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35- सनत्कुमारों का महाराज पृथु को आत्मतत्त्व का उपदेश देना

Dec 8th, 2024 | 11 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 19 से 22

पृथ्वी दोहन के पश्चात महाराज पृथु ने ब्रह्मावर्त क्षेत्र में सरस्वती नदी के किनारे सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया। यज्ञ के दौरान स्वयं भगवान हरि ने साक्षात दर्शन दिए। ब्रह्मा, रुद्र, मुनि, अप्सराएं, गंधर्व और अन्य लोकपाल भी उपस्थित थे। इन्द्र ने यज्ञों की संख्या बढ़ती देखकर ईर्ष्या की और विघ्न डालने के लिए पाखण्डी वेष धारण किया। इसके लिए 'नग्न', 'रक्ताम्बर', 'कापाली' आदि भेष बनाकर यज्ञ के घोड़े को चुराने की कोशिश की। अत्रि मुनि ने देखा और उन्होंने पृथु महाराज के पुत्र को बताया। पृथु के पुत्र ने इन्द्र का पीछा किया और यज्ञ का घोड़ा वापस ले आया। उनके पराक्रम को देखकर उनका नाम "विजिताश्व" रखा गया।

इन्द्र के पाखण्डी रूप और कर्मों ने धर्म में भ्रम उत्पन्न किया। इन पाखण्डों ने अधर्म का मार्ग प्रशस्त किया, जिसे लोग धर्म मानने लगे। इसको देख पृथु को क्रोध आया और इंद्र को मारना चाहा। परंतु ऋत्विजों ने उनको रोका और कहा कि हम इसको यज्ञ में स्वाहा कर देंगे। जब याजक ऐसा करने लगे तब ब्रह्माजी स्वयं प्रकट होकर इंद्र को ना मारने को कहा। ब्रह्माजी ने पृथु महाराज को समझाया कि इन्द्र के साथ संघर्ष और अधिक पाखण्ड को जन्म देगा। उन्होंने पृथु से यज्ञ रोकने और इन्द्र के साथ संधि करने की सलाह दी।

पृथु महाराज ने ब्रह्माजी के सुझाव को मानते हुए यज्ञ पूरा किया और इन्द्र के साथ मित्रता की। महाराज पृथु के 99 यज्ञों से भगवान विष्णु संतुष्ट हुए और इन्द्र के साथ उपस्थित होकर पृथु से कहा की इन्द्र यज्ञ में विघ्न डाला था और अब वह क्षमा चाहता है अतः पृथु को इन्द्र को क्षमा कर देना। भगवान ने कहा कि जो साधु और सद्बुद्धि-सम्पन्न मनुष्य होते हैं, वे किसी भी जीव से द्रोह नहीं करते। ऐसा इसलिए क्योंकि वे जानते हैं कि शरीर ही आत्मा नहीं है। भगवान विष्णु ने समझाया कि यदि ज्ञानवान पुरुष भी उनकी माया से मोहित हो जाएं, तो उनकी सारी तपस्या व्यर्थ हो जाती है। विवेकी व्यक्ति इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों का साधन मात्र मानता है और इसमें आसक्त नहीं होता।
एकः शुद्धः स्वयंज्योतिः निर्गुणोऽसौ गुणाश्रयः।
सर्वगोऽनावृतः साक्षी निरात्माऽऽत्माऽऽत्मनः परः॥
यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणोंका आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मासे रहित है; अतएव शरीरसे भिन्न है। (भागवत 4.20.7)
य एवं सन्तमात्मानं आत्मस्थं वेद पूरुषः।
नाज्यते प्रकृतिस्थोऽपि तद्‍गुणैः स मयि स्थितः॥
जो पुरुष इस देहस्थित आत्माको इस प्रकार शरीरसे भिन्न जानता है, वह प्रकृतिसे सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणोंसे लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मामें रहती है। (भागवत 4.20.7)

भगवान विष्णु का पृथु को उपदेश
  • भक्ति का महत्व: भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति बिना किसी कामना के अपने धर्म का पालन करते हुए उनकी आराधना करता है, उसका चित्त शुद्ध हो जाता है। चित्त की शुद्धता से उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है, और वह भगवान की समतारूप स्थिति में पहुँच जाता है।
  • आत्मा और देह का भेद: जो यह जानता है कि आत्मा देह, ज्ञान, क्रिया और मन का केवल साक्षी है, वह मोक्ष प्राप्त करता है।
  • राजा के धर्म का कर्तव्य
    • प्रजा की रक्षा: राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा का पालन और रक्षा न्यायपूर्वक करे। ऐसा करने पर प्रजा के पुण्य का छठा भाग राजा को प्राप्त होता है।
    • प्रजा पर कर वसूलने का परिणाम: जो राजा केवल कर वसूलता है, लेकिन प्रजा की रक्षा नहीं करता, वह प्रजा के पाप का भागी बनता है।
यह उपदेश देने के पश्चात भगवान विष्णु ने पृथु को वर माँगने को कहा तब पृथु भगवान विष्णु से सांसारिक विषयों या मोक्ष की कामना नहीं करते। उन्होंने भगवान से केवल यह वरदान मांगा कि वे हमेशा भगवान के चरणकमलों का चिंतन और उनके गुणों की कथा सुनते रहें। महाराज पृथु के भक्तिभाव ने भगवान विष्णु को इतना प्रभावित किया कि वे उनके प्रेम में बंध गए। पृथु भगवान के चरणों से लगकर भाव-विह्वल हो गए, और भगवान ने भी उन्हें हृदय से लगाया। इसके पश्चात भगवान ने पृथु को सावधानीपूर्वक धर्म और उनकी आज्ञा का पालन करने का निर्देश दिया। उन्होंने कहा कि जो उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र कल्याण होता है। पृथु ने भगवान, देवताओं, ऋषियों, गन्धर्वों, नागों, अप्सराओं और अन्य सभी उपस्थित जनों का आदरपूर्वक पूजन किया।अंत में, भगवान विष्णु ने महाराज पृथु पर कृपा कर, उन्हें आशीर्वाद दिया और अपने धाम को प्रस्थान किया। पृथु भी अपने नगर को लौटते हैं। 

महाराज पृथु महापुरुष और सभीके पूजनीय थे। उन्होंने इसी प्रकारके अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वीका शासन किया और अन्तमें अपने विपुल यशका विस्तार कर भगवान्का परमपद प्राप्त किया। महाराज पृथु गंगा और यमुनाके मध्यवर्ती देशमें निवास कर अपने पुण्यकर्मोंके क्षयकी इच्छासे प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगोंको ही भोगते थे। ब्राह्मणवंश और भगवान्के सम्बन्धी विष्णुभक्तोंको छोड़कर उनका सातों द्वीपोंकेसभी पुरुषोंपर अखण्ड एवं अबाध शासन था।

एक बार उन्होंने एक महासत्रकी दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियोंका बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ| उस समाजमें महाराज पृथुने उन पूजनीय अतिथियोंका यथायोग्य सत्कार किया और फिर सभामें खड़े होकर कहने लगे- एक जिज्ञासु व्यक्ति को संतों के पास अपने प्रश्न रखने चाहिए। मुझे इस लोक में प्रजाजनों की रक्षा, आजीविका का प्रबंधन, और उन्हें मर्यादा में रखने के लिए राजा बनाया गया है। वेदों के अनुसार, इन कर्तव्यों का पालन करने से मुझे श्रीहरि की कृपा से उन लोकों की प्राप्ति होगी जो सभी कर्मों का फल देते हैं। अगर कोई राजा प्रजा को धर्म का मार्ग नहीं दिखाता और केवल उनसे कर वसूलता है, तो वह प्रजाओं के पाप का भागी बनता है और अपना ऐश्वर्य खो देता है। अतः हे प्रजाजनों! आप सभी भगवान को स्मरण कर अपने कर्तव्यों का पालन करें, यही आपके और मेरे लिए कल्याणकारी है। 

श्रीहरि यज्ञों के फलदाता हैं। मनु, ध्रुव, प्रह्लाद, बलि, और अन्य महापुरुषों ने भी धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के लिए भगवान की कृपा को आवश्यक माना है। श्रीहरि के चरणों की सेवा से ही जीव अपने जन्म-जन्मांतर के पापों से मुक्त हो सकता है और संसार के दुखों से बच सकता है। आप सभी अपने वर्णाश्रम के अनुसार कर्म करें और भगवान की पूजा, ध्यान और स्तुति के माध्यम से उनकी भक्ति करें।राजा पृथु की इस प्रेरणादायक वाणी से देवता, पितर, और ब्राह्मण प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं, "आपके पुण्यबल से आपके कुल को पापों से मुक्ति मिली। आपकी भक्ति और उपदेशों ने हमें अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाला। आप सच्चे राजा हैं और आपके कारण हम भगवान के राज्य में होने का अनुभव करते हैं।" 

सनत्कुमारों का महाराज पृथु को आत्मतत्त्व का उपदेश देना

श्रीमैत्रेयजी विदुरजी को कहते हैं, जब राजा पृथु प्रजा से वार्ता कर रहे थे, तभी सूर्य के समान तेजस्वी सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार आकाश से उतरकर वहाँ आते हैं। उनकी दिव्य आभा लोकों को पापमुक्त कर रही है।
राजा और अनुचर उन्हें पहचानकर तुरंत श्रद्धा से खड़े हो जाते हैं। राजा उनका स्वागत करते हैं, विधिपूर्वक पूजा करते हैं और चरणोदक सिर पर धारण करते हैं।

पृथुजी कहते हैं, "हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दुर्लभ दर्शन से मैं धन्य हुआ। जिन घरों में संत आते हैं, वे धन्य होते हैं, चाहे निर्धन ही क्यों न हों। कृपा करके बताएं, इस संसार में मनुष्य सरलता से कल्याण कैसे प्राप्त कर सकता है?" राजा के मधुर वचन सुनकर सनत्कुमारजी प्रसन्न होते हैं और मुस्कुराते हुए उत्तर देना आरंभ करते हैं- साधुजन सदा समस्त प्राणियों के कल्याण की बात करते हैं, और उनका सत्संग सभी के लिए कल्याणकारी होता है। भगवान मधुसूदन के चरणकमलों की भक्ति दुर्लभ है। यह हृदय की वासनाओं को नष्ट कर देती है, जो अन्य उपायों से कठिन है। शास्त्रों में देहादिके प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्ममें सुदृढ़ अनुराग होने को ही कल्याणका साधन निश्चित किया गया है।

इस संसार में मनुष्य सरलता से कल्याण कैसे प्राप्त कर सकता है?

सा श्रद्धया भगवद्धर्मचर्यया जिज्ञासयाऽऽध्यात्मिकयोगनिष्ठया ।
योगेश्वरोपासनया च नित्यं पुण्यश्रवःकथया पुण्यया च ॥


अर्थेन्द्रियारामसगोष्ठ्यतृष्णया तत्सम्मतानामपरिग्रहेण च ।
विविक्तरुच्या परितोष आत्मन् विना हरेर्गुणपीयूषपानात् ॥


अहिंसया पारमहंस्यचर्यया स्मृत्या मुकुन्दाचरिताग्र्यसीधुना ।
यमैरकामैर्नियमैश्चाप्यनिन्दया निरीहया द्वन्द्वतितिक्षया च ॥


हरेर्मुहुस्तत्परकर्णपूर गुणाभिधानेन विजृम्भमाणया ।
भक्त्या ह्यसङ्‌गः सदसत्यनात्मनि स्यान्निर्गुणे ब्रह्मणि चाञ्जसा रतिः ॥
शास्त्रोंका यह भी कहना है कि इन अभ्यासों का पालन करके, कोई व्यक्ति भौतिक जगत से वैराग्य प्राप्त कर सकता है और स्वयं-प्रकाशित, निराकार परब्रह्म के प्रति स्वाभाविक प्रेम विकसित कर सकता है:
  1. गुरु और शास्त्रों के शब्दों में श्रद्धा, भगवद्धर्म के पालन, जिज्ञासा (आध्यात्मिक ज्ञान की तलाश), और स्थिर योग में निष्ठा द्वारा,
  2. योगेश्वर की पूजा और नियमित रूप से श्री हरि की पवित्र कथाओं का श्रवण, जो पुण्य प्रदान करती हैं।
  3. भोगों और इंद्रिय सुखों की तृष्णा से, साथ ही उन वस्तुओं की इच्छाओं से, जो उन भौतिकवादी व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत की जाती हैं, परित्याग करना।
  4. आत्मसंतोष, एकांतवास में आनंदित रहना, और श्री हरि के गुणों के अमृत का पान करना।
  5. अहिंसा, उच्चतम साधक का अनुसरण, और श्री कृष्ण की भक्ति से आत्मा का शुद्धिकरण करना।
  6. यम (नैतिक अनुशासन) और नियम (स्व-नियंत्रण) का पालन, परिग्रह (अत्यधिक संग्रह) से बचना और द्वंद्वों (जैसे गर्मी-ठंडक) का सामना करना।
  7. भगवान के गुणों का बार-बार ध्यान करना और भक्तिपूर्वक, उनके गुणों का कीर्तन करना।
  8. इस प्रकार निराकार, निरुपाधि ब्रह्म (परमात्मा) में आस्था और प्रेम उत्पन्न करना, जो सर्वोच्च सत्य है, और जो स्वयं में शांति का स्रोत है।
इन सिद्धांतों का पालन करके, व्यक्ति सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि, इसके कारणों और प्रभावों से वैराग्य विकसित करता है और स्वाभाविक रूप से निराकार, निरुपाधि ब्रह्म, परम सत्य के प्रति गहरा प्रेम स्थापित करता है। (भागवत 4.22.22–25)

भगवानमें सुदृढ़ प्रीति हो जानेपर पुरुष सद्गुरुकी शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्यके प्रबल वेगके कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकारके क्लेशोंसे युक्त अहंकारात्मक अपने लिंगशरीरको (सूक्ष्म शरीर) वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकडीसे प्रकट होकर फिर उसीको जला डालती है। इस प्रकार लिंग देहका नाश हो जानेपर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणोंसे मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्थामें तरह-तरहके पदार्थ देखनेपर भी उससे जग पड़नेपर उनमेंसे कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीरके बाहर दिखायी देनेवाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होनेवाले सुखदुःखादिको भी नहीं देखता। इस स्थितिके प्राप्त होनेसे पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्माके बीचमें रहकर उनका भेद कर रहे थे।

जबतक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभीतक पुरुषको जीवात्मा, इन्द्रियोंके विषय और इन दोनोंका सम्बन्ध करानेवाले अहंकारका अनुभव होता है; इसके बाद नहीं। बाह्य जगत्में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तोंके रहनेपर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्बका भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं। जो लोग विषयचिन्तनमें लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयोंमें फँस जाती हैं तथा मनको भी उन्हींकी ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशयके तीरपर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ोंसे उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धिकी विचारशक्तिको क्रमशः हर लेता है।
भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्चित्तं ज्ञानभ्रंशः स्मृतिक्षये ।
तद्रोधं कवयः प्राहुः आत्मापह्नवमात्मनः ॥ 
विचारशक्तिके नष्ट हो जानेपर पूर्वापरकी स्मृति जाती रहती है और स्मृतिका नाश हो जानेपर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञानके नाशको ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं। (भागवत 4.22.31)
नातः परतरो लोके पुंसः स्वार्थव्यतिक्रमः ।
यदध्यन्यस्य प्रेयस्त्वं आत्मनः स्वव्यतिक्रमात् ॥ 
जिसके उद्देश्यसे अन्य सब पदार्थोमें प्रियताका बोध होता है-उस आत्माका अपनेद्वारा ही नाश होनेसे जो स्वार्थहानि होती है, उससे बढ़कर लोकमें जीवकी और कोई हानि नहीं है।(भागवत 4.22.32)

धन और इन्द्रियों के विषयोंका चिन्तन करना मनुष्यके सभी पुरुषार्थोंका नाश करनेवाला है; क्योंकि इनकी चिन्तासे वह ज्ञान और विज्ञानसे भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियोंमें जन्म पाता है। 
न कुर्यात्कर्हिचित्सङ्‌गं तमस्तीव्रं तितीरिषुः ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यदत्यन्तविघातकम् ॥
इसलिये जिसे अज्ञानान्धकारसे पार होनेकी इच्छा हो, उस पुरुषको विषयोंमें आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिमें बड़ी बाधक है। (भागवत 4.22.34)
प्रकृति में गुणों का विक्षोभ होने के बाद जितने भी भाव-पदार्थ प्रकट होते हैं, उनमें कोई भी स्थिर नहीं रह सकता। काल भगवान सभी को नष्ट करते रहते हैं।
यत्पादपङ्‌कजपलाशविलासभक्त्या कर्माशयं ग्रथितमुद्‍ग्रथयन्ति सन्तः ।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽपि रुद्ध स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥ 
संत-महात्मा जिनके चरणकमलोंके अंगुलिदलकी छिटकती हुई छटाका स्मरण करके अहंकाररूप हृदयग्रन्थिको, जो कर्मोंसे गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियोंका प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरणको निर्विषय करनेवाले संन्यासी भीवैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेवका भजन करो। (भागवत 4.22.39)
कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां षड्वर्गनक्रमसुखेन तितीर्षन्ति ।
तत्त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमङ्‌घ्रिं कृत्वोडुपं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥ 
जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरोंसे भरे हुए इस संसार सागरको योगादि दुष्कर साधनोंसे पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरिका आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान्के आराधनीय चरणकमलोंको नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्रको पार कर लो।(भागवत 4.22.40)

श्रीमैत्रेयजी ने कहा कि विदुरजी, ब्रह्माजी के पुत्र सनत्कुमारजी से आत्मतत्त्व का उपदेश प्राप्त करने के बाद महाराज पृथु ने उनकी प्रशंसा की। राजा पृथु ने कहा, "भगवान, पहले श्रीहरि की कृपा से मुझे जो कुछ मिला है, वही सब महापुरुषों का प्रसाद है। मेरे पास जो कुछ है, वह सब आपके ही श्रीचरणों में अर्पित है। राज्य, सेना, भूमि, और अन्य सभी सामग्रियाँ आपकी ही हैं। वास्तव में, वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को शासन का अधिकार है। आपके उपकार का बदला कोई नहीं दे सकता, इसलिए मैं क्या दे सकता हूँ? आपका उपकार तो इतना महान है कि उसे कोई चुकता नहीं कर सकता।" फिर पृथु ने सनकादिकि महात्माओं की पूजा की और उनकी शील की प्रशंसा करते हुए आकाशमार्ग से चले गए। आत्मज्ञान प्राप्त कर वे आत्मा में स्थित हो गए और अपने कर्मों को ब्रह्मार्पण-बुद्धि से करने लगे।

महाराज पृथु का राज्य बहुत ही सौम्य और उदार था। वे सूर्य की तरह सब पर अपना प्रभाव डालते थे, प्रजाओं को उनके जरूरी समय पर दान देते थे और उनका पालन-पोषण करते थे। उन्होंने अपनी भार्या अर्चिके गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न किए—विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक। उनकी कर्तव्यपरायणता और गुणों के कारण वे जगत के प्राणियों की रक्षात्मक भूमिका निभाते थे। वे सम्राट थे और उनके सारे गुण अन्य देवताओं के समान थे, जैसे यमराज का दमन, कुबेर की संपत्ति, इन्द्र का अजेयता, और भगवान शंकर का तेज। उनके सामर्थ्य और गुणों की पूरी त्रिलोकी में सराहना की जाती थी।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 6.12.2024