श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 1, 2 और 3
श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंद के अंत में शौनकजीने सूतजी से पूछा था तीर्थयात्रा पर निकले विदुरजी का मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें कहाँ और किस तत्त्व के संबंध में संवाद हुआ था? इसपर सूतजीने बताया कि राजा परीक्षित्ने भी यही बात शुकदेवजी से पूछी थी। उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराजने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगोंसे कहता हूँ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं की परीक्षित! यह उन दिनों की बात है जब अंधे राजा धृतराष्ट्र ने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डु के अनाथ बालकों को लाक्षागृह में भेजकर आग लगवा दी थी।जब द्रौपदी के केश दुःशासन ने भरी सभा में खींचे, तो धृतराष्ट्र ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। जब दुर्योधन ने युधिष्ठिर का राज्य जुए में जीत लिया और उन्हें वनवास दिया, तब भी धृतराष्ट्र ने उन्हें उनका न्यायसंगत हिस्सा नहीं दिया। तब विदुरजी ने धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा, "महाराज! आप युधिष्ठिर को उनका हिस्सा दे दीजिए। पाण्डवों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, और आप उनके पक्ष को छोड़कर गलत राह पर चल रहे हैं। जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है। यह तो भगवान् श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरन्त ही त्याग दीजिये।”
विदुरजी की नीतिपूर्ण सलाह सुनते ही दुर्योधन क्रोधित हो गया और विदुरजी का अपमान करते हुए उन्हें नगर से बाहर निकलने का आदेश दिया। विदुरजी ने कुछ बुरा न मानते हुए अपने धनुष को राजद्वार पर रखा और हस्तिनापुर छोड़ दिया। कौरवों द्वारा किए गए अपमान के बाद विदुरजी ने तीर्थों की यात्रा शुरू की। वे विभिन्न तीर्थस्थलों, पवित्र नगरों, वन, पर्वत, और नदियों में भ्रमण करते हुए युधिष्ठिर के एकछत्र राज्य की खबर मिलने तक भारतवर्ष में विचरण करते रहे। जब विदुरजी प्रभास क्षेत्र पहुंचे, तो उन्होंने अपने कौरव बंधुओं के विनाश की खबर सुनी और वे शोक करते हए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये। वहाँ उन्होंने ग्यारह पवित्र तीर्थ स्थलों का दर्शन और स्नान किया। वहाँसे चलकर वे जब कुछ दिनोंमें यमुनातटपर पहुंचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजीका दर्शन किया।
उद्धव-विदुर भेंट
उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्णके प्रख्यात सखा, सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजीके शिष्य रह चुके थे। विदुरजीने उन्हें देखकर प्रेमसे गाढ़ आलिंगन किया और अपने प्रिय भगवान श्रीकृष्ण और उनके परिवार की कुशल-क्षेम के बारे में पूछा। उन्होंने उद्धवजी से पूछा कि क्या भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, और वसुदेवजी स्वस्थ और सुखी हैं? उन्होंने यह भी पूछा कि यादव कुल के अन्य प्रमुख लोग, जैसे प्रद्युम्नजी, साम्ब, सात्यकि, अक्रूरजी, और देवकीजी कैसे हैं? विदुरजी ने पांडवों के बारे में भी पूछा, जैसे कि युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, और उनकी माता कुन्तीजी कैसे हैं? उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि भगवान श्रीकृष्ण, जो जन्म और कर्म से परे हैं, फिर भी संसार के भले के लिए यदुकुल में अवतार लेते हैं। विदुरजी ने उद्धवजी से श्रीकृष्ण की पवित्र और महान कथाएं सुनाने की इच्छा व्यक्त की।
जब विदुरजी ने उद्धवजी से श्री कृष्ण के बारे में पूछा, तो उद्धवजी को अपने स्वामी का स्मरण हो आया। उनके हृदय में भावनाएं इतनी उमड़ आईं कि वे कुछ भी नहीं कह पाए। जब वे पांच साल के थे, तब बच्चों की तरह श्री कृष्ण की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा में इतने लीन हो जाते थे कि माँ के बुलाने पर भी नहीं छोड़ते थे। अब लंबे समय से श्री कृष्ण की सेवा करते-करते वे बूढ़े हो चुके थे। विदुरजी के प्रश्न से उन्हें श्री कृष्ण के चरणों की याद आई, और वे विरह से व्याकुल हो गए। उद्धवजी प्रेम की स्थिति में थे, जिससे वे कुछ समय तक चुप रहे। कुछ समय बाद जब उद्धवजी सामान्य स्थिति में लौटे, तो उन्होंने श्री कृष्ण के प्रेम को याद करके विदुरजी से कहा की श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जानेसे हमारे घरोंको कालरूप अजगरने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ। यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना। यादवलोग मनके भावको ताड़नेवाले, बड़े समझदार और भगवानके साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा।
किंतु भगवानकी मायासे मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थका वैर ठाननेवाले शिशुपाल आदिके अवहेलना और निन्दासूचक वाक्योंसे भगवत्प्राण महानुभावोंकी बुद्धि भ्रममें नहीं पड़ती थी। जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगोंको भी इतने दिनोंतक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसाको तृप्त किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रहको छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है। भगवान्ने अपनी योगमायाका प्रभाव दिखानेके लिये मानवलीलाओंके योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान् के उस रूपपर लोगोंकी दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकीने यही माना था कि मानव-सृष्टिकी रचनामें विधाताकी जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है। उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन को देखने से उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोड़कर जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं ।
श्रीकृष्ण की लीलाएँ
जब भगवान ने देखा कि महात्माओं को असुर सताने लगे हैं, तो वे करुणा से द्रवित हो गए और अजन्मा होते हुए भी भगवान अपने अंश बलरामजी के साथ जैसे लकड़ी में अग्नि प्रकट होती है, वैसे प्रकट हुए।
- अजन्मा होते हुए भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेना।
- सबको अभय देने वाले होते हुए भी मानो कंस के भय से व्रज में जाकर छिप जाना।
- अनंत पराक्रमी होते हुए भी कालयवन के सामने मथुरा पुरी छोड़कर भाग जाना।
श्रीकृष्ण की ये लीलाएँ याद करके उद्धवजी का चित्त विव्हल हो जाता है। वह कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने जो देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था—‘पिताजी, माताजी! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। जिन्होंने कालरूप अपने भ्रुकुटि विलाससे ही पृथ्वीका सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्णके पादपद्मपरागका सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके। राजसूय यज्ञमें सब ने प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाले शिशुपालको वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भलीभाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है।
शिशुपालके ही समान महाभारत-युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओंने अपनी आँखोंसे भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करते हुए अर्जुनके बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्के परमधामको प्राप्त हो गये। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकोंके अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकारकी भेंटें ला-लाकर अपने-अपने मुकुटोंके अग्रभागसे उनके चरण रखनेकी चौकीको प्रणाम किया करते हैं।वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राज सिंहासनपर बैठे हुए उग्रसेनके सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भावकी याद आते ही हम-जैसे सेवकोंका चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है।
अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ।।
पापिनी पूतनाने अपने स्तनोंमें हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्णको मार डालनेकी नियतसे उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान्ने वह परम गति दी, जो धायको मिलनी चाहिये। उन भगवान् श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहणकरें । (भागवत: 3.2.23)
मैं असुरोंको भी भगवान्का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोधके कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्णमें लगा रहता था। पृथ्वी का भार उतारने और उसे सुखी करने के लिए ब्रह्माजी की प्रार्थना पर भगवान ने कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ अवतार लिया।
- कंस के डर से वसुदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण को नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया।
- श्रीकृष्ण 11 वर्षों तक बलरामजी के साथ व्रज में छिपकर रहे और उनका प्रभाव व्रज के बाहर प्रकट नहीं हुआ।
- यमुनाजी के उपवन में, हरे-भरे वृक्षों के बीच, श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ बछड़ों को चराते हुए विहार करते। श्रीकृष्ण अपनी बाल-लीलाओं से व्रजवासियों को आकर्षित करते—कभी रोते, हँसते, या सिंहशावक की भांति देखते। बड़े होने पर, वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी गौओं को चराते और गोपों को बाँसुरी बजाकर रिझाते।
- कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई मायावी राक्षस भेजे, जिन्हें भगवान ने खेल-खेल में मार डाला।
- कालियनाग का दमन कर विष मिला हुआ जल पीने से मरे हुए ग्वालबालों और गौओं को श्रीकृष्ण ने जीवित किया।भगवान ने नन्दबाबा से गोवर्धनपूजा करवाकर इन्द्र के मान का भंग किया।
- इन्द्र के क्रोधित होकर मूसलधार वर्षा करने पर श्रीकृष्ण ने करुणावश गोवर्धन पर्वत उठाकर व्रजवासियों और उनके पशुओं की रक्षा की।
- शरद पूर्णिमा की चाँदनी में श्रीकृष्ण मधुर गान करते हुए गोपियों के साथ रासविहार करते।
- इसके पश्चात व्रजलीला समाप्त करके श्रीकृष्ण ने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख देने की इच्छा से बलरामजी के साथ मथुरा पधारकर कंस का वध किया।
- सान्दीपनि मुनि के वेदों का अध्ययन कर, श्रीकृष्ण ने दक्षिणा में मुनि के मरे हुए पुत्र को यमपुरी से लाकर दिया।
- रुक्मिणी का हरण करके श्रीकृष्ण ने उनसे गान्धर्व विधि से विवाह किया। फिर स्वयंवरमें सात बिना नथे हुए बैलोंको नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जानेपर मूर्ख राजाओंने शस्त्र उठाकर राजकुमारीको छीनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रोंसे उन्हें मार डाला ।भगवान् विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामाको प्रसन्न करने के लिए श्रीकृष्ण स्वर्ग से कल्पवृक्ष लाये और इंद्र के क्रोध का सामना किया।
- भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपने विशाल पुत्र भौमासुर को मार गिराया, तो पृथ्वी ने उनसे प्रार्थना की। इसके बाद श्रीकृष्ण ने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य सौंप दिया और महल में प्रवेश किया।
- वहाँ भौमासुर द्वारा हरी गई कई राजकन्याएँ थीं। जैसे ही उन्होंने दीनबन्धु श्रीकृष्ण को देखा, वे खड़ी हो गईं और हर्ष, लज्जा व प्रेम भरी नजरों से भगवान को अपना पति मान लिया। फिर श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से उन सभी के अनुरूप कई रूप धारण किए और एक ही समय में सबके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और उनसे अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये।
- जब कालयवन, जरासंध और शाल्व आदि ने अपनी सेनाओं के साथ मथुरा और द्वारका पर आक्रमण किया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अलौकिक शक्ति का उपयोग कर अपने लोगों से उन शत्रुओं को मरवाया। शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल और दन्तवक्त्र जैसे योद्धाओं में से कुछ को उन्होंने स्वयं मारा और कुछ को दूसरों से मरवाया।
इसके बाद उन्होंने धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्रोंका पक्ष लेकर आये हुए राजाओंका भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्रमें पहुँचनेपर पृथ्वीडगमगाने लगी थी। कर्ण, दुःशासन और शकुनि की गलत सलाह से दुर्योधन की आयु और संपत्ति नष्ट हो चुकी थी, और भीमसेन की गदा से उसकी जाँघ टूट गई थी। दुर्योधन को अपने साथियों के साथ जमीन पर पड़ा देखकर भी श्रीकृष्ण को कोई प्रसन्नता नहीं हुई। श्रीकृष्ण सोचने लगे, ‘यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेनके द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेनाका विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वीका कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्यम्न आदिके बलसे बढ़े हुए यादवोंका दुःसह दल बना ही हआ है । जब ये मधुपानसे मतवाले हो आपसमें लड़ने लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असलमें मेरे संकल्प करनेपर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे।’
भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर युधिष्ठिर को उनके पैतृक सिंहासन पर बैठाया और अपने सभी सगे-संबंधियों को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भगवान ने बचा लिया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध यज्ञ करवाए, और पांडव भाइयों ने उनके मार्गदर्शन में पृथ्वी की रक्षा करते हुए आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत किया। श्रीकृष्ण द्वारका में रहकर लोक और वेद की मर्यादाओं का पालन करते हुए सभी प्रकार के भोगों का आनंद लेते रहे, लेकिन उन्होंने कभी उनमें आसक्ति नहीं दिखाई, क्योंकि उनका उद्देश्य सांख्ययोग की स्थापना करना था। अपनी मधुर मुस्कान, स्नेहमयी दृष्टि, अमृत जैसी वाणी और निर्मल चरित्र से उन्होंने लोक और परलोक में विशेष रूप से यादवों को आनंदित किया। इस तरह वर्षों तक गृहस्थ जीवन के भोगों का आनंद लेते-लेते उन्हें इन भोग सामग्रियों से वैराग्य हो गया।
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विस्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ।।
ये भोगसामग्रियाँ ईश्वरके अधीन हैं और जीव भी उन्हींके अधीन है। जब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोगके द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे करेगा? (भागवत: 3-3-23)
एक बार द्वारकापुरी में खेलते समय, यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ ऋषियों का मजाक उड़ाया। यह देखकर ऋषियों ने समझा कि अब यादवकुल का नाश ही भगवान की इच्छा है, इसलिए उन्होंने उन बालकों को शाप दे दिया। कुछ महीनों बाद, वृष्णि, भोज और अंधकवंशी यादव बहुत हर्ष के साथ रथों पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र गए। वहाँ उन्होंने स्नान किया और तीर्थ के जल से अपने पितरों, देवताओं और ऋषियों का तर्पण किया। उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सी भेंट किए। इसके बाद, उन वीरों ने पृथ्वी पर सिर टेककर गौ और ब्राह्मणों को प्रणाम किया। फिर, ब्राह्मणों की आज्ञा से यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। मदिरा के सेवन से उनका ज्ञान नष्ट हो गया, और वे एक-दूसरे को दुर्वचनों से अपमानित करने लगे। मदिरा के नशे में उनकी बुद्धि और अधिक बिगड़ गई, और जैसे आपस में रगड़ से बांसों में आग लग जाती है, वैसे ही सूर्यास्त तक उनमें मारकाट शुरू हो गई। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माया की इस विचित्र लीला को देखा और सरस्वती नदी के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। इससे पहले, शरणागतों के दुःख हरने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने यह जानते हुए कि उनके कुल का संहार होने वाला है, मुझसे कहा था कि मैं बदरिकाश्रम चला जाऊं।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 6.09.2024