Log in
English

15- श्रृष्टि विस्तार का क्रम

Aug 13th, 2024 | 7 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 4 और 5

शुकदेवजी के भगवद् तत्त्व से पूर्ण वचन राजा परीक्षित को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अपनी शुद्ध बुद्धि को अडिग भक्ति के साथ समर्पित करने की प्रेरणा देते हैं। निरंतर संलग्नता के कारण राजा परीक्षित को अपने शरीर, पत्नी, पुत्रों, धन, रिश्तेदारों, और अपने अजेय राज्य से गहरी लगाव हो गयी थी। परंतु अपनी मृत्यु के सही समय को पहचानकर, राजा परीक्षित ने धर्म, अर्थ, और काम से संबंधित सभी कार्यों को त्याग दिया और दृढ़ संकल्प और गहरी भक्ति के साथ, वे भगवान श्रीकृष्ण की महिमा सुनने के लिए श्री शुकदेवजी के पास जाते हैं। राजा परीक्षित शुकदेवजी से पूछते हैं, "हे पूज्य मुनिवर, आप परम शुद्ध और सर्वज्ञ हैं। जो आप कहते हैं, वह सत्य और उपयुक्त है। जब आप भगवान की दिव्य कथाओं का वर्णन करते रहते हैं, तो मेरे अज्ञान का आवरण हट रहा है।” परीक्षित ने शुकदेवजी के सामने यह प्रश रख दिये: 
  • भगवान अपनी माया के माध्यम से इस ब्रह्मांड की रचना कैसे करते हैं। 
  • भगवान इस संसार की रक्षा कैसे करते हैं और अंततः इसे कैसे भंग करते हैं? 
  • अनंत शक्ति से संपन्न भगवान विभिन्न ऊर्जाओं का उपयोग कैसे करते है? 

भगवान क्या-क्या करते हैं

परीक्षित के प्रश्न सुनके के बाद शुकदेवजी भगवान श्रीकृष्ण की वंदना करते हुए अपने प्रवचन की शुरुआत करते हैं। वह कहते हैं: 
  • भगवान सृष्टि, पालन, और संहार की लीलाओं को निभाने के लिए, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूप में सत्त्व, रजस और तमस की तीन ऊर्जाओं को स्वीकार करते हैं; जो सभी जीवों के भीतर, चल और अचल में, अंतर्व्याप्त रूप से निवास करते हैं; जिनका स्वभाव और उन्हें प्राप्त करने का मार्ग बौद्धिक समझ से परे है; जो अनंत हैं और जिनकी महिमा असीम है।
  • भगवान पुण्य आत्माओं के कष्टों को दूर करते हैं और उन्हें अपना प्रेम प्रदान करते हैं, अधर्मियों की सांसारिक प्रगति को रोकते हैं और उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं जो सर्वोच्च त्याग की अवस्था में स्थित हैं, क्योंकि सभी जीव, चाहे चेतन हो या अचेतन, भगवान के ही प्रकट स्वरूप हैं, इसलिए वे किसी के प्रति पक्षपात नहीं करते। परंतु भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को अत्यंत प्रेम करते हैं और उन लोगों की पहुँच से परे हैं जो बिना भक्ति के कठोर साधनाएँ करते हैं।
  • ज्ञानी लोग, जो उनके चरणकमलों में शरण लेते हैं, अपने हृदय से इस लोक और परलोक के प्रति लगाव को हटा देते हैं और ब्रह्म की सर्वोच्च अवस्था को सहजता से प्राप्त कर लेते हैं।
  • ज्ञानी, तपस्वी, दानी, पुण्यात्मा इत्यादि भी तब तक कल्याण प्राप्त नहीं करते जब तक कि वे अपनी साधनाओं और स्वयं को उनके चरणों में समर्पित नहीं करते।
  • भगवान ज्ञानीओं की आत्मा, भक्तों के स्वामी, कर्मकांडियों के लिए वेदों के अवतार, धार्मिक व्यक्तियों के लिए धर्म के प्रतीक, और तपस्वियों के लिए तप का सार हैं।
  • ब्रह्मा और शंकर जैसे महान देवता उनके रूप को शुद्ध हृदय से चिंतन करते हैं और आश्चर्यचकित होते हैं। वे लक्ष्मी देवी के पति हैं, सभी यज्ञों के फल के भोक्ता और दाता हैं, प्रजा रक्षक हैं, सभी में अंतर्निहित हैं, सभी लोकों के पोषक हैं, और पृथ्वी के स्वामी हैं।
भगवान ने सृष्टिके समय ब्रह्माके हृदयमें पूर्वकल्पकी स्मृति जागरित करनेके लिये ज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीको प्रेरित किया और वे अपने अंगोंके सहित वेदके रूपमें उनके मुखसे प्रकट हुईं।⁠ भगवान् ही पंचमहाभूतोंसे विभिन्न शरीरोंका निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयोंका भोग करते हैं⁠।

नारदजी-ब्रह्मा के बीच श्रष्टि संबंधी संवाद

शुकदेवजी कहते हैं की यह सब ज्ञान सबसे पहले नारदजी के प्रश्न करने पर ब्रह्मा ने उन्हें दिया था जो उनको स्वयं भगवान से प्राप्त हुई थी। नारदजी ने ब्रह्म से पूछा, "पिताजी! आप केवल मेरे पिता ही नहीं, बल्कि सभी के पिता और सभी देवताओं से श्रेष्ठ सृष्टिकर्ता भी हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूं। कृपया मुझे वह ज्ञान प्रदान करें जो आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।” नारदजी ने किया ब्रह्माजी से प्रश्न:
  • इस संसार का लक्षण क्या हैं? 
  • इसका आधार क्या है? 
  • इसे किसने बनाया है? 
  • यह किसमें विलीन होता है? 
  • यह किसके नियंत्रण में है? 
  • और इसका वास्तविक स्वभाव क्या है? 
नारदजी ने आगे कहा किया की आप सब कुछ जानते हैं क्योंकि आप भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी घटनाओं के स्वामी हैं। यह पूरा ब्रह्मांड आपकी जानकारी के दायरे में है, जैसे किसी के हाथ की हथेली में एक आंवले का फल होता है। 
  • पिताजी! आपने यह ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया? 
  • आप किस पर आधारित हैं? 
  • आपका गुरु कौन है? 
  • और आपका सच्चा स्वरूप क्या है? 
नारदजी ब्रह्मजी की प्रसंसा करते हुए कहा की जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें खेलने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्तिके आश्रयसे जीवोंको अपनेमें ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आपमें कोई विकार नहीं होता। जगत्‌में नाम, रूप और गुणोंसे जो कुछ जाना जाता है उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता जो आपके सिवा और किसीसे उत्पन्न हुई हो ।⁠इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्रचित्तसे घोर तपस्या की, इस बातसे मुझे मोहके साथ-साथ बहुत बड़ी शंका भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या।⁠ आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं⁠। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेशको ठीक-ठीक समझ सकूँ। 

भगवान सब कारणों के कारण हैं 

नारदजी के प्रश्न सुनने पर ब्रह्माजी ने स्वीकारा की जब तक कोई स्वयं भगवान को नहीं जानता तब तक उन्हें ऐसा ही लगता है की सब ब्रह्मा ही कर रहे हैं। जैसे सूर्य, अग्नि, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, और तारे भगवान  के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं, ब्रह्माजी भी भगवान  के आत्मप्रकाश से प्रकाशित हैं, जो पूरे ब्रह्मांड को उजागर करता है। ब्रह्माजी ने भगवान वासुदेव को प्रणाम किया और ध्यान किया, जिनकी अद्भुत माया लोगों को भ्रमित करती है और ब्रह्माजी को विश्व के गुरु के रूप में देखती है। यह माया भगवान के सामने नहीं ठहर सकती और दूर से पीछे हट जाती है, फिर भी अज्ञानी लोग इस माया से भ्रमित होते हैं और ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ का दावा करते हैं। पदार्थ, क्रियाएँ, समय, प्रकृति, और जीव भगवान  से अलग नहीं हैं।
नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः ⁠।
नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ⁠।⁠।⁠

नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः ⁠
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ⁠।⁠।⁠
​​वेद नारायणके परायण हैं⁠। देवता भी नारायणके ही अंगोंमें कल्पित हुए हैं और समस्त यज्ञ भी नारायणकी प्रसन्नताके लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, वे भी नारायणमें ही कल्पित हैं ⁠।⁠ सब प्रकारके योग भी नारायणकी प्राप्तिके ही हेतु हैं⁠। सारी तपस्याएँ नारायणकी ओर ही ले जानेवाली हैं, ज्ञानके द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं⁠। समस्त साध्य और साधनोंका पर्यवसान भगवान् नारायणमें ही है ⁠।⁠ (भागवत 2.4.14/15)

ब्रह्माजी कहते हैं, “भगवान द्रष्टा होनेपर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होनेपर भी सर्वस्वरूप हैं⁠। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टिसे ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ।” 

भगवान् मायाके गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं⁠। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं ⁠।⁠ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर मायातीत नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामें स्थित होनेपर कार्य, कारण और कर्तापनके अभिमानसे बाँध लेते हैं। इन्द्रियातीत भगवान् गुणोंके इन तीन आवरणोंसे अपने स्वरूपको भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते⁠। सारे संसारके और मेरे (ब्रह्म के) भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ⁠।⁠

श्रृष्टि विस्तार का क्रम

ब्रह्माजी श्रृष्टि का क्रम बताते हुए नारदजी को कहते हैं की भगवान, माया के स्वामी, ने एक से अनेक बनने की इच्छा की और अपने माया के माध्यम से काल, कर्म, और स्वभाव को स्वीकार किया।

  1. काल- काल ने तीन गुणों- राजस, सत्त्व और तमस में क्षोभ (हलचल) उत्पन्न किया।
  2. स्वभाव- स्वभावने तीन गुणों को रूपान्तरित कर दिया ।
  3. कर्म- कर्मने महत्तत्त्वको जन्म दिया।
जैसे ही रजोगुण और सत्त्वगुण बढ़े, महत्तत्त्व में विकार हुआ। इससे तमस प्रधान विकार उत्पन्न हुआ, जिसे अहंकार कहा जाता है। अहंकार के तीन मुख्य रूप हैं:

  1. वैकारिक- ज्ञानशक्ति से संबंधित। वैकारिक अहंकार से मन और दस इंद्रियों के देवता उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति।
  2. तैजस- क्रियाशक्ति से संबंधित। तैजस अहंकार के विकार से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रिय) ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और  क्रियाशक्तिरूप प्राण उत्पन्न हुए ⁠।⁠
  3. तामस- द्रव्यशक्ति से संबंधित। तामस अहंकार के रूपांतरण से पंचत्त्व उत्पन्न हुए।  
    • आकाश- जिसकी मुख्य गुणवत्ता ध्वनि है।
    • आकाश से वायु- जिसकी विशेषता स्पर्श है।
    • वायु से अग्नि-जिसकी मुख्य विशेषता रूप है।
    • अग्नि से जल- जिसकी विशेषता रस है।
    • जल से पृथ्वी- जिसकी विशेषता गंध है।
जब इन पांचतत्वों, इंद्रियों, मन और गुणों को एक साथ व्यवस्थित किया गया, तब शरीर का निर्माण हुआ। ब्रह्मांड का यह ब्रह्मांडीय अंडा हजार वर्षों तक निर्जीव पड़ा रहा, फिर भगवान ने इसमें जीवन संचारित किया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 12.08.2024