श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 1-3
राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से विनम्रता से कहा, "भगवन! आपने सभी मन्वंतर और उनमें भगवान द्वारा की गई अद्भुत लीलाओं का वर्णन किया। आपने बताया कि पिछले कल्प के अंत में राजा सत्यव्रत ने भगवान की सेवा से ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्प में वैवस्वत मनु बने। आपने उनके पुत्रों जैसे इक्ष्वाकु आदि का भी उल्लेख किया। अब कृपा करके मुझे वैवस्वत मनु के वंशजों के बारे में बताइए-जो हो चुके हैं, जो अभी जीवित हैं और जो भविष्य में होंगे।”
श्री शुकदेवजी ने कहा, “प्रलय के समय केवल वही परम पुरुष परमात्मा थे, बाकी कुछ भी नहीं था। उन्हीं की नाभि से एक सुनहरा कमल प्रकट हुआ, जिसमें चतुर्मुख ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी के मन से मरीचि हुए, मरीचि से कश्यप, और कश्यप की पत्नी अदिति से सूर्य (विवस्वान) का जन्म हुआ।
विवस्वान की पत्नी संज्ञा से श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत मनु) पैदा हुए। राजा मनु ने अपनी पत्नी श्रद्धा से दस पुत्रों को जन्म दिया— इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि।
मनुपुत्री इला जिसको वसिष्ठ मुनि ने स्त्री से पुरुष में बदल दिया
वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। तब उनके गुरु वसिष्ठजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए मित्रवरुण यज्ञ कराने को कहा। यज्ञ के प्रारम्भ में मनु की पत्नी श्रद्धा ने यज्ञ के होता (यज्ञ के दौरान मंत्रों का पाठ करने वाले पुरोहित) से प्रार्थना की कि वह एक कन्या चाहती हैं। होता ने यह बात ध्यान में रखते हुए मंत्र पढ़े और आहुति दी। फलस्वरूप, पुत्र की जगह इला नाम की कन्या उत्पन्न हुई। मनु को यह देखकर खुशी नहीं हुई। उन्होंने वसिष्ठजी से पूछा कि जब सब कुछ ठीक किया गया था, तो ऐसा उल्टा फल कैसे मिला। वसिष्ठजी ने वचन दिया कि वे अपनी तपस्या के बल से उन्हें एक श्रेष्ठ पुत्र देंगे। इसके लिए वसिष्ठजी ने भगवान नारायण की स्तुति की। नारायण ने प्रसन्न होकर वर दिया और उसी इला कन्या को एक श्रेष्ठ पुत्र सुद्युम्न में बदल दिया।
स्त्री से पुरुष बने सुद्युम्न का पुनः इला बन जाना
एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलने के लिए सिंधु देश के घोड़े पर सवार होकर अपने मंत्रियों के साथ उत्तर दिशा की ओर वन में चले गए। वे धनुष-बाण से सज्जित होकर हिरनों का पीछा करते-करते मेरु पर्वत के पास एक वन में पहुंच गए जहाँ भगवान शिव पार्वतीजी के साथ विहार करते हैं।
जैसे ही वे उस वन में प्रवेश करते हैं, सुद्युम्न स्त्री बन जाते हैं, उनका घोड़ा घोड़ी बन जाता है, और उनके साथ गए सभी मंत्री भी स्त्रियाँ बन जाते हैं। यह देखकर वे सब घबरा जाते हैं और एक-दूसरे का चेहरा देखने लगते हैं, सबका मन उदास हो जाता है।
यह सुनकर राजा परीक्षित को बहुत आश्चर्य होता है और वे पूछते हैं, "भगवन्! उस स्थान में यह विचित्र शक्ति कैसे आ गई? कौन है जिसने इस वन को ऐसा बना दिया? कृपा करके इसका कारण बताइए, क्योंकि हमें जानने की बड़ी उत्सुकता है।"
श्री शुकदेवजी ने कहा की एक बार कुछ तेजस्वी ऋषिगण भगवान शंकर के दर्शन के लिए उस वन में गए, जहां वे पार्वतीजी के साथ विहार कर रहे थे। उस समय पार्वतीजी वस्त्रहीन थीं। ऋषियों को अचानक आता देख वे लज्जित होकर तुरंत वस्त्र पहन लेती हैं। ऋषियों ने देखा कि भगवान शिव पार्वतीजी के साथ हैं, इसलिए वे वहां से लौटकर नर-नारायण के आश्रम चले गए। उस घटना के बाद, शिवजी ने पार्वतीजी को प्रसन्न करने के लिए वरदान दिया, "अब से इस स्थान में जो भी पुरुष प्रवेश करेगा, वह स्त्री बन जाएगा।"
इला को देख बुध का मोहित हो जाना
तभी से कोई पुरुष उस वन में नहीं जाता। चूंकि सुद्युम्न उस वन में चले गए थे, इसलिए वे स्त्री बन गए और अपने स्त्रीरूप साथियों के साथ वन-वन भटकने लगे। ऐसे में एकबार चन्द्रदेव के पुत्र बुध ने उन्हें देखा। वे उस सुंदर स्त्री से आकर्षित हो गए और उसे पत्नी बनाना चाहा। स्त्रीरूप सुद्युम्न (इला) ने भी बुध को पति रूप में स्वीकार किया। उनके संयोग से पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। बाद में, सुद्युम्न ने अपने कुलगुरु वसिष्ठजी को स्मरण किया।
वसिष्ठजी को जब यह स्थिति पता चली, तो उन्होंने भगवान शिव की आराधना की। जिसपर भगवान शिव वरदान दिया, “सुद्युम्न एक माह पुरुष रहेंगे और एक माह स्त्री। इसी प्रकार वे राज्य का पालन करें।” सुद्युम्न फिर से पुरुष बनकर राज्य चलाने लगे। परंतु चूंकि उनकी स्थिति विशेष थी, प्रजा उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
सुद्युम्न के तीन पुत्र हुए- उत्कल, गय और विमल, जो दक्षिण भारत के राजा बने। अंत में वृद्ध होने पर सुद्युम्न ने राज्य अपने पुत्र पुरूरवा को सौंप दिया और वन में तपस्या के लिए चले गए। जब सुद्युम्न तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये, तब वैवस्वत मनुने पुत्रकी कामनासे यमुनाके तटपर सौ वर्षतक तपस्या की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिनमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे।
मनु के पुत्रों का वंश वर्णन
मनुपुत्रों में एक थे पृषध्र। उनके गुरु वसिष्ठजी ने उन्हें गायों की रक्षार्थ रात्रि प्रहरी नियुक्त किया था। पृषध्र हर रात पूरी निष्ठा से गोशाला की रक्षा करते थे। एक रात तेज़ बारिश हो रही थी। उसी समय एक बाघ गोशाला में घुस आया। गायें डरकर भागने लगीं। बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। गाय की चीख सुनकर पृषध्र तलवार लेकर दौड़े। रात का अंधेरा घना था, कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने जिसे बाघ समझा, उसी पर जोर से वार किया। लेकिन अज्ञानवश गाय का ही सिर काट दिया। बाघ का कान ज़रूर कट गया और वह डरकर भाग गया।
सुबह जब पृषध्र को अपनी गलती का पता चला, तो वे बहुत दुखी हुए। भले ही यह गलती अनजाने में हुई, फिर भी वसिष्ठजी ने उन्हें शाप दिया, “तुम क्षत्रिय नहीं रहोगे।” पृषध्र ने गुरु का शाप विनम्रता से स्वीकार किया और फिर आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने लगे।
वे सभी जीवों के निःस्वार्थ हितैषी बने, भक्तियोग से भगवान वासुदेव के अनन्य प्रेमी बन गए, पूरी तरह वैराग्ययुक्त, संतुष्ट और समाधिस्थ हो गए, संग्रह नहीं करते, जो मिले उसी से जीवन यापन करते। वे कभी किसी जड़, बहरे और अंधे व्यक्ति की तरह चुपचाप पृथ्वी पर विचरते थे। अंत में, एक दिन वे वन में गए, जहाँ दावानल जल रही थी। उन्होंने अपनी इन्द्रियों को उसी अग्नि में समर्पित कर दिया और भगवत् प्राप्ति कर लिया।
मनुपुत्र कवि: सबसे छोटे पुत्र कवि विषयों से पूर्ण रूप से विरक्त थे। वे राज्य त्यागकर भाइयों के साथ वन में चले गए और किशोर अवस्था में ही परमात्मा का अनुभव करके मोक्ष प्राप्त कर लिया।
करूष से कारूष नामक क्षत्रिय उत्पन्न हुए जो ब्राह्मणों के भक्त, धर्मप्रेमी और उत्तर भारत की रक्षा करने वाले थे।
धृष्ट से धार्ष्ट क्षत्रिय हुए जो बाद में शरीर रहते ही ब्राह्मण बन गए।
नृग वंश: नृग → सुमति → भूतज्योति → वसु → प्रतीक → ओघवान। ओघवान के पुत्र का नाम भी ओघवान था, और उनकी पुत्री ओघवती का विवाह सुदर्शन से हुआ।
नरिष्यन्त वंश: नरिष्यन्त → चित्रसेन → ऋक्ष → मीढ्वान → कूर्च → इन्द्रसेन → वीतिहोत्र → सत्यश्रवा → उरुश्रवा → देवदत्त। देवदत्त से अग्निवेश्य हुए, जो वास्तव में अग्निदेव के अंश थे और बाद में महर्षि जातकर्ण्य के रूप में प्रसिद्ध हुए। ब्राह्मणों का 'आग्निवेश्यायन' गोत्र इन्हीं से चला।
दिष्ट वंश: दिष्ट → नाभाग (दूसरे नाभाग से अलग)। नाभाग कर्म के कारण वैश्य बन गए। नाभाग → भलन्दन → वत्सप्रीति → प्रांशु → प्रमति → खनित्र → चाक्षष → विविंशति → रम्भ → खनिनेत्र → करन्धम → अवीक्षित। अवीक्षित के पुत्र थे चक्रवर्ती राजा मरुत्त। उन्होंने संवर्त ऋषि से महान यज्ञ करवाया। इस यज्ञ में सारे पात्र सोने के थे। इन्द्र भी उसमें सोमपान कर मस्त हुए मरुद्गण परसनेवाले और विश्वेदेव सभासद थे।
मरुत्त वंश: मरुत्त → दम → राज्यवर्धन → सुधति → नर → केवल → बन्धुमान → वेगवान → बन्धु → तृणबिन्दु। तृणबिन्दु आदर्श गुणों से युक्त थे। अप्सरा अलम्बुषा ने उन्हें पति रूप में स्वीकार किया। उनसे कई पुत्र और एक कन्या इडविडा हुई। इडविडा से महर्षि विश्रवा ने पुत्र रूप में कुबेर को जन्म दिया। विश्रवा ने अपने पिता पुलस्त्यजी से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया था। इन्ही विश्रवा की दूसरी पत्नी थी राक्षस सुमली की पुत्री कैकशी जिससे रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा पैदा हुए।
तृणबिन्दु के पुत्र: विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु। विशाल ने वैशाली नगरी बसाई। विशाल → हेमचन्द्र → धूम्राक्ष → संयम → कृशाश्व और देवज→ कृशाश्व → सोमदत्त। सोमदत्त ने अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञपति भगवान की आराधना की और योगियों की संगति में मोक्ष प्राप्त किया। सोमदत्त → सुमति → जनमेजय। ये सभी विशालवंशी राजा तृणबिन्दु की कीर्ति को बढ़ाने वाले थे।
महर्षि च्यवन और सुकन्या की अद्भुत कथा
मनुपुत्र राजा शर्याति एक धर्मनिष्ठ और वेदज्ञ राजा थे। उनकी एक सुंदर, कमललोचना कन्या थी- सुकन्या। एक बार वे अपनी पुत्री के साथ वन में भ्रमण करते हुए च्यवन मुनि के आश्रम पहुँचे। सुकन्या वन में अपनी सखियों संग घूम रही थी। उसने एक बाँबी में से दो चमकती ज्योतियाँ देखीं और बाल-सुलभ चपलता में उन्हें काँटे से बींध दिया।
वे च्यवन मुनि की आँखें थीं, जो घोर तपस्या में मग्न थे। इससे उनका रक्त बहने लगा और तत्काल ही राजा के सैनिकों को मल-मूत्र का संकोच हो गया। राजा ने आशंका व्यक्त की कि कहीं किसी ने मुनि का अनादर तो नहीं किया। सुकन्या ने अपराध स्वीकार किया।
तब राजा शर्याति ने च्यवन मुनि को स्तुति कर शांत किया और प्रायश्चित्त स्वरूप अपनी कन्या का विवाह मुनि से कर दिया। सुकन्या ने वृद्ध, अंधे, कठोर तपस्वी मुनि की पत्नी बनकर अत्यंत भक्ति और सेवा से उनका मन जीत लिया।
अश्विनीकुमारों ने किया च्यवन मुनि का कायाकल्प
कुछ समय बाद देवताओं के वैद्य, अश्विनीकुमार वहाँ आए। च्यवन मुनि ने उनसे अपनी यौवन और सुंदरता पुनः पाने की इच्छा जताई और वचन दिया कि वे उन्हें यज्ञ में सोमरस का भाग दिलाएँगे। अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि से कहा, “यह एक सिद्धों द्वारा बनाया गया पवित्र कुण्ड है। आप इसमें स्नान कीजिए।” च्यवन मुनि तब अत्यंत वृद्ध थे; झुर्रियों से भरा शरीर, उभरी हुई नसें, सफ़ेद बाल, दुर्बल देह। वे देखने में बिलकुल भी आकर्षक नहीं लगते थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें सहारा देकर कुण्ड में प्रवेश कराया।
कुछ क्षण बाद कुण्ड से तीन समान रूप, समान वस्त्र, कमलमाल और कानों में सुंदर कुण्डल पहने तेजस्वी युवक बाहर निकले। सभी की आकृति एक समान थी। वे इतने सुंदर थे कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हो जाए। सुकन्या स्तब्ध रह गई। वह पहचान नहीं सकी कि इनमें उसका पति कौन है। उसने बड़ी विनम्रता से अश्विनीकुमारों की शरण ली और कहा, “मुझे बताइए, इनमें मेरे स्वामी कौन हैं? मैं किसी अन्य पुरुष को पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती।”
उसकी पतिव्रता-निष्ठा देखकर अश्विनीकुमार अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने मुस्कराकर च्यवन मुनि की ओर संकेत किया और कहा, “यही हैं तुम्हारे पति। तुम्हारे प्रेम और सेवा से प्रसन्न होकर, इन्होंने नया रूप पाया है।” इसके बाद च्यवन मुनि ने अश्विनीकुमारों को सोमयज्ञ में भाग दिलाने का वचन दिया। वे प्रसन्न होकर आकाशमार्ग से स्वर्ग लौट गये।
कुछ दिनों में राजा शर्याति यज्ञ की भावना से प्रेरित होकर च्यवन मुनि के आश्रम में आये। वहाँ उन्होंने जो दृश्य देखा, उससे वे चौंक गये। उनकी पुत्री सुकन्या एक अत्यंत तेजस्वी युवक के पास बैठी थी, जो सूर्य की तरह प्रकाशमान था। सुकन्याने श्रद्धापूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम किया, परंतु शर्याति का हृदय शंका और क्रोध से भर गया। उन्होंने सुकन्या को डाँटते हुए कहा, “अरे पापिन! तूने हमारे कुल का नाश कर दिया। क्या तूने वृद्ध और पूजनीय च्यवन मुनि को छोड़कर किसी राह चलते युवक को अपना पति बना लिया? तुझे तो शर्म भी नहीं आती! तू हमारे कुल को नरक में ले जा रही है।”
सुकन्या मुस्कराई और विनम्रता से कहा, “पिताजी, यह कोई परपुरुष नहीं है। यही तो आपके जामाता भृगुनन्दन, तपस्वी महर्षि च्यवन हैं। आप जिस वृद्ध को छोड़कर आये थे, उन्हीं का यह नवयुवक स्वरूप है।” फिर सुकन्या ने उन्हें अश्विनीकुमारों की कृपा से च्यवन मुनि के कायाकल्प की पूरी कथा सुनाई। शर्याति पहले तो स्तब्ध रह गये, फिर हर्षित होकर सुकन्या को गले से लगा लिया।
इसके बाद, महर्षि च्यवन ने राजा शर्याति से सोमयज्ञ का आयोजन कराया। उन्होंने अपने तपोबल से यह भी सुनिश्चित किया कि अश्विनीकुमारों को भी सोमपान का अधिकार मिले, जबकि उन्हें अब तक केवल ‘वैद्य’ समझकर देवताओं ने इस अधिकार से वंचित कर रखा था।
देवताओं के राजा इन्द्र को यह बात स्वीकार नहीं हुई। क्रोधित होकर उन्होंने वज्र उठाया, ताकि शर्याति को दण्ड दे सकें। पर च्यवन मुनि ने अपने योगबल से उनके हाथ को वज्र सहित स्थिर कर दिया। अंततः सभी देवताओं को मानना पड़ा और अश्विनीकुमारों को सोमपान का पूर्ण अधिकार मिल गया।
बलराम और रेवती का विवाह
राजा शर्याति के तीन पुत्र थे- उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त के पुत्र थे रेवत। राजा रेवत ने समुद्र के भीतर "कुशस्थली" नाम की एक सुंदर नगरी बसाई थी और वहीं से वे आनर्त आदि देशों पर राज करते थे। रेवत के सौ बेटे थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी। जब ककुद्मी को अपनी बेटी रेवती के लिए योग्य वर नहीं मिला, तो वे उसे लेकर ब्रह्माजी के पास ब्रह्मलोक चले गए। उस समय ब्रह्मलोक जाने का रास्ता खुला था। वहां संगीत और उत्सव चल रहा था, इसलिए बातचीत का मौका न मिल पाने के कारण ककुद्मी थोड़ी देर प्रतीक्षा करते रहे।
जब उत्सव खत्म हुआ, तो उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम कर अपनी बात कही। यह सुनकर ब्रह्माजी हँस पड़े और बोले, “राजन्! जिन वरों को तुमने मन में सोचा था, वे सब बहुत पहले ही मर चुके हैं। उनके वंशजों तक का नाम अब सुनाई नहीं देता, क्योंकि इस बीच 27 चतुरयुग बीत चुके हैं।”
फिर ब्रह्माजी ने कहा, “इस समय स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के चतुर-व्यूह स्वरूप भगवान् संकर्षण बलरामजी के रूप में पृथ्वीपर विद्यमान हैं। उन्हीं नररत्नको यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। वे पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।”
ब्रह्माजी का आदेश सुनकर ककुद्मी ने उन्हें प्रणाम किया और अपनी नगरी लौट आए। लेकिन तब तक उनके वंशज यक्षों के डर से वह नगरी छोड़ चुके थे और इधर-उधर बस गए थे। इसके बाद ककुद्मी ने अपनी सुंदर पुत्री रेवती का विवाह बलरामजी से कर दिया और खुद तपस्या करने के लिए बदरीवन स्थित भगवान नर-नारायण के आश्रम की ओर चल पड़े।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 01.08.2025