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69- तीन पग में त्रिलोक नापने वाले वामन भगवान और बलि के पूर्ण समर्पण की गाथा

Jul 27th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 20-23

जब राजा बलि ने भगवान वामन को तीन पग भूमि दान करने का निर्णय लिया, तब उनके गुरु शुक्राचार्यजी को यह प्रतीत हुआ कि उनका शिष्य अब गुरु के प्रति श्रद्धाहीन हो गया है और उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। तब दैव प्रेरणा से उन्होंने बलि को शाप दे दिया, यद्यपि बलि सत्यप्रतिज्ञ, उदार और धर्मनिष्ठ थे अतः वास्तव में शाप के पात्र नहीं थे।

शुक्राचार्यजी बोले, “मूर्ख! तू अज्ञानी होते हुए भी अपने को बड़ा ज्ञानी समझता है। तूने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिये शीघ्र ही अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा।”

राजा बलिने यह सब सुनकर भी सत्यका मार्ग नहीं छोड़ा। उसी समय उनकी पत्नी विन्ध्यावली वहाँ आयी और सोनेके कलश में जल भरकर भगवानके चरण पखारनेके लिये ले आयी। बलिने स्वयं प्रेमपूर्वक वामन भगवानके कोमल चरण धोये और वह पवित्र जल अपने सिर पर चढ़ाया। और जल लेकर तीन पग भूमि देनेका संकल्प किया।  आकाशसे देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण आदि फूलोंकी वर्षा  बलि की प्रशंसा करने लगे , “अहो! कितना धन्य है यह उदार राजा बलि। इसने अपने शत्रु को भी तीनों लोकोंका दान दे दिया। ऐसा महान कार्य तो विरले ही कर सकते हैं।”

इसी समय एक बड़ी अद्भुत घटना घट गयी। अनन्त भगवानका वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढ़ने लगा। वह यहाँतक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषि-सब-के-सब उसी में समा गये। बलि महाराज और यज्ञ में उपस्थित ऋत्विज, आचार्य तथा अन्य सभी लोगों ने देखा कि पंचभूत, इन्द्रियाँ, उनके विषय, अन्तःकरण और सम्पूर्ण जगत् उसी परमात्मा के शरीर में विद्यमान हैं।

बलिने देखा कि भगवान के चरणतल में रसातल, चरणों में पृथ्वी, पिंडलियों में पर्वत, जाँघों में मरुद्गण हैं। उनके वस्त्रों में संध्या, गुह्य स्थानों में प्रजापति, नाभि में आकाश, कोख में समुद्र, वक्षस्थल में नक्षत्र, हृदय में धर्म, स्तनों में मधुरता और सत्य, मन में चन्द्रमा, कंठ में सामवेद, मुख में अग्नि और नेत्रों में सूर्य विद्यमान हैं। उनके केशों में मेघ, नासिका में वायु, वाणी में वेद, रसनामें वरुण, पलकों में दिन-रात, ललाट में क्रोध, ओष्ठ में लोभ, स्पर्श में काम, पीठ में अधर्म, पदविन्यास में यज्ञ और छाया में मृत्यु प्रतिष्ठित हैं।

बलिने भगवान के रोमों में औषधियाँ, नाड़ियों में नदियाँ, नखों में पर्वत और बुद्धि में ब्रह्मा एवं अन्य देवताओं के दर्शन किये। भगवान्में यह सम्पूर्ण जगत् देखकर सब-के-सब दैत्य अत्यन्त भयभीत हो गये। इसी समय भगवान्के पास सुदर्शन चक्र, शार्ङ्गधनुष, पांचजन्य शंख, कौमोदकी गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नामकी तलवार, अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकश तथा लोकपालोंके सहित भगवान्के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करनेके लिये उपस्थित हो गये। 
उस समय भगवान्की बड़ी शोभा हुई। मस्तकपर मुकुट, बाहओंमें बाजूबंद, कानोंमें मकराकति कुण्डल, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि, कमरमें मेखला और कंधेपर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था। वे पाँच प्रकारके पुष्पोंकी बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिसपर मधुलोभी भौंरे गुंजार कर रहे थे। 

भगवान वामन ने अपने एक पगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली, शरीरसे आकाश और भुजाओंसे दिशाएँ घेर लीं; दूसरे पगसे उन्होंने स्वर्गको भी नाप लिया। तीसरा पैर रखनेके लिये बलिकी तनिक-सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान्का वह दूसरा पग ही ऊपरकी ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया। उनके चरणों की दिव्य आभा से स्वयं ब्रह्माजी चकित हो गये और मरीचि, सनकादिक, योगी और ऋषि-मुनियों के साथ भगवान का स्वागत किया। सभी वेद, पुराण, नियम और तपस्वी भी उनके चरणों की वन्दना करते हैं, क्योंकि उन्हीं चरणों के स्मरण से वे ब्रह्मलोक तक पहुँचे हैं। ब्रह्माजी ने श्रद्धा से वामन भगवान के चरण धोए और उनकी स्तुति की। भगवान के चरणों को धोने से जो जल निकला, वही गंगाजी बन गया, जो आज भी तीनों लोकों को पवित्र करती हैं।

जब भगवान ने अपना विराट रूप समेटा, तब ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने भक्ति भाव स्तुति गेट हुए उन्हें अनेक दिव्य वस्तुएँ अर्पित कीं जैसे की माला, गन्ध, दीप आदि। जाम्बवान जी ने चारों दिशाओं में नगाड़ा बजाकर भगवान की विजय की घोषणा की।

दैत्य जब यह देख रहे थे कि भगवान ने तीन पग भूमि माँगने के बहाने सब कुछ ले लिया, तो वे बहुत क्रोधित हुए और समझ गये कि यह कोई सामान्य ब्राह्मण नहीं, बल्कि मायावी विष्णु हैं। वे युद्ध करने दौड़े, पर बलि ने उन्हें रोका। उन्होंने समझाया कि काल की इच्छा से ही सब कुछ होता है, कभी वही काल हमारी विजय का कारण था, अब हमारी पराजय का। बलि ने दैत्यों को शांत किया और कहा कि अभी युद्ध का समय नहीं है। इसके बाद भगवान के पार्षदों ने दैत्यों को पराजित किया। फिर गरुड़ जी ने बलि को वरुण के पाशों से बाँध दिया। उनकी सम्पत्ति भी चली गई थी, फिर भी उनका मन अडिग था और सभी उनके उदार यश की प्रशंसा कर रहे थे।

उस समय भगवान्ने बलिसे कहा, "तुमने मुझे तीन पग भूमि का वचन दिया था। तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैरसे भूलॊक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्ग नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है। दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो। तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो।
तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे ‘दूंगा’-ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो।"

भगवान ने जैसे ही बलि को दण्डित किया और उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया, बलि तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे बड़े धैर्य से बोले, "यदि आप मुझे असत्यवादी समझ रहे हैं, तो कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिए। मुझे नरक जाने, राज्य छिनने, पाश में बंधने या किसी प्रकार की यातना का भय नहीं है। मुझे डर है तो बस अपयश का। गुरुजनों द्वारा दिया गया दण्ड भी कल्याणकारी होता है। आप असुरों को ज्ञान देने के लिए ही छिपे रूप में शिक्षा देते हैं, आप ही हमारे सच्चे गुरु हैं। जब हम अहंकार में डूब जाते हैं, तब आप ही वह सब छीनकर हमारी आंखें खोलते हैं।"

"आपके साथ वैर करने से भी असुरों को सिद्धि प्राप्त हुई है, जबकि योगीजन वह सिद्धि कठिन तप से पाते हैं। ऐसे आप मुझे दण्ड दे रहे हैं, यह मेरे लिए लज्जा या पीड़ा की बात नहीं है। फिर बलि ने प्रह्लादजी का स्मरण किया, "मेरे पितामह प्रह्लादजी ने भी आपके चरणों की शरण ली थी, जबकि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने उन्हें कष्ट दिए थे। उन्होंने जीवन की असारता को समझा और संसार से वैराग्य लेकर केवल आपकी भक्ति की।"

"मैं भी यही मानता हूँ की धन, संबंधी, पत्नी, घर ये सब माया के जाल हैं। जब मृत्यु निश्चित है, तब इनसे मोह करना केवल आत्मा की शक्ति और समय को खोना है। अंत में बलि बोले, "हे प्रभो! यदि आप मेरे शत्रु भी हैं, तो भी मुझे यह ऐश्वर्य और संपत्ति छिनकर आपके चरणों में पहुँचना ही सौभाग्य की बात है। क्योंकि ऐश्वर्य जीव की बुद्धि को ढक देता है और वह जीवन की नश्वरता को भूल जाता है।"

राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे। वरुणपाश में बंधे होने के कारण बलि उनकी पहले जैसी पूजा नहीं कर सके। वे भावुक हो गए, आँखों में आँसू आ गए और सिर झुकाकर नमस्कार किया। प्रह्लादजी ने देखा कि उनके आराध्य भगवान वहाँ विराजमान हैं और पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। उन्हें देखकर उनका शरीर प्रेम से पुलकित हो गया, आँखों से आँसू बहने लगे। वे आनंद से भरकर भगवान के चरणों में साष्टांग प्रणाम करने लगे। उन्होंने कहा, "प्रभो! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया और अब स्वयं ही उससे उसे मुक्त कर दिया। आपकी कृपा अपार है, आपका देना भी मंगलमय है और लेना भी। राज्यलक्ष्मी मन को मोहित कर देती है, उससे तो ज्ञानीजन भी भ्रमित हो जाते हैं। आपने बलि को उस मोह से बचाया, यह बहुत बड़ा उपकार है। मैं उस श्रीहरि को प्रणाम करता हूँ जो सबके हृदय में स्थित हैं, साक्षी हैं और जगत के कल्याण हेतु सदा सक्रिय रहते हैं।"

प्रह्लादजी हाथ जोड़कर खड़े थे। तभी ब्रह्माजी बोले, "प्रभो! आप समस्त प्राणियों के स्वामी हैं। बलि ने अपना सब कुछ,भूमि, स्वर्गलोक, पुण्य, यहाँ तक कि स्वयं को भी आपको अर्पित कर दिया है। वह दण्ड का पात्र नहीं है। जिसने श्रद्धा से केवल दूर्वा या जल से भी आपकी पूजा की, उसे भी उत्तम गति मिलती है। बलि ने तो सम्पूर्ण त्रिलोकी आपको पूर्ण श्रद्धा और धैर्य से समर्पित की है फिर वह दुःख का अधिकारी कैसे हो सकता है?"

भगवान ने उत्तर दिया, "ब्रह्माजी! जब मैं किसी पर कृपा करता हूँ, तो उसका धन छीन लेता हूँ। क्योंकि धन के अभिमान में वह मेरा और लोगों का अपमान करने लगता है। यह जीव अपने कर्मों के अनुसार अनेक योनियों में भटकता रहता है, और जब मेरी विशेष कृपा होती है, तभी उसे दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त होता है। यदि मनुष्य को कुल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन मिलकर भी उसमें अभिमान न आये, तो समझना चाहिए कि उस पर मेरी विशेष कृपा है।” 

“बलि जैसे महापुरुष, जो दैत्य और दानव दोनों वंशों के गौरव हैं, उन्होंने इस कठिन मायापाश को जीत लिया है। इतना कुछ खोने और सहने के बाद भी यह विचलित नहीं हुआ। धन गया, राज्य छिना, बंधन में पड़ा, अपमान झेला, यहां तक कि गुरु का शाप भी मिला फिर भी इसने सत्य और धर्म नहीं छोड़ा। मैंने स्वयं भी इसे छलपूर्वक धर्म की परीक्षा दी, पर बलि ने अपने व्रत का पालन नहीं छोड़ा। इसलिए मैंने इसे वह पद दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी दुर्लभ है। अगले सावर्णि मन्वंतर में यह इन्द्र पद को प्राप्त करेगा। तब तक यह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित सुतल लोक में रहेगा। वह स्थान इतना दिव्य है कि वहां न रोग होते हैं, न थकावट, न कोई शारीरिक या मानसिक पीड़ा। वहाँ के लोग मेरी कृपा दृष्टि में सदा रहते हैं।”

फिर भगवान बलि से कहते हैं, "हे इन्द्रसेन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सुतल लोक में जाओ और वहाँ अपने परिवार सहित आनंदपूर्वक निवास करो। अब कोई भी लोकपाल तुम्हें पराजित नहीं कर सकेगा। यदि कोई दैत्य तुम्हारी आज्ञा न मानेगा, तो मेरा सुदर्शन चक्र उन्हें नष्ट कर देगा। मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और समस्त भोग-वस्तुओं की स्वयं रक्षा करूँगा। और तुम मुझे सदा अपने पास पाओगे। मेरे प्रभाव से तुम्हारा आसुरी भाव भी मिट जाएगा।"

जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तो बलि गदगद वाणी से बोले, “प्रभो! मैंने तो अभी आपको पूरी तरह प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रयास मात्र किया था, और आपने मुझे वैसा ही फल दे दिया जैसा अपने चरणों में समर्पित भक्तों को देते हैं। जो कृपा आपने मुझ नीच असुर पर की, वह बड़े-बड़े देवताओं को भी नहीं मिली।”

इतना कहने पर बलि वरुण के पाशों से मुक्त हो गए। उन्होंने भगवान, ब्रह्मा और शंकर को प्रणाम किया और प्रसन्नता से असुरों सहित सुतल लोक को चले गए।

प्रह्लादजी ने जब देखा कि उनके पौत्र बलि को भगवान की ऐसी कृपा मिली है, तो वे भावविभोर हो गए और उन्होंने भगवान की स्तुति करते हुए कहा, “प्रभो! यह अनुग्रह तो ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी को भी सहज नहीं मिलता। और आज आप हमारे जैसे असुरों के रक्षक बन गए! आप जैसे समदर्शी और सर्वज्ञ की यह लीला अद्भुत है। आपके भक्तों के लिए आप कल्पवृक्ष की भाँति हैं, जो उनके प्रेमवश पक्षपात तक कर बैठते हैं।”

भगवान ने उत्तर दिया, “बेटा प्रह्लाद, तुम भी बलि के साथ सुतल लोक में जाकर आनंदपूर्वक रहो। वहाँ तुम मुझे नित्य दर्शन करोगे। मेरे सान्निध्य में तुम्हारे सभी कर्मबंधन कट जाएँगे।” प्रह्लादजी ने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ कहा और भगवान की परिक्रमा कर सुतल लोक की ओर प्रस्थान किया।

इसके बाद भगवान ने शुक्राचार्य को यज्ञ में जो त्रुटि रह गई है उसे पूर्ण करने को कहा। उत्तर मैं शुक्राचार्य ने कहा, “आपके नाम-स्मरण से सभी यज्ञों की त्रुटियाँ मिट जाती हैं। फिर भी आपकी आज्ञा पालन करना ही सबसे बड़ा कल्याण है।” इसके बाद बलि के यज्ञ की शेष विधियाँ पूर्ण की गईं।

वामन भगवान ने इन्द्र का खोया हुआ स्वर्गराज्य उन्हें लौटा दिया। फिर ब्रह्माजी ने देवताओं, मुनियों और अन्य दिव्यजनों के साथ भगवान वामन का उपेन्द्र पद पर अभिषेक किया। वे समस्त लोकों के रक्षक बने। इन्द्र ने भगवान को विमान पर विराजमान कर स्वर्ग ले गए। वहाँ इन्द्र को राज्य और भगवान का संरक्षण मिला, और वे ऐश्वर्य व निर्भयता के साथ उत्सव मनाने लगे। ब्रह्मा, शंकर, मुनि और अन्य देवगण भगवान की इस लीला का स्तुतिगान करते हुए अपने-अपने लोकों को लौट गए।

श्री शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा की यह भगवान वामन की दिव्य कथा मैंने तुम्हें सुनाई है। इसे सुनने मात्र से पाप नष्ट होते हैं। जो व्यक्ति वामन भगवान की इस लीला को श्रद्धा से सुनता है, उसे परम गति प्राप्त होती है।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 25.07.2025