Log in
English

20- विदुर-मैत्रेय संवाद एवम् ब्रह्मा जन्म कथा

Sep 10th, 2024 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 4 से 8

लीला संवरण से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को कहा था कि जब वे अपने कुल का अंत करने का विचार करेंगे, तब उद्धव बदरिकाश्रम चले जाएं। परंतु वे कृष्ण के चरणों से वियोग सहन नहीं कर सके और उनके पीछे-पीछे प्रभास क्षेत्र पहुंच गए। वहाँ उद्धव ने देखा कि श्रीकृष्ण सरस्वती नदी के किनारे अकेले बैठे हैं। वह दिव्य चार भुजाएँ, और पीताम्बर धारण किए हुए पीपल के एक छोटे-से पेड़ के नीचे बैठे हैं, और भोजन-पान का त्याग कर चुके हैं, फिर भी वे आनंदित दिखाई दे रहे हैं। उसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र और भक्त, मैत्रेय मुनि वहां आए। भगवान कृष्ण ने प्रेमपूर्वक उद्धव से कहा कि वे उनकी मनोभाव को जानते हैं और उन्हें वह दुर्लभ ज्ञान देंगे। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि उद्धव पूर्वजन्म में वसु थे और उन्होंने कृष्ण की भक्ति की थी। यह उद्धव का अंतिम जन्म है क्योंकि उन्होंने इस जन्म में कृष्ण का अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। श्रीकृष्ण ने बताया कि उनकी अनन्य भक्ति के कारण इस एकांत में उनका दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ है, जो बहुत बड़ा सौभाग्य है।

श्रीकृष्ण ने उद्धव को वही सर्वोच्च 'भागवत' दिया, जिसे उन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी को दिया था। भगवान के वचनों से उद्धव भावुक हो गए, उनकी आंखों से आँसू बहने लगे और उन्होंने कहा कि वे केवल श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा चाहते हैं, और कुछ नहीं। इसके पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को अपने स्वरूप का परम ज्ञान प्रदान किया। उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण से आत्मतत्त्व का ज्ञान सुनकर और उनके चरणों की वंदना तथा परिक्रमा करके वहां से चले आए। परंतु, अब उनके विरह से उनका चित्त अत्यंत व्याकुल हो रहा है। विदुरजी से उद्धवजी कहते हैं कि पहले तो भगवान के दर्शन से उन्हें आनंद प्राप्त हुआ था, लेकिन अब उनके वियोग की पीड़ा उन्हें अत्यंत कष्ट दे रही है। वे बदरिकाश्रम जाने का निश्चय करते हैं।

उद्धवजी से अपने प्रिय बंधुओं के विनाश का समाचार सुनकर विदुरजी को बहुत दुख हुआ, लेकिन उन्होंने ज्ञान के द्वारा उस शोक को शांत कर लिया। जब उद्धवजी बदरिकाश्रम जाने लगे, तो विदुरजी ने उनसे पूछा कि जो परम ज्ञान श्रीकृष्ण ने उन्हें दिया था, वह उन्हें भी बताएं। तब उद्धवजी ने कहा कि इस तत्त्वज्ञान के लिए विदुरजी को मुनि मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आदेश दिया था कि मैत्रेयजी उन्हें यह ज्ञान प्रदान करेंगे। श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा से उद्धवजी का वियोगजनित दुख शांत हो गया, और यमुनाजी के तट पर उनकी रात एक क्षण के समान बीत गई। प्रातःकाल होते ही उद्धवजी वहां से चल पड़े।

राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा कि जब वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी योद्धा नष्ट हो गए, यहां तक कि श्रीहरि ने भी अपना रूप त्याग दिया, तो उद्धवजी कैसे बच गए? शुकदेवजी ने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कुल का नाश किया और श्रीविग्रह त्यागते समय सोचा कि उनके बाद उद्धवजी ही उनके ज्ञान के योग्य पात्र हैं। उद्धव आत्मजयी हैं, और विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगोंको भगवान के दिव्य ज्ञानकी शिक्षा देते हुए वे यहीं रहें। श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार, उद्धवजी बदरिकाश्रम गए और समाधियोग द्वारा श्रीकृष्ण की आराधना करने लगे। 

विदुर-मैत्रेय संवाद

श्रीकृष्ण ने लीला से अपना श्रीविग्रह प्रकट किया और लीला से ही उसे अंतर्धान कर दिया। उद्धवजी से श्रीकृष्ण के अन्तर्धान का समाचार सुनकर और यह जानकर कि श्रीकृष्ण ने उन्हें भी स्मरण किया था, विदुरजी प्रेम से भावुक होकर रोने लगे। विदुरजी यमुनातट से चलकर कुछ समय बाद गंगाजी के किनारे पहुंचे, जहां मुनि मैत्रेयजी रहते थे। विदुरजी हरिद्वार में मैत्रेय मुनि के पास पहुंचे और उनसे संसार के दुःखों और भगवान के ज्ञान के बारे में प्रश्न किया। 
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥
संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःखकी वृद्धि ही होती है। अतः इस विषयमें क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये। (भागवत 3.5.2)

उन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं, सृष्टि की रचना और उसके संचालन के गूढ़ रहस्यों के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। विदुरजी ने उन लोगों के प्रति खेद व्यक्त किया जो अपने पापों के कारण भगवान की कथाओं से विमुख रहते हैं और व्यर्थ के विवादों में जीवन बर्बाद करते हैं। जीवों के कल्याण के लिए विदुरजी के द्वारा किए गए प्रश्न का उत्तर देते हुए मैत्रेय मुनि ने विदुरजी को साधु बताया और कहा कि वे यमराज के अवतार हैं, जिन्होंने माण्डव्य ऋषि के शाप से मानव रूप में जन्म लिया है। मैत्रेय मुनि ने बताया कि सृष्टि के आरंभ में केवल एकमात्र परमात्मा थे। उन्हें देखने वाला कोई नहीं था और वे ही दृश्य थे। परमात्मा की इच्छा से सृष्टि का निर्माण प्रारंभ हुआ। परमात्मा ने माया के माध्यम से संसार की रचना की। काल शक्ति और त्रिगुणों के संयोग से महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ, जिससे संसार की उत्पत्ति हुई। महत्तत्त्व से अहंकार की उत्पत्ति हुई, जो तीन प्रकार का है - सात्त्विक, राजस, और तामस। तामस अहंकार से सूक्ष्म भूतों की और पांच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) की उत्पत्ति हुई।

तन्मात्राओं से क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पंचमहाभूतों में पिछले तत्वों के गुण भी विद्यमान रहते हैं। जब यह पंचमहाभूत अपने-अपने कार्यों में असफल हुए, तो वे भगवान की शरण में गए और उनसे संसार की रचना और संचालन में सहायता की प्रार्थना की। देवताओं ने भगवान के चरणों की स्तुति की और निवेदन किया कि उन्हें शक्ति और ज्ञान प्रदान करें ताकि वे ब्रह्माण्ड की रचना कर सकें और सब जीव अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। जब भगवान ने देखा कि महत्तत्त्व और अन्य तत्व संगठित नहीं हो पा रहे हैं और सृष्टि का कार्य नहीं हो रहा है, तब उन्होंने कालशक्ति को स्वीकार किया और 23 तत्वों (महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, पंच-तन्मात्रा, मन और इन्द्रियों) में प्रवेश किया। भगवान ने इन तत्वों के भीतर प्रवेश कर सोये हुए अदृष्ट (सृष्टि की क्रिया को संचालित करने वाली शक्ति) को जाग्रत किया और आपस में समन्वय स्थापित किया। इन 23 तत्वों के सम्मिलित होने पर भगवान की प्रेरणा से विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई।

मैत्रेयजी कहते हैं, "विदुरजी! महापुरुषोंका मत है कि श्रीहरिके गुणोंका गान करना ही मनुष्योंकी वाणीका तथा विद्वानोंके मुखसे भगवत्कथामृतका पान करना ही उनके कानोंका सबसे बड़ा लाभ है। हम ही नहीं, ब्रह्माजीने एक हजार दिव्य वर्षोंतक अपनी योगपरिपक्व बुद्धिसे विचार किया; तो भी क्या वे भगवान्‌की अमित महिमाका पार पा सके? ⁠अतः भगवान्‌की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देनेवाली है⁠। उसकी चक्करमें डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है।”

विदुरजी ने मैत्रेयजी से निम्नलिखित प्रश्न पूछे:
  1. भगवान शुद्ध, निर्विकार और निर्गुण होते हुए भी लीलाएँ कैसे करते हैं? गुण और क्रिया का उनसे संबंध कैसे हो सकता है?
  2. भगवान नित्यतृप्त होते हैं, तो वे खेल या क्रीड़ा क्यों करेंगे?
  3. भगवान अपनी माया से सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं, पर उनका माया से संबंध कैसे हो सकता है जब उनका ज्ञान कभी लोप नहीं होता?
  4. सृष्टि की रचना में भगवान ने महत् तत्त्व और उसके विकारों को रचकर विराट पुरुष की उत्पत्ति की, इसके बाद भगवान स्वयं उसमें कैसे प्रविष्ट हुए?
  5. विराट पुरुष की रचना से ब्राह्मणादि वर्ण, इन्द्रिय, और विषयों का सृजन कैसे हुआ?
  6. प्रजापति, मन्वन्तर और ब्रह्मादि विभूतियों के क्रम के बारे में जानकारी चाही।
  7. मनुष्यों, देवताओं, पशुओं, सरीसृपों और पक्षियों के चार प्रकार के जन्म (जरायुज, स्वेदज, अंडज, और उद्भिज्ज) के बारे में जानना चाहा।
  8. ब्रह्मा, विष्णु, और महादेव के गुणावतारों की लीलाओं के बारे में जानना चाहा।
  9. वेद, यज्ञ, योग, ज्ञानमार्ग, और तन्त्रशास्त्रों के साथ-साथ पाखंडमार्गों और गुण-कर्मों के प्रभावों पर जानकारी मांगी।
  10. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, दान, तपस्या, और श्राद्ध के विधानों की जानकारी चाही।
  11. ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति और उनके प्रभावों के बारे में जानना चाहा।
  12. प्रलय के प्रकार, योगनिद्रा में भगवान की सेवा करने वाले तत्त्व और उनमें विलीन होने वाले तत्त्व कौन से हैं?
  13. गुरु-शिष्य संबंध, जीव का तत्त्व, और परमेश्वर के स्वरूप के बारे में मार्गदर्शन मांगा।
  14. ज्ञान, भक्ति, और वैराग्य प्राप्ति के उपायों के बारे में जानकारी चाही।
  15. माया और मोह के कारण अपनी दृष्टि नष्ट होने का अनुभव व्यक्त करते हुए, भगवत्तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा जताई।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि विदुरजी के इन प्रश्नों से प्रसन्न होकर मैत्रेयजी ने हर्षपूर्वक उत्तर दिया। मैत्रेयजी ने विदुरजी के प्रश्नों के उत्तर में श्रीमद्भागवत पुराण का प्रारंभ करने की घोषणा की, जो स्वयं संकर्षण भगवान ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था। भगवान संकर्षण पाताललोक में विराजमान हैं, जहां सनत्कुमार आदि ऋषियों ने उनसे ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिए प्रश्न किया था। उस समय शेषजी भगवान वासुदेव की मानसिक पूजा कर रहे थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने उनके चरणों का प्रेमपूर्वक स्पर्श किया और संकर्षण भगवान ने उनको भागवत सुनाया था, फिर उन्होंने इसे सांख्यायन मुनि को सुनाया। सांख्यायन मुनि ने इसे अपने शिष्य पराशरजी और बृहस्पतिजी को सुनाया। पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कहने पर इसे मैत्रेयजी को बताया, और अब मैत्रेयजी विदुरजी को सुनाते हैं। 

ब्रह्मा के जन्म कथा

सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था और श्रीनारायण शेषशय्या पर योगनिद्रा में मग्न थे। भगवान ने अपनी दाहिका शक्ति को छिपाए हुए जैसे अग्नि काष्ठ में रहता है, वैसे ही जीवों के सूक्ष्म शरीरों को अपने में लीन कर रखा था। जब सृष्टि का समय आया, कालशक्ति ने उन्हें जगाया और उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोकों को देखा। जब भगवान की दृष्टि अपने सूक्ष्म शरीर पर पड़ी, तो रजोगुण से प्रभावित होकर वह सूक्ष्म तत्त्व नाभि से बाहर निकला और सृष्टि के लिए प्रकट हुआ। कालशक्ति के माध्यम से भगवान की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्म तत्त्व कमल के रूप में ऊपर उठा। उस कमल में भगवान विष्णु अंतर्यामी रूप से प्रविष्ट हो गए, और ब्रह्माजी, जो वेदों के ज्ञाता हैं, प्रकट हुए। ब्रह्माजी ने जब देखा कि कोई लोक नहीं दिख रहा है, तो उन्होंने चारों ओर देखने के लिए गर्दन घुमाई, जिससे उनके चार मुख बन गए। प्रलयकालीन पवन और जल की तरंगों के कारण ब्रह्माजी को अपने आधार और कमल के रहस्य का पता नहीं चला। उस आधार को खोजने के लिए जल में प्रवेश किया, लेकिन आधार को नहीं खोज सके। ब्रह्माजी ने अंधकार में अपने उत्पत्ति स्थल को खोजते हुए बहुत समय बिताया। अंततः विफलता के बाद, ब्रह्माजी ने अपने आधारभूत कमल पर लौटकर प्राणवायू को नियंत्रित किया और समाधि में स्थित हो गए। पूर्ण आयु (दिव्य सौ वर्ष) तक योगाभ्यास करने के बाद ब्रह्माजी को ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने अपने अंतःकरण में अपने अधिष्ठान को प्रकाशित होते देखा। ब्रह्माजी ने देखा कि प्रलयकालीन जल में शेषजी के कमलनाल सदृश विशाल शय्या पर भगवान अकेले लेटे हुए हैं। शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं और उनके मस्तकों पर कीरीट शोभायमान है। ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान के नाभि सरोवर से प्रकट हुआ कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर केवल यही पाँच पदार्थ दिखायी दिए। इनसे अधिक कुछ नहीं दिखा। ब्रह्माजी ने प्रजाकी रचना के लिए इन पाँच पदार्थों को देख कर, भगवान की स्तुति की और लोकविधाता की रचना की इच्छाओं में मग्न हो गए।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 09.09.2024