Log in
English

64- समुद्र मंथन की कथा: कूर्म अवतार और विषपान से नीलकंठ बने शिव

Jun 5th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 5-7

श्री शुकदेवजी चौथे मन्वन्तर में हुआ भगवान की गजेन्द्र मोक्ष की लीला सुनाने के पश्चात परीक्षित को आगे के मन्वन्तर के बारे में बताते हैं।

पाँचवाँ मन्वंतर:
  • मनु का नाम – रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके पुत्र थे: पुत्र अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि।
  • उस मन्वंतर के इन्द्र का नाम विभु था। देवता भूतरय आदि देवगण और सप्तर्षि हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि थे।
  • भगवान का अवतार – शुभ्र ऋषि की पत्नी विकुण्ठा के गर्भ से भगवान ने वैकुण्ठ नाम से अवतार लिया। वे श्रेष्ठ देवताओं के साथ प्रकट हुए और लक्ष्मीजी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्होंने वैकुण्ठधाम की रचना की, जो समस्त लोकों में श्रेष्ठ है।
छठा मन्वंतर:
  • मनु का नाम – चाक्षुष। वे मनु चक्षु के पुत्र थे। पुत्र – पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि।
  • उस मन्वंतर के इन्द्र का नाम मन्त्रद्रुम था। देवता आप्य आदि देवगण और सप्तर्षि हविष्यमान, वीरक आदि थे।
  • भगवान का अवतार – वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से भगवान ने अजित नाम से अवतार लिया। उन्होंने ही समुद्र मंथन कराया, देवताओं को अमृत पिलाया और कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल पर्वत को मथानी के रूप में स्थिर रखा।
राजा परीक्षित् ने शुकदेवजी से पूछा—भगवान ने समुद्र मंथन कैसे किया? कच्छप रूप क्यों लिया? अमृत कैसे मिला और क्या-क्या चीजें समुद्र से निकलीं?

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- जिस समयकी यह बात है, उस समय असुरोंने अपने तीखे शस्त्रोंसे देवताओंको पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुत सारे देवता मारे गए और जो बचे, वे भी बेहद कमजोर हो गए। दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण इन्द्र और तीनों लोक श्रीहीन हो गए थे। यज्ञ और धर्म-कर्म भी बंद हो गए थे।

यह स्थिति देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवता सभी सुमेरु पर्वत पर ब्रह्माजी के पास जाते हैं और उनसे मदद मांगते हैं।
ब्रह्माजी देखते हैं कि देवता अब शक्तिहीन हो चुके हैं और असुर खूब फल-फूल रहे हैं। तब वे मन लगाकर परम पुरुष भगवान का ध्यान करते हैं और देवताओं से कहते हैं, "हे देवगण! यह संकट हम स्वयं नहीं सुलझा सकते। इस समय भगवान ने सत्त्वगुण को अपनाया है, यानी वे सृष्टि की रक्षा करना चाहते हैं। इसलिए हम सबको मिलकर उन्हीं की शरण लेनी चाहिए। वे अवश्य ही हमारी रक्षा करेंगे।"

ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् अजितके निजधाम वैकुण्ठमें गये। वह धाम तमोमयी प्रकृतिसे परे है। इन लोगोंने भगवानके स्वरूप और धामके सम्बन्धमें पहलेसे ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जानेपर उन लोगोंको कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मनसे वेदवाणीके द्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे।

जब देवताओं ने भगवान श्रीहरि की स्तुति की, तो वे उसी समय उनके बीच प्रकट हो गये। उनका तेज इतना प्रबल था जैसे हजारों सूर्य एक साथ उदय हो गए हों। उस प्रकाश से देवताओं की आँखें चौंधिया गईं। वे न भगवान को देख सके, न आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी या यहां तक कि अपने शरीर को भी नहीं देख पाए। केवल ब्रह्माजी और भगवान शंकर ही उस दिव्य रूप को देख सके।

भगवान का स्वरूप अत्यंत मनोहर था- श्यामल शरीर, कमल जैसे नेत्र, सुनहरा पीताम्बर, मणियों से जड़ा मुकुट, कानों में कुण्डल, वक्ष पर लक्ष्मीजी और कौस्तुभ मणि, गले में वनमाला, और शरीर के हर अंग से प्रसन्नता झलक रही थी।
उनके दिव्य आयुध जैसे सुदर्शन चक्र भी सजीव रूप में उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवता भूमि पर साष्टांग प्रणाम में गिर पड़े। फिर शंकरजी और ब्रह्माजी के साथ मिलकर सबने परम पुरुष भगवान की स्तुति की।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—  परीक्षित! भगवान अकेले ही उनका सब कार्य करनेमें समर्थ थे, फिर भी समुद्रमन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओंको की स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदयकी बात जानकर भगवान् मेघके समान गम्भीर वाणीसे बोले।

भगवान श्रीहरि ने देवताओं से कहा —“इस समय असुरोंपर कालकी कृपा है। इसलिये जबतक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवोंके पास जाकर उनसे सन्धि कर लो। देवताओ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं।तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है।

पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है।

देवताओ! विश्वास रखो-दैत्योंको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको। असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्तिसे सब काम बन जाते हैं, क्रोध करनेसे कुछ नहीं होता।

पहले समुद्रसे कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तुके लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तुकी कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये।”

भगवान ने देवताओं को यह सलाह देकर वहीं उनके बीच से अन्तर्धान हो गये। ब्रह्माजी और शंकरजी ने उन्हें प्रणाम किया और अपने-अपने लोकों को लौट गये। इसके बाद इन्द्र और अन्य देवता असुरराज बलि के पास सन्धि करने पहुँचे। देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के आता देख दैत्यसेनापति गुस्से में आ गए और उन्हें पकड़ना चाहा, पर बुद्धिमान बलि ने उन्हें रोक दिया। वह सन्धि और उचित समय को समझने वाला था। बलि उस समय तीनों लोकों का विजेता बन चुका था और राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। इन्द्र ने भगवान की सिखाई हुई मीठी बातें उसे समझाईं, जो बलि को पसंद आईं। अन्य दैत्य जैसे शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरवासी असुरों को भी यह बात अच्छी लगी।

तब देवता और असुरों में सन्धि हो गई और वे सब मिलकर अमृत मंथन के लिये पूरी तैयारी में लग गए। सबने मिलकर मन्दराचल पर्वत को उखाड़ लिया और उसे समुद्रतट तक ले जाने लगे। लेकिन वह पर्वत बहुत भारी था, और दूरी भी ज़्यादा थी — इस कारण वे थक हार गए और मजबूर होकर पर्वत को बीच रास्ते में पटक दिया। मन्दराचल गिरते समय कुछ देवता और दैत्य उसमें दबकर घायल हो गये। तभी भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने अमृतमयी दृष्टि से सभी को ठीक कर दिया। फिर भगवान ने खेल-खेल में एक ही हाथ से मन्दराचल को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख दिया और स्वयं भी चढ़ गये। सब देवता और असुर भगवान के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। वहाँ गरुड़ ने पर्वत को उतारा और फिर भगवान की आज्ञा लेकर वहाँ से चले गये।

देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृतमें तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगोंने वासुकि नागको नेतीके समान मन्दराचलमें लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्दसे अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकिके मुखकी ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे। परन्तु भगवान्की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियोंको पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँपका अशुभ अंग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे। भगवान्ने मुसकराकर वासुकिका मुँह छोड़ दिया और देवताओंके साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ।

देवता और असुर समुद्र मंथन की तैयारी करके मन्दराचल को मथनी बनाकर मंथन करने लगे। लेकिन मन्दराचल भारी था और नीचे कोई आधार न होने से वह समुद्र में डूबने लगा। तब भगवान् श्रीहरि ने विघ्न को दूर करने के लिए विशाल कच्छप (कूर्म) रूप धारण किया और समुद्र में जाकर मन्दराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया।

अब पर्वत फिर स्थिर हो गया और मंथन दोबारा शुरू हुआ। भगवान् की पीठ पर पर्वत के घूमने से ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो। साथ ही भगवान्ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढाते हए असुररूपसे प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे। इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थिर हो गये।

इस प्रकार, भगवान ने समुद्र मंथन के सभी पहलुओं में स्वयं को समाहित कर दिया:
  • पहाड़ के शीर्ष पर स्थिरता के रूप में,
  • कूर्म अवतार के रूप में नीचे,
  • दानवों में शक्ति के रूप में,
  • देवताओं में दिव्य उत्साह के रूप में,
  • पर्वत में दृढ़ता के रूप में, और
  • वासुकी नाग में निद्रा के रूप में, ताकि रस्सी को कष्ट न हो।
अब देवता और असुर दोनों भगवान के बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये।

नागराज वासुकि के हजारों मुखों से विष और धुआँ निकलने लगा। उसकी आग जैसी साँसों से असुर जैसे बलि, इल्वल आदि निस्तेज हो गये, जैसे आग में झुलसे पेड़। देवता भी प्रभावित हुए — उनके वस्त्र, माला, कवच और मुख धूमिल हो गये। तब भगवान् की प्रेरणा से बादलों ने देवताओं पर वर्षा की और समुद्र की शीतल हवा ने उन्हें ठंडक और सुगंध दी। इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्रमन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजितभगवान् समुद्रमन्थन करने लगे। वे श्यामवर्ण, सुनहरे वस्त्रधारी, वनमालाधारी और कुण्डलयुक्त दिव्य स्वरूप में प्रकट हुए। कूर्मरूप में पर्वत को धारण कर, वासुकि को पकड़कर वे स्वयं मंथन करने लगे।

उनके मंथन से समुद्र में हलचल मच गयी। तब सबसे पहले भयंकर हालाहल विष निकला। वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असहा विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। इससे सब देव, दानव और प्रजापति भयभीत होकर भगवान् शंकर की शरण में गये, जो उस समय कैलास पर्वत पर तपस्या में लीन थे। प्रजापतियों ने भगवान शंकर की स्तुति करते हुए कहा, "हे देवताओं के आराध्य महादेव! हम आपकी शरण में आए हैं। यह जो त्रिलोकी को भस्म कर देनेवाला उग्र विष उत्पन्न हुआ है, उससे कृपा करके हमारी रक्षा कीजिए।"

प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शंकरके हृदयमें कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही- "देवि! देखो तो सही, समुद्रमन्थनसे निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है| ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीनदुःखियोंकी रक्षा करें| सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियों के प्राणकी रक्षा करते हैं। 
कल्याणि! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं | उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो।"

श्रीशकदेवजी कहते हैं—विश्वके जीवनदाता भगवान शंकर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस विषको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया। भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये। वह ज़हर समुद्र के पापों का सार था, इतना तीव्र था कि शिवजी का गला नीला हो गया। लेकिन वह नीला गला ही उनके लिए आभूषण बन गया, जिससे वे "नीलकंठ" कहलाए।

परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजाका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्की परम आराधना है। देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे। जिस समय भगवान् शंकर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथसे थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवोंने एवं विषैली ओषधियोंने ग्रहण कर लिया।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं इस प्रकार जब भगवान् शंकरने विष पी लिया, तब देवता और असुरोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साहसे समुद्र मथने लगे।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 02.06.2025