श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 8-9
श्री शुकदेवजी कहते हैं — राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र रोहित का पुत्र हुआ हरित। हरित से चम्प हुआ, जिसने चम्पापुरी बसाई। चम्प से सुदेव और उससे विजय पैदा हुए। विजय का पुत्र भरुक, भरुक का पुत्र वृक और वृक का पुत्र बाहुक हुआ। बाहुक से उसके शत्रुओं ने राज्य छीन लिया, तो वह अपनी पत्नी के साथ वन में चले गए। वन में ही वृद्धावस्था के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसकी पत्नी सती होने जा रही थी, लेकिन महर्षि और्व ने उसे रोका क्योंकि वह गर्भवती थी।
भगवान कपिल की दृष्टि पड़ते ही सगरपुत्रों का भस्म होना
जब उसकी सौतों को यह बात पता चली, तो उन्होंने उसे भोजन में विष मिला दिया। परंतु गर्भ पर उस विष का कोई असर नहीं हुआ। गर्भ में पल रहा बालक विष सहित ही जन्मा, इसलिए उसका नाम ‘सगर’ पड़ा। आगे चलकर सगर एक अत्यंत यशस्वी, पराक्रमी और चक्रवर्ती सम्राट् बने।
राजा सगर एक बार अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। उस यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुरा लिया। सगर की महारानी सुमति के गर्भ से उत्पन्न साठ हजार पुत्रों ने पिता के आदेश से घोड़े की खोज में पूरी पृथ्वी छान मारी। न मिलने पर उन्होंने घमण्ड में आकर पृथ्वी को खोद डाला। खोदते-खोदते वे पूर्व-उत्तर दिशा के कोने में कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे, जहां घोड़ा खड़ा था। उन्होंने क्रोध और अभिमान में कपिल मुनि को चोर समझकर हमला करने की सोची। इन्द्र ने उनकी बुद्धि हर ली थी, जिससे वे कपिल मुनि जैसे का अपमान कर बैठे। जब उन्होंने कपिल मुनि पर आक्रमण करने का प्रयास किया, तब मुनि ने नेत्र खोले और उनके शरीर में आग प्रज्वलित हो गई, जिससे वे सभी जलकर भस्म हो गए।
शुकदेवजी कहते हैं — यह कहना ठीक नहीं कि सगर के पुत्र कपिल मुनि के क्रोध से जले, क्योंकि कपिल मुनि स्वयं भगवान हैं। उनमें क्रोध जैसी तमोगुण की प्रवृत्ति असंभव है। जैसे आकाश का पृथ्वी की धूल से कोई सम्बन्ध नहीं, वैसे ही उनमें ‘शत्रु’ या ‘मित्र’ की भेदबुद्धि भी नहीं है। उन्होंने संसार रूपी मृत्यु-सागर को पार करने के लिये सांख्यशास्त्र रूपी नाव दी है, जिससे मुक्तिकामी साधक मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
सगर की दूसरी पत्नी का नाम केशिनी था, जिसके गर्भ से असमंजस नामक पुत्र हुआ। असमंजस का पुत्र अंशुमान था, जो अपने दादा सगर की आज्ञाओं का पालन और सेवा करता था। असमंजस पूर्व जन्म में योगी थे, पर संगदोष से योग से विचलित हो गए थे। उन्हें अपने पिछले जन्म का स्मरण था, इसलिए वे जानबूझकर ऐसे कार्य करते जिससे लोग उनसे अप्रसन्न हों। कभी-कभी वे इतना निन्दनीय आचरण कर बैठते कि लोग उन्हें पागल समझते—जैसे खेलते हुए बच्चों को सरयू नदी में फेंक देना। इस व्यवहार से नगरवासी भयभीत हो गए।
अन्त में राजा सगर ने पुत्र-स्नेह त्याग कर असमंजस को राजपद से अलग कर दिया। तब असमंजस ने योगबल से उन सभी बच्चों को जीवित कर दिया और पिता को दिखाकर वन में चले गए। अयोध्या के लोगों ने जब अपने बच्चे लौटे देखे तो आश्चर्यचकित रह गए, और राजा सगर को गहरा पश्चात्ताप हुआ।
गंगा के अवतरण हेतु सगरपुत्रों का महान तप
इसके बाद सगर की आज्ञा से अंशुमान घोड़े की खोज में निकले। समुद्र के किनारे-किनारे चलते हुए, जहां उनके चाचाओं के भस्म पड़े थे, वहीं उन्होंने यज्ञ का घोड़ा देखा जहाँ भगवान कपिल विराजमान थे। अंशुमान ने उन्हें देखा, विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया और एकाग्र होकर स्तुति करते हुए कहा, "भगवन्! आप अजन्मा हैं, ब्रह्माजी से भी परे हैं, इसलिए वे भी आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। हम जैसे अज्ञानी जीव तो आपकी महिमा को कैसे समझ सकते हैं? संसार के सभी जीव सत्त्व, रज और तम गुणों में बंधे हैं और आपकी माया के कारण बाहर के विषयों में उलझे रहते हैं। आप निराकार, एकरस, ज्ञानस्वरूप हैं। माया और उसके गुण आपमें नहीं हैं। आपने केवल ज्ञान का उपदेश देने के लिए यह शरीर धारण किया है। आपके दर्शन से मेरा मोह नष्ट हो गया है।"
अंशुमान की भक्ति और विनम्रता देखकर कपिल मुनि ने मन ही मन उन पर कृपा की और कहा, "बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामह का यज्ञपशु है, इसे ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओं का उद्धार केवल गंगाजल से होगा, इसका और कोई उपाय नहीं है।"
अंशुमान घोड़ा लेकर लौट आए। राजा सगर ने यज्ञ पूरा किया और अंशुमान को राज्य सौंपकर स्वयं परमपद को प्राप्त हो गए।
अंशुमान्ने गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तप किया, पर सफलता नहीं मिली और समय आने पर उनका देहांत हो गया। उनके पुत्र दिलीप ने भी वही तपस्या की, लेकिन वे भी असफल रहे और कालांतर में उनकी मृत्यु हो गई।
भगीरथ तपस्या से गंगा का पावन अवतरण
दिलीप के पुत्र भगीरथ ने निश्चय किया कि वे यह कार्य पूरा करेंगे। उन्होंने अत्यंत कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा उनके सामने प्रकट हुईं और कहा, "मैं तुम्हें वर देने आई हूं, कहो क्या चाहो।" भगीरथ ने विनम्रता से निवेदन किया, "माता, कृपा कर मर्त्यलोक में पधारें।"
गंगा ने कहा, "स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरते समय मेरा वेग असह्य होगा। यदि उसे संभालने वाला न हुआ, तो मैं पृथ्वी को फाड़कर रसातल में चली जाऊंगी। और एक समस्या यह भी है कि लोग मुझमें स्नान कर अपने पाप धोएंगे तो मैं वह पाप कहां धोऊंगी?"
भगीरथ ने उत्तर दिया, "माता, जो साधु-संत विषयों से विरक्त, ब्रह्मनिष्ठ और लोक कल्याणकारी होते हैं, वे अपने स्पर्श मात्र से आपके पापों को नष्ट कर देंगे, क्योंकि उनके हृदय में भगवान का निवास होता है। और आपके तीव्र वेग को धारण करने के लिए स्वयं रुद्रदेव (शिवजी) उपस्थित रहेंगे, क्योंकि क्योंकि जैसे साड़ी सूतोंमें ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान् रुद्रमें ही ओत-प्रोत है।"
गंगाजीसे इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेव प्रसन्न हो गये और राजाकी बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गंगाजीको अपने सिरपर धारण किया।
इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवन पावनी गंगाजीको वहाँ ले गये जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे । वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पड़नेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गंगाजी दौड़ रही थीं।
इस प्रकार गंगासागर-संगमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा दिया। यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न था फिर भी केवल शरीरकी राखके साथ गंगाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ।
शुकदेवजी कहते हैं की जब राख का गंगाजल से स्पर्श इतना फल दे सकता है, तो जो लोग श्रद्धा और नियमपूर्वक गंगाजी का सेवन करते हैं, उनके बारे में तो कहना ही क्या है। इसमें आश्चर्य नहीं, क्योंकि गंगाजी भगवान के चरणकमलों से प्रकट हुई हैं, जिनका स्मरण कर मुनि तीनों गुणों के बंधन काटकर भगवत्स्वरूप हो जाते हैं। ऐसे में गंगाजी संसारबंधन काट दें, यह कोई बड़ी बात नहीं।
इसके बाद वंश में — भगीरथ से श्रुत, श्रुत से नाभ (पूर्व कथित नाभ से भिन्न), नाभ से सिन्धद्वीप, सिन्धद्वीप से अयुतायु, अयुतायु से ऋतुपर्ण और ऋतुपर्ण से सर्वकाम हुए। ऋतुपर्ण नल का मित्र था, जिसने नल को पासा खेलने की विद्या का रहस्य बताया और बदले में नल से अश्वविद्या सीखी। ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ और सर्वकामके पुत्रका नाम था सुदास।
राजा सौदास की अकोखी कथा
सुदास के पुत्र का नाम सौदास था। इन्हें कहीं मित्रसह और कहीं कल्माषपाद के नाम से भी जाना जाता है।
एक बार राजा सौदास शिकार पर निकले। वहाँ उन्होंने एक राक्षस को मार डाला, लेकिन उसका भाई जीवित बच गया। वह राक्षस बदला लेने के लिए राजा के महल में रसोइये का रूप धरकर आ गया। संयोगवश एक दिन जब गुरु वसिष्ठ भोजन के लिए पधारे, तो उस राक्षस ने मनुष्य का मांस पका कर उन्हें परोस दिया।
यह देखकर वसिष्ठजी को क्रोध आ गया और उन्होंने राजा सौदास को शाप दिया कि वे राक्षस बन जाएँ। बाद में जब सच्चाई पता चली, तो उन्होंने शाप की अवधि केवल 12 वर्ष कर दी। उस समय सौदास भी वसिष्ठजी को शाप देने के लिए जल उठा रहे थे, परन्तु उनकी पत्नी मदयन्ती ने उन्हें रोक दिया। जल भूमि पर न डालकर उन्होंने अपने पैरों पर डाल लिया, जिससे उनके चरण काले हो गए और तभी से वे मित्रसह व कल्माषपाद कहलाए।
राक्षस बने हुए कल्माषपाद ने एक बार जंगल में एक ब्राह्मण दंपति को देखा। भूख से व्याकुल होकर उन्होंने ब्राह्मण को पकड़ लिया। ब्राह्मणी ने प्रार्थना की—“राजन! आप क्षत्रिय कुलभूषण हैं, अधर्म का आचरण न करें। मुझे संतान की इच्छा है और मेरे पति की कामना अधूरी है। यदि आप इन्हें मारना ही चाहते हैं, तो पहले मुझे मार दीजिए, इनके बिना मैं क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकती।”
किन्तु शाप के प्रभाव में सौदास ने उसकी विनती नहीं मानी और ब्राह्मण को वैसे ही खा लिया जैसे बाघ अपने शिकार को खाता है। यह देखकर ब्राह्मणी ने शोक और क्रोध में उन्हें शाप दिया—
“हे पापी! तूने मेरे पति को सहवास से पूर्व ही खा डाला। इसलिए जब तू कभी स्त्री के साथ सहवास करना चाहेगा, उसी क्षण तेरी मृत्यु हो जाएगी।”
“हे पापी! तूने मेरे पति को सहवास से पूर्व ही खा डाला। इसलिए जब तू कभी स्त्री के साथ सहवास करना चाहेगा, उसी क्षण तेरी मृत्यु हो जाएगी।”
शाप देने के बाद वह अपने पति की अस्थियाँ लेकर अग्नि में कूद पड़ी और सती हो गई।
बारह वर्ष बाद राजा सौदास शापमुक्त हुए। जब वे पत्नी मदयन्ती के पास गए, तो उसने उन्हें उस ब्राह्मणी के शाप की याद दिलाई और रोक दिया। राजा ने फिर स्त्री-सुख का त्याग कर दिया, जिससे वे संतानहीन रहे।
बाद में वसिष्ठजी ने अपने मंत्रों द्वारा मदयन्ती को गर्भवती किया। वह सात वर्ष तक गर्भवती रही पर प्रसव नहीं हुआ। तब वसिष्ठजी ने पत्थर (अश्म) से उसके पेट पर प्रहार किया, जिससे बालक उत्पन्न हुआ। इस कारण उसका नाम पड़ा ‘अश्मक’।
अश्मक से मूलक उत्पन्न हुए। जब परशुरामजी ने पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया था, तब स्त्रियों ने मूलक को छिपाकर सुरक्षित रखा। इसी कारण उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी पड़ा। उसे मूलक इसलिये कहा गया क्योंकि क्षत्रियों के नाश के बाद उसने ही पुनः उस वंश का मूल स्थापित किया।
मूलक के पुत्र हुए दशरथ। दशरथ से ऐडविड, और ऐडविड से राजा विश्वसह उत्पन्न हुए।
राजा खट्वांग ने किया दो घड़ी में भगवत् प्राप्ति
विश्वसह के पुत्र, चक्रवर्ती सम्राट खट्वांग का नाम ही वीरता का पर्याय था। रणभूमि में उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता था। देवताओं की प्रार्थना पर उन्होंने असुरों का संहार किया और देवताओं को विजयी बनाया। परंतु जब देवताओं ने उन्हें यह रहस्य बताया कि अब उनकी आयु केवल दो ही घड़ी (48 मिनट) शेष है, तब वे तनिक भी विचलित नहीं हुए।
राजा खट्वांग तत्काल अपनी राजधानी लौटे और राजसिंहासन पर बैठकर गहन विचार में डूब गए। उन्होंने अपने अंतरतम से कहा, "पत्नी, पुत्र, धन, राज्य—ये सब क्षणिक हैं। मेरे जीवन का सच्चा आधार केवल भगवान की भक्ति है। बचपन से ही मैंने अधर्म की ओर दृष्टि नहीं डाली। मेरा हृदय कभी विषय-भोगों में नहीं फँसा। मेरी आत्मा का आकर्षण तो सदा से श्रीहरि के चरणों में ही रहा है।"
देवताओं ने चाहा कि उन्हें वरदान देकर सांसारिक सुख प्रदान करें, किंतु खट्वांग ने सब ठुकरा दिया। उनका हृदय कह उठा, "ये भोग तो आकाश में दिखने वाले गंधर्व-नगर जैसे हैं- क्षणिक और नश्वर। यह सब माया के अधीन है। मुझे तो उस परम तत्व की लालसा है जो सनातन और अक्षय है।"
शुकदेवजी महाराज परीक्षित से कहते हैं, "भगवान्ने राजा खट्वांगकी बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्त समयमें ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये।वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्यके समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तुको ‘भगवान् वासुदेव’ इस नामसे वर्णन करते हैं ।"
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 11.08.2025