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46- सप्तद्वीप और लोकालोक पर्वत की अद्भुत संरचना और त्रिलोक की सीमाएँ

Feb 2nd, 2025 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 20

श्री शुकदेवजी ने पहले ही परीक्षित को मनु पुत्र प्रियव्रत के द्वारा भूलोक को सात द्वीपों में बाँटने की अद्भुत कथा सुनाई थी। एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान सूर्य सुमेरुकी परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वीके जितने भागको आलोकित करते हैं, उसमेंसे आधा ही प्रकाशमें रहता है और आधेमें अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रातको भी दिन बना दूंगा;’ सूर्यके समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथपर चढ़कर द्वितीय सूर्यकी ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वीकी सात परिक्रमाएँ कर डालीं।भगवान्की उपासनासे इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था ।उस समय इनके रथके पहियोंसे जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वीमें सात द्वीप हो गये ।

इन द्वीपों के नाम क्रमशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर हैं। प्रत्येक द्वीप अपने से पूर्ववर्ती द्वीप की तुलना में आकार में दोगुना बड़ा होता है। ये सभी समुद्रों से घिरे हुए हैं। सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठा और मीठे जल से परिपूर्ण हैं। ये समुद्र सातों द्वीपों की खाइयों के समान हैं और अपने भीतर स्थित द्वीप के बराबर विस्तार वाले हैं। प्रत्येक समुद्र एक-एक करके क्रमशः सातों द्वीपों को बाहर से घेरता है। इसके पश्चात महाराज प्रियव्रत भूलोक के सातों द्वीप अपने पुत्रों में विभाजित कर भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं।

श्रीशुकदेवजी परीक्षित से आगे भूमंडल के अन्य द्वीपों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

जम्बूद्वीप

जम्बूद्वीप वह स्थान है, जिसमें हम निवास करते हैं। यह भूमंडलरूप कमल के सात द्वीपों में सबसे भीतरी कोशस्थानीय द्वीप है, जो एक लाख योजन के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसका आकार कमलपत्र के समान गोलाकार है। इसमें कुल नौ खंड (वर्ष) हैं, जिनका क्षेत्रफल समान रूप से नौ-नौ हजार योजन है। इन खंडों को आठ पर्वत अलग-अलग भागों में विभाजित करते हैं। इन नौ वर्षों में से इलावृत वर्ष सबसे प्रमुख और पवित्र है, क्योंकि इसके मध्य में दिव्य मेरु पर्वत स्थित है। मेरु पर्वत से प्रवाहित अनेक पवित्र नदियाँ पूरे जम्बूद्वीप को जीवनदायिनी जलधारा से सिंचित करती हैं।

इन वर्षों में भारतवर्ष को छोड़कर शेष सभी वर्षों को भूलोक के स्वर्ग के रूप में वर्णित किया गया है। वहाँ के निवासी त्रेतायुग समान दिव्य जीवन जीते हैं, जहाँ सौंदर्य, शक्ति और आनंद का अनवरत प्रवाह है। पर्वतों की सुरम्य घाटियाँ, आश्रम, वन-उपवन, और पुष्पों से लदे वृक्ष देवताओं के विहार के लिए सुसज्जित हैं। जलाशयों में खिले कमल और पक्षियों की मधुर चहचहाहट वातावरण को दिव्यता से भर देती है। इन वर्षों में भगवान नारायण अपनी विभिन्न मूर्तियों से निवास करते हुए वहाँ के निवासियों पर कृपा बरसाते हैं। जम्बूद्वीप के ये नौ वर्ष हैं— इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, हरिवर्ष, केतुमालवर्ष, रम्यकवर्ष, हिरण्मयवर्ष, उत्तर कुरुवर्ष, किम्पुरुषवर्ष और भारतवर्ष।

प्लक्षद्वीप

जिस प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीप से घिरा हुआ है, वैसे ही जम्बूद्वीप भी अपने समान आकार और विस्तार वाले खारे पानी के समुद्र से घिरा हुआ है। जैसे खाई के चारों ओर बगीचा होता है, वैसे ही यह क्षार समुद्र अपने से दोगुने बड़े प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है। जम्बूद्वीप में जितना विशाल जामुन का वृक्ष है, उतना ही बड़ा और स्वर्ण के समान चमकने वाला प्लक्ष (पाकर) का वृक्ष यहाँ स्थित है, इसी कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप पड़ा। इस द्वीप में सात जिह्वाओं वाले अग्निदेव निवास करते हैं। इस द्वीप के राजा महाराज प्रियव्रत के पुत्र इध्मजिह्व थे, जिन्होंने इसे सात भागों में विभाजित कर अपने सात पुत्रों को सौंप दिया और स्वयं आध्यात्मिक साधना में लीन हो गए।

इन सात वर्षों (भागों) के नाम शिव, यवस, सुभद्र, शांत, क्षेम, अमृत और अभय हैं। प्रत्येक वर्ष में सात प्रसिद्ध पर्वत और सात नदियाँ प्रवाहित होती हैं। सात पर्वत हैं – मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल। सात नदियाँ हैं – अरुणा, नृम्णा, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा।

यहाँ चार वर्ण होते हैं – हंस, पतंग, ऊर्ध्वायन और सत्यांग। इन नदियों के जल में स्नान करने से लोगों के रजोगुण और तमोगुण धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। यहाँ के लोगों की आयु एक हजार वर्ष होती है और इनके शरीर देवताओं की तरह थकान व पसीनारहित होते हैं। इनकी संतानोत्पत्ति भी देवताओं की भाँति होती है। ये सभी सूर्यभगवान की उपासना करते हैं और उनकी स्तुति करते हैं। प्लक्षद्वीप और अन्य पाँच द्वीपों में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों को समान आयु, इंद्रियबल, मनोबल, शारीरिक शक्ति, बुद्धि और पराक्रम प्राप्त होता है।

शाल्मली द्वीप

प्लक्षद्वीप अपने ही समान विस्तार वाले इक्षुरस (गन्ने के रस) के समुद्र से घिरा हुआ है। इसके आगे इससे दोगुने आकार का शाल्मली द्वीप स्थित है, जो अपने ही समान विस्तार वाले मदिरा (शराब) के समुद्र से घिरा हुआ है। जैसे प्लक्षद्वीप में विशाल पाकर का वृक्ष है, वैसे ही शाल्मली द्वीप में उतना ही बड़ा शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है। कहा जाता है कि यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान की स्तुति करने वाले पक्षिराज गरुड का निवास स्थान है, और इसी कारण इस द्वीप का नाम शाल्मली द्वीप पड़ा।

इस द्वीप के राजा महाराज प्रियव्रत के पुत्र यज्ञबाहु थे। उन्होंने इसे सात भागों में विभाजित कर अपने सात पुत्रों को सौंप दिया। इन भागों के नाम हैं – सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन और अविज्ञात। यहाँ भी सात पर्वत और सात नदियाँ प्रसिद्ध हैं। सात पर्वत हैं – स्वरस, शतशृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति। सात नदियाँ हैं – अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका। इस द्वीप में श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर नाम के चार वर्ण निवास करते हैं। ये सभी वेदमंत्रों के द्वारा चन्द्रदेव की उपासना करते हैं और उनकी स्तुति में स्तोत्र गाते हैं।

कुशद्वीप

मदिरा (शराब) के समुद्र से आगे, उससे दोगुने आकार का कुशद्वीप स्थित है। यह भी पहले बताए गए द्वीपों की तरह अपने ही समान विस्तार वाले घृत (घी) के समुद्र से घिरा हुआ है। इस द्वीप में भगवान द्वारा रचा गया एक कुश घास का झाड़ है, और इसी के कारण इसका नाम कुशद्वीप पड़ा। इसकी कोमल शिखाएँ इतनी तेजस्वी हैं कि दूसरे अग्निदेव की तरह अपनी आभा से सभी दिशाओं को प्रकाशित करती रहती हैं।

इस द्वीप के राजा महाराज प्रियव्रत के पुत्र हिरण्यरेता थे। उन्होंने इस द्वीप को सात भागों में विभाजित कर अपने सात पुत्रों – वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेव को सौंप दिया और स्वयं तपस्या में लीन हो गए। इस द्वीप की सीमाओं को निर्धारित करने वाले सात पर्वत और सात नदियाँ हैं। सात पर्वत हैं – चक्र, चतुःशृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण। सात नदियाँ हैं – रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला। इन नदियों के जल में स्नान करके कुशद्वीप के निवासी – कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक नाम के चार वर्ण, अग्निस्वरूप भगवान हरि की यज्ञ और अन्य धार्मिक कर्मकौशल के द्वारा उपासना करते हैं।

क्रौंचद्वीप

घी के समुद्र से आगे, उससे दोगुने विस्तार वाला क्रौंचद्वीप स्थित है। जिस प्रकार कुशद्वीप घी के समुद्र से घिरा हुआ था, वैसे ही क्रौंचद्वीप अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। इस द्वीप में क्रौंच नाम का एक विशाल पर्वत स्थित है, और इसी के कारण इसका नाम क्रौंचद्वीप पड़ा। प्राचीन काल में श्री स्वामी कार्तिकेयजी के शस्त्र प्रहार से इस पर्वत का मध्य भाग तथा इसकी लताएँ, वन-उपवन क्षत-विक्षत हो गए थे। लेकिन बाद में, क्षीरसमुद्र (दूध के समुद्र) से सिंचित होकर और वरुणदेव की सुरक्षा से यह पुनः निर्भय हो गया।

इस द्वीप के राजा महाराज प्रियव्रत के पुत्र घृतपृष्ठ थे। उन्होंने इस द्वीप को सात भागों में विभाजित कर अपने सात पुत्रों— आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति— को सौंप दिया और स्वयं सन्यास धारण कर लिया। इन सात क्षेत्रों में भी सात पर्वत और सात नदियाँ प्रसिद्ध हैं। सात पर्वत हैं – शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र। सात नदियाँ हैं – अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, पवित्रवती और शुक्ला। इन नदियों के शुद्ध और पवित्र जल का सेवन करने वाले इस द्वीप के निवासी ऋषभ, द्रविण और देवक नाम के तीन वर्णों में विभाजित हैं। वे जल-देवता की उपासना करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करते हैं।

शाकद्वीप

क्षीरसमुद्र (दूध के समुद्र) के आगे, उससे भी दुगुने परिमाण वाला शाकद्वीप स्थित है। यह द्वीप अपने ही समान विस्तार वाले दही के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें शाक नामक एक विशाल वृक्ष है, जिसकी अत्यंत मनोहर सुगंध से संपूर्ण द्वीप महकता रहता है। यही वृक्ष इस द्वीप के नामकरण का कारण बना।

इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत के पुत्र महाराज मेधातिथि थे। उन्होंने इसे सात वर्षों में विभक्त कर उन्हीं के समान नाम वाले अपने सात पुत्रों— पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार— को सौंप दिया। फिर वे स्वयं भगवान अनन्त (शेषनाग) में दत्तचित्त होकर तपोवन चले गए।

इस द्वीप में भी सात पर्वत और सात नदियाँ प्रसिद्ध हैं। सात पर्वत हैं – ईशान, उरुशृंग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस। सात नदियाँ हैं – अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति। यहाँ के निवासी ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक चार वर्णों में विभाजित हैं। वे प्राणायाम के द्वारा अपने रजोगुण और तमोगुण को क्षीण कर, महान समाधि के द्वारा वायुरूप श्रीहरि की आराधना करते हैं।

पुष्करद्वीप

इस प्रकार पुष्करद्वीप सातों द्वीपों में सबसे बड़ा है, जो दही के समुद्र से भी आगे, चारों ओर मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है। यहाँ एक विशाल स्वर्णमय कमल (पुष्कर) स्थित है, जिसकी लाखों चमकदार पंखुड़ियाँ अग्नि की लौ जैसी देदीप्यमान हैं। इसी कारण इसे ब्रह्माजी का आसन माना जाता है।

इस द्वीप के मध्य में मानसोत्तर नामक एक विशाल पर्वत है, जो इसके पूर्वी और पश्चिमी भागों को विभाजित करता है। यह पर्वत दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लंबा है। इसकी चारों दिशाओं में इन्द्र आदि लोकपालों की चार पुरियाँ स्थित हैं। इसी पर्वत के ऊपर मेरु पर्वत के चारों ओर परिक्रमा करने वाला सूर्य का रथ उत्तरायण और दक्षिणायन के क्रम में निरंतर गति करता है, जिससे देवताओं के दिन और रात बनते हैं।

प्रियव्रत के पुत्र वीतिहोत्र इस द्वीप के राजा थे। उन्होंने अपने दो पुत्रों— रमणक और धातकि— को द्वीप के दो भागों का अधिपति बना दिया और स्वयं भगवान की भक्ति में लीन हो गए। यहाँ के निवासी ब्रह्मस्वरूप भगवान श्रीहरि की आराधना करते हैं, जिससे वे ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर सकते हैं। मेरु पर्वत से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अंतर है, उतनी ही भूमि शुद्ध जल के समुद्र के उस पार स्थित है। वहां सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण जैसी स्वच्छ है। इस भूमि में गिरा हुआ कोई भी पदार्थ फिर से नहीं मिलता, इसलिए वहां देवताओं के अलावा और कोई प्राणी नहीं रहता।

लोकालोक पर्वत: त्रिलोक की सीमा और सूर्य की महिमा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन्! इस सुवर्णमयी भूमि के बाद लोकालोक नामक एक पर्वत है, जो सूर्य और अन्य ग्रहों के प्रकाश और अंधकार वाले क्षेत्रों के बीच में स्थित है, इस कारण इसका नाम लोकालोक पड़ा है। इसे भगवान ने त्रिलोक के बाहर चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है। यह पर्वत इतना ऊंचा और लंबा है कि इसके एक ओर से सूर्य और ध्रुव तक की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं। विद्वानों के अनुसार, सम्पूर्ण लोकों का विस्तार पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (साढ़े बारह करोड़ योजन) लोकालोक पर्वत है।

इस पर्वत के ऊपर चारों दिशाओं में ब्रह्माजी ने ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नामक चार गजराजों को सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके नियुक्त किया है। इन गजराजों और इन्द्रादि लोकपालों की शक्तियों की वृद्धि और लोकों के कल्याण के लिए परमपुरुष श्रीहरि अपने पार्षदों के साथ इस पर्वत पर विराजते हैं। वे अपने शुद्ध सत्त्व के साथ धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य जैसी आठ महासिद्धियों से सम्पन्न रहते हैं। उनके हाथों में शंख, चक्र आदि आयुध सुशोभित रहते हैं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन्! लोकालोक पर्वत के बाहर एक प्रदेश है जिसे अलोकवर्ष कहते हैं। यह पर्वत के भीतर के क्षेत्र के समान चौड़ा है — अर्थात् 125,000,000 योजन (एक अरब मील)। उसके आगे तो केवल योगेश्वरोंकी ही ठीक-ठीक गति हो सकती है। 

*भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इस स्थान से गुजरते हुए ब्राह्मण के पुत्रों को वापस लाने के लिए मार्गदर्शन किया।

सूर्य ब्रह्मांड के मध्य में स्थित है, जो भूर्लोक और भुवर्लोक के बीच का क्षेत्र है, जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। सूर्य और ब्रह्मांड की परिधि के बीच की दूरी पच्चीस कोटि योजन (दो अरब मील) है।
मृतेऽण्ड एष एतस्मिन्यदभूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः।
हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्डसमुद्भवः।।
सूर्य इस मृत अर्थात मरे हए (अचेतन) अण्डमें वैराजरूपसे विराजते हैं, इसीसे इनका नाम ‘मार्तण्ड’ हुआ है। ये ‘हिरण्यमय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्डसे प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं। (भागवत 5.20.44)

सूर्य के द्वारा ही सभी दिशाओं, आकाश, धूलोक (अंतरिक्षलोक), भूर्लोक, स्वर्ग, मोक्ष, नरक और रसातल आदि क्षेत्रों का विभाग होता है। सभी प्रकार के जीवों—देवता, तिर्यक् (पशु, पक्षी), मनुष्य, सरीसृप, और वृक्षों सहित सभी के जीवन सूर्यदेव द्वारा प्रदान की गई गर्मी और प्रकाश पर निर्भर करते हैं। इसके अलावा, सूर्य की उपस्थिति के कारण ही सभी जीवों को देखने की क्षमता प्राप्त होती है, और इसलिए उन्हें 'द्रिग्ईश्वर' कहा जाता है, जो दृष्टि पर प्रभुत्व रखने वाले भगवान का रूप हैं।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 31.01.2025