भगवान श्री हरि हैं, यह तुम्हारा राज्य, धन, यश और लक्ष्मी सब कुछ इन्द्र को सौंप देंगे। ये विश्वरूप भगवान हैं, तीन पगों में समस्त लोकों को नाप लेंगे। जब तुम सब कुछ इन्हें दे दोगे, तो स्वयं जीवन कैसे चलाओगे? यह प्रतिज्ञा निभाना असंभव होगा और तुम्हें नरक जाना पड़ेगा।”

शुक्राचार्यजी ने दान का तरीका समझाते हुए कहा, “विद्वान वही दान करते हैं जो जीवन निर्वाह के बाद भी बचा रहे। मनुष्य को अपने धन को पांच भागों में बांटना चाहिए- धर्म, यश, वृद्धि, भोग और स्वजनों के लिए। तभी वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी रहता है।”

फिर उन्होंने ऋग्वेद की श्रुतियों का संदर्भ देते हुए बलि को एक गहरी बात समझाई, “हर समय ‘हाँ’ कहना उचित नहीं। कभी-कभी ‘न’ कहना जीवन की रक्षा करता है। हास्य में, स्त्री को प्रसन्न करने में, विवाह या मृत्यु संकट जैसे अवसरों पर असत्य भी निंदनीय नहीं होता।”

जब कुलगुरु शुक्राचार्यजी ने यह सब कहा, तब राजा बलि अत्यंत विनयपूर्वक बोले, “भगवन्! आपने जो धर्म का स्वरूप बताया, वह निस्संदेह सत्य है। गृहस्थ के लिए वही आचरण श्रेयस्कर है, जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविका में बाधा न आए। परंतु गुरुदेव! मैं प्रह्लाद का पौत्र हूं। मैंने एक बार वचन दे दिया है, अब लोभवश इस ब्राह्मण से कैसे कह दूं कि 'नहीं दूंगा'? यह तो ठग जैसा आचरण होगा।”

“मुझे नरक, दरिद्रता, दुःख, राज्य-हानि और मृत्यु से उतना भय नहीं जितना कि ब्राह्मण को वचन देकर मुकर जाने से है। जो वस्तुएं मृत्यु के बाद साथ नहीं जातीं तो उस संपत्ति का मूल्य ही क्या? दधीचि, शिबि जैसे महापुरुषों ने अपने प्राण तक दान कर दिए, तो फिर पृथ्वी जैसे पदार्थ देने में क्या संकोच?”

“गुरुदेव! पूर्वकाल में भी अनेक दैत्यराजों ने पृथ्वी का भोग किया, पर अंततः वे काल के ग्रास बन गए। फिर भी उनका यश आज तक अमिट है। इस धरती पर अनेक वीर युद्धभूमि में अपने प्राणों का बलिदान कर देते हैं, परंतु जो श्रद्धा और विवेकपूर्वक किसी सत्पात्र को दान देता है, वह अत्यंत दुर्लभ होता है।”

“यदि कोई करुणाशील दाता भूलवश अपात्र को भी दान दे बैठता है और संकट में पड़ता है, तब भी उसका त्याग प्रशंसनीय माना जाता है। फिर यदि ब्रह्मवेत्ता के रूप में स्वयं पधारे इस ब्राह्मण को दान देने से मुझे कोई कष्ट भी हो, तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा।”

“चाहे ये विष्णु ही क्यों न हों, या कोई और, मैं इन्हें इनकी इच्छा अनुसार पृथ्वी अर्पित करूंगा। यदि मैंने कोई अपराध न किया हो, और फिर भी ये मुझे अधर्मपूर्वक बाँधें, तब भी मैं इनके लिए कोई अनिष्ट नहीं चाहूंगा, क्योंकि ये भगवान स्वयं याचक रूप में मेरे द्वार पर आए हैं। यदि ये वास्तव में वरदानी विष्णु हैं, तो ये अपनी यश को अक्षुण्ण रखने के लिए दान लेकर ही लौटेंगे। और यदि ये कोई अन्य हैं, तो युद्ध में मेरे बाणों से मृत्यु को प्राप्त होंगे।”

इतना कहकर राजा बलि ने भगवान वामन को तीन पग पृथ्वी देने का दृढ़ संकल्प कर लिया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 21.07.2025