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66- देव-असुर संग्राम एवं मोहिनी रूप पर शिवजी का मोहित हो जाना

Jul 17th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 10-12

दानवों और दैत्यों ने बहुत प्रयास से समुद्र मंथन किया, लेकिन भगवान से विमुख होने के कारण उन्हें अमृत नहीं मिला। भगवान ने अमृत निकालकर देवताओं को पिला दिया और गरुड़ पर सवार होकर चले गए। दैत्य यह देखकर क्रोधित हो गए कि देवताओं को सफलता मिली है। उन्होंने तुरंत हथियार उठाए और देवताओं पर आक्रमण कर दिया।

अमृत पीने से देवताओं को विशेष शक्ति मिल गई थी और भगवान के चरणों का आश्रय भी उनके पास था। वे भी तैयार होकर युद्ध में कूद पड़े। क्षीरसागर के किनारे बहुत भयंकर देवासुर संग्राम हुआ। दोनों पक्ष क्रोध में भरकर तलवार, बाण आदि से एक-दूसरे से लड़ने लगे। युद्ध में शंख, नगाड़े, तुरही, डमरू बजने लगे। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना की आवाज से बड़ा कोलाहल मच गया।

रथी रथी से, घुड़सवार घुड़सवार से भिड़ गए। कुछ ऊंट, हाथी, गधे, नीलगाय, बाघ, सिंह जैसे जानवरों पर चढ़कर लड़े। कुछ गिद्ध, बाज, बगुले जैसे पक्षियों पर और कुछ चूहों, सियारिन, गिरगिट, खरगोश पर भी सवार थे। जल, स्थल और आकाश के भयानक जीवों पर चढ़कर दैत्य युद्ध में घुस गए। उस समय रणभूमि में देवताओं और असुरों की सेनाएँ रंग-बिरंगी पताकाओं, छत्रों, मोरपंख, चँवर, रत्नजड़ित आयुधों और वीरों की पंक्तियों से ऐसे सुशोभित थीं जैसे दो महासागर लहरा रहे हों।

दैत्योंके सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानवके बनाये हुए वैहायस नामक विमानपर सवार हुए। वह विमान चलानेवालेकी जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था और कभी दिखता था तो कभी अदृश्य हो जाता था। राजा बलि के चारों ओर उनके सेनापति और दैत्य योद्धा अपने विमानों पर खड़े थे। वे सब समुद्र मंथन में शामिल थे पर अमृत से वंचित रहे थे। इन दैत्यों ने पहले भी कई बार देवताओं को पराजित किया था। इसलिए वे उत्साह में आकर सिंहनाद करने लगे और अपने घोर शंख बजाने लगे।

इन्द्र ने यह देखा कि दैत्य मद से भर गए हैं, तो उन्हें क्रोध आया। वे ऐरावत हाथी पर सवार हुए, जिससे मद बह रहा था। इन्द्र की शोभा ऐसे हो रही थी जैसे पर्वत पर सूर्य उदित हुआ हो। इन्द्र के चारों ओर वायु, अग्नि, वरुण आदि देवता अपने-अपने वाहनों और ध्वजाओं सहित खड़े हो गए। दोनों सेनाएँ आमने-सामने आकर खड़ी हुईं। योद्धा दो-दो की जोड़ियाँ बनाकर युद्ध करने लगे। कोई नाम लेकर ललकार रहा था, कोई मर्मभेदी बातें कहकर विरोधियों को धिक्कार रहा था।

बलि ने इन्द्र से युद्ध किया। स्वामी कार्तिकेय तारकासुर से भिड़े।

वरुण ने हेति से और मित्र ने प्रहेति से युद्ध किया।

यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय से, शम्बरासुर त्वष्टा से और सविता (सूर्य) विरोचन से लड़े।

नमुचि अपराजित से और अश्विनी कुमार वृषपर्वा से युद्ध कर रहे थे।

सूर्यदेव बलि के सौ पुत्रों से भिड़े। राहु का चन्द्रमा से और पुलोमा का वायु से युद्ध हुआ।

भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर टूट पड़ीं।

जम्भासुर से महेन्द्र (इन्द्र) का, महिषासुर से अग्निदेव का, वातापि और इल्वल से मरीचि का संघर्ष हुआ।

दुर्मर्ष की कामदेव से, उत्कल की मातृगणों से, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की शनिदेव से लड़ाई हुई।

निवातकवच से मरुद्गण, कालेयों से वसुगण, पौलोमों से विश्वदेवगण और क्रोधवशों से रुद्रगण का युद्ध होने लगा।

युद्ध में हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना नष्ट हो रही थी। बहुतों के अंग कट गए, ध्वजाएं और कवच टूट गए। युद्ध की धूल से आकाश और दिशाएं ढक गईं, फिर रक्त की धाराओं से धरती भर गई। राजा बलि ने इन्द्र पर और उनके साथियों पर बाण चलाए, पर इन्द्र ने फुर्ती से सब काट डाले। बलि ने शक्ति और अन्य शस्त्र उठाए, लेकिन इन्द्र ने सब नष्ट कर दिए। इससे बलि क्रोधित होकर अदृश्य हुए और मायाओं की रचना की। उन्होंने आकाश में पर्वत खड़ा कर दिया, जिससे आग में जलते वृक्ष और पत्थर गिरने लगे। विषैले जीव, सिंह, बाघ, राक्षस प्रकट हुए। आंधी-तूफान और अग्नि की वर्षा हुई। समुद्र भी मर्यादा तोड़कर बढ़ने लगा।

देवताओं की सेना घबरा गई। इन्द्र आदि ने भगवान का स्मरण किया। भगवान तुरंत गरुड़ पर प्रकट हुए। उनके दर्शन से असुरों की माया तुरंत समाप्त हो गई, जैसे जागने पर स्वप्न मिट जाता है। तब कालनेमि ने त्रिशूल चलाया, भगवान ने उसे पकड़कर कालनेमि और उसके वाहन का संहार कर दिया। माली और सुमाली के भी भगवान ने चक्र से सिर काट दिए। माल्यवान ने गदा से हमला किया, पर भगवान ने चक्र से उसका भी वध कर दिया।

भगवान की कृपा से देवताओं का डर मिट गया और उनमें नया उत्साह आ गया। इन्द्र, वायु आदि देवता पूरी शक्ति से उन्हीं असुरों पर वार करने लगे जिन्होंने पहले उन्हें घायल किया था। इन्द्र ने क्रोधित होकर बलि पर वज्र उठाया। सभी लोग डर से हाहाकार करने लगे। बलि बिना डरे युद्धभूमि में डटा था। इन्द्र ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा –
तू मायाकी चालों से हम पर विजय पाना चाहता है, लेकिन हम मायाके स्वामी हैं। मूर्ख! मैं तुझे वज्र से मार दूंगा।

बलि ने उत्तर दिया –
इन्द्र! जो कर्म और काल के वश में हैं, उन्हें हार-जीत, यश-अपयश या मृत्यु मिलती ही है। ज्ञानीजन न तो विजय में अहंकार करते हैं और न हार या मृत्यु में दुखी होते हैं।

बलि की बात सुनकर इन्द्र कुछ झेंप गया। बलि ने धनुष से अनेक बाण चलाए और इन्द्र का तिरस्कार किया। इससे इन्द्र और अधिक क्रोधित हो गया। इन्द्र ने अमोघ वज्र से बलि पर प्रहार किया। वज्र की चोट से बलि पर्वत की तरह अपने विमान सहित धरती पर गिर पड़ा।

बलि के गिरने पर उसका साथी सिंह पर चढ़कर इन्द्र के सामने आया। उसने गदा से इन्द्र पर और उनके हाथी ऐरावत पर प्रहार किया। गदा की चोट से इन्द्र का हाथी ऐरावत बहुत घायल हुआ और घुटने टेककर मूर्छित हो गया। इन्द्र का सारथि मातलि तुरंत हजार घोड़ों वाला रथ ले आया। इन्द्र ने ऐरावत को छोड़कर रथ पर सवारी कर ली। दानव जम्भ ने मातलि पर त्रिशूल चलाया। मातलि ने धैर्य से उसका आघात सहा। फिर क्रोधित इन्द्र ने वज्र से जम्भ का सिर काट दिया।

जम्भ की मृत्यु की खबर सुनकर उसके भाई नमुचि, बल और पाक रणभूमि में आ गए। उन्होंने इन्द्र को कटु वचनों से अपमानित किया और उन पर बाणों की वर्षा कर दी। बल ने एक साथ हजार बाण चलाकर इन्द्र के रथ के हजार घोड़ों को घायल कर दिया। पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के हिस्सों को छेद डाला। यह अद्भुत युद्ध कौशल था।

नमुचि ने सोने के पंखों वाले पंद्रह बाण इन्द्र पर चलाए और गरजने लगा। असुरों ने इतनी बाणवर्षा की कि इन्द्र, रथ और सारथि सब बाणों से ढक गए, जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं। देवता इन्द्र को न देखकर घबरा गए और सेनापति के बिना रोने लगे। उनकी दशा ऐसी थी जैसे समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारी दुखी होते हैं। थोड़ी देर बाद इन्द्र घोड़ों, रथ और सारथि समेत बाणों के घेरे से बाहर आ गए। उनके तेज से चारों ओर उजाला हो गया। इन्द्र ने देखा कि असुरों ने सेना को कुचल डाला है। वे क्रोध में आकर वज्र उठाकर बल और पाक के सिर काट दिए।

अपने भाइयों की मृत्यु से नमुचि को बड़ा शोक और क्रोध हुआ। वह त्रिशूल लेकर इन्द्र को मारने दौड़ा। नमुचि का त्रिशूल बहुत भारी और सोने से सजा हुआ था। उसने गरजकर इन्द्र पर त्रिशूल फेंका। इन्द्र ने बाणों से त्रिशूल को हवा में ही टुकड़े कर डाले। फिर वज्र लेकर नमुचि की गर्दन पर प्रहार किया।

पर यह आश्चर्यजनक था कि वज्र से नमुचि की गर्दन पर खरोंच तक न आई। इन्द्र घबरा गए और सोचने लगे – यह कैसी घटना हो गई! यही वज्र पहले उड़ते पर्वतों की पंख काट चुका है। यही वज्र वृत्रासुर जैसे बलवान असुर को मार चुका है। अनेकों दैत्यों का संहार इसी ने किया है। लेकिन अब यही वज्र इस तुच्छ असुर को नहीं मार सका। इन्द्र ने सोचा – यह अब निकम्मा हो गया है, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

इन्द्र जब निराश हो गए, तभी आकाशवाणी हुई कि नमुचि को न सूखी चीज से मारा जा सकता है, न गीली चीज से।
इन्द्र ने सोचा कि समुद्र का फेन न पूरी तरह सूखा है न गीला। उन्होंने उसी समुद्र फेन से नमुचि का सिर काट डाला। वायु, अग्नि, वरुण आदि देवताओं ने भी अपने शत्रुओं को मार गिराया।

ब्रह्माजी ने देखा कि असुरों का संहार हो रहा है, तब नारदजी को भेजा। नारदजी ने देवताओं से कहा कि अब युद्ध बंद कर दें। देवताओं ने नारदजी की बात मानकर क्रोध शांत किया और अपने-अपने लोक लौट गए। उनके अनुचर उनकी विजय का गुणगान करते रहे।

जो असुर बच गए थे, वे बलि का शव लेकर अस्ताचल गए। शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उन असुरों को फिर जीवित कर दिया जिनके शरीर पूरी तरह न कटे थे। बलि को चेतना आ गई। वे जानते थे कि संसार में जीत-हार और जीवन-मृत्यु होती रहती है, इसलिए उन्हें हार का कोई दुख नहीं हुआ।

विष्णु मोहिनी अवतार, जिसे देख शिवजी भी मोहित हो उठे

जब भगवान शंकर ने सुना कि विष्णुजी ने स्त्रीरूप धारण कर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिला दिया, तो वे सती देवी के साथ उनके दर्शन के लिए पधारे। भगवान श्रीहरिने बडे प्रेमसे गौरी-शंकरभगवानका स्वागत-सत्कार किया।

भगवान शंकर ने उनकी अद्वितीय महिमा का गूढ़ वर्णन किया कि आप ही सृष्टि-स्थिति-लय के परम कारण, ब्रह्म और आत्मा हैं। आप ही प्रकृति और पुरुष से परे, अनन्त और अनिर्वचनीय हैं। शिवजी ने निवेदन किया कि  प्रभो! आप जब गुणोंको स्वीकार करके लीला करनेके लिये बहुतसे अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतारका भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूपमें ग्रहण किया था।  जिससे दैत्योंको मोहित करके आपने देवताओंको अमृत पिलाया, उसीको देखनेके लिये हम सब आये हैं। हमारे मनमें उसके दर्शनका बड़ा कौतूहल है।

तब श्री हरि गम्भीरभावसे हँसकर बोले- शंकरजी! उस समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अतः देवताओंका काम बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था। आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परन्तु वह रूप तो कामी पुरुषोंका ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है। इस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शंकर सती देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे।

इतने में ही उन्होंने देखा कि अचानक सारा दृश्य बदल गया। एक मनोहारी उपवन में अत्यन्त सुंदर युवती गेंद खेलती दिखाई दी। उसके हाव-भाव, अंग सौंदर्य, चंचल दृष्टि और सुकुमार अदाओं ने भगवान शंकर का चित्त मोह लिया। मोहिनी ने सलज्ज दृष्टि से उनकी ओर देखकर उनके मन का संयम हर लिया।

शिवजी का विवेक नष्ट हो गया। वे उसके पीछे-पीछे कामवश दौड़ पड़े। मोहिनी इधर-उधर भागती, वृक्षों की ओट में छिपती और मुस्कराती रही। शंकरजी भी उसके पीछे मदोन्मत्त हाथी की भाँति दौड़ते रहे। अंत में उन्होंने उसे आलिंगन कर लिया, पर वह माया थी। छूते ही वह फिर हाथ से फिसल गई और तेज़ी से दौड़ पड़ी। उसके पीछे दौड़ते-दौड़ते शिवजी का वीर्य स्खलित हो गया, जहाँ गिरा वहाँ स्वर्ण-चाँदी की खानें बन गईं। मोहिनी के पीछे नदी, सरोवर, वन, ऋषियों के आश्रम तक वे भागते गए।

वीर्यपात हो जाने पर शंकरजी की स्मृति लौटी। उन्होंने समझ लिया कि यह भगवान विष्णु की माया थी। विष्णुजी प्रकट हुए और मुस्कराते हुए बोले कि मेरी माया अपार है। यह कामभावना उत्पन्न करती है और कोई भी इससे बच नहीं सकता, किंतु अब यह माया आपको कभी मोहित नहीं करेगी।

शिवजी ने यह अनुभव कर लिया कि भगवान विष्णु की माया कैसी अद्भुत और असीम है। इसके बाद वे प्रसन्न होकर कैलास लौट गए। वहाँ सतीजी से बोले—"देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णुकी माया देखी? देखो, यों तो मैं समस्त कलाकौशल, विद्या आदिका स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस मायासे विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायँ—इसमें कहना ही क्या है।

जब मैं एक हजार वर्षकी समाधिसे उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमामें बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-प्रिय परीक्षित्! मैंने विष्णु भगवान्की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र मन्थनके समय अपनी पीठपर मन्दराचल धारण करनेवाले भगवान्का वर्णन है। भगवानके गुण और लीलाओंका गान संसारके समस्त क्लेश और परिश्रमको मिटा देनेवाला है। इसीसे उन्होंने स्त्रीका मायामय रूप धारण करके दैत्योंको मोहित किया और अपने चरणकमलोंके शरणागत देवताओंको समुद्रमन्थनसे निकले हुए अमृतका पान कराया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 15.07.2025