श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 2 अध्याय: 2
शुकदेवजी परीक्षित् को कहते हैं की योगी पुरुष जब मनुष्यलोकको छोड़ना चाहे तब उन्हें क्या करना चाइए इसका वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं:
- समय और स्थान से विरक्ति: जब योगी इस मनुष्यलोक को छोड़ना चाहे, तो उसे देश और काल में मन नहीं लगाना चाहिए।
- स्थिर आसन में बैठना: योगी को सुखपूर्वक स्थिर आसन में बैठना चाहिए।
- प्राण और इन्द्रियों का संयम: प्राणों को नियंत्रित करके और मन से इन्द्रियों का संयम करके योगी आत्म-संयम प्राप्त करता है।
- निर्मल बुद्धि का ध्यान: योगी को अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियंत्रित करना चाहिए और बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में विलीन करना चाहिए।
- परमात्मा में लीन होना: योगी को क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में और अन्तरात्मा को परमात्मा में विलीन करना चाहिए।
- परम शांति की अवस्था प्राप्त करना: परमात्मा में लीन होकर धीर पुरुष परम शांति की अवस्था में स्थित हो जाता है जहाँ उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।
इस अवस्था में सत्त्वगुण का भी अस्तित्व नहीं है, रजोगुण और तमोगुण तो दूर की बात है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति का भी अस्तित्व नहीं है। काल और देवताओं के प्रभाव से परे: इस स्थिति में देवताओं के नियामक काल का भी प्रभाव नहीं होता, अतः देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणियों का भी कोई अस्तित्व नहीं रह सकता। इस स्थिति में पहुँच हुआ योगी 'यह नहीं, यह नहीं'—इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करता है और पद-पदपर भगवान्के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान का परम पद है।
सद्योमुक्ति कैसे होती है?
शुकदेवजी आगे परीक्षित को सद्योमुक्ति के बारे में बताते हैं। जीवित अवस्थामें ही बन्धनसे छूटनेको 'सद्योमुक्ति' कहते हैं। ज्ञानदृष्टिके बलसे जिसके चित्तकी वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगीको इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये:
- सबसे पहले अपनी एड़ी से गुदा को दबाकर स्थिर हो जाएं।
- बिना घबराहट के प्राणवायु को छह चक्रों को भेदते हुए ऊपर की ओर ले जाएं।
- मनस्वी योगी को चाहिए कि नाभि चक्र (मणिपूरक) में स्थित वायु को हृदय चक्र (अनाहत) में ले जाएं।
- वहां से, उदान वायु के द्वारा इसे वक्ष स्थल के ऊपर विशुद्ध चक्र में ले जाएं।
- फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालु के मूल (विशुद्ध चक्र के अग्र भाग) में चढ़ा दें।
- इसके बाद, दो आंखें, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोकें।
- उस वायु को भौंहों के बीच आज्ञा चक्र में ले जाएं।
- यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो, तो उस वायु को आधे घड़ी तक वहीं रोकें।
- स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाएं।
- इसके बाद, ब्रह्मरंध्र का भेदन करके शरीर और इंद्रियों को छोड़ दें।
क्रममुक्ति कैसे होती है?
जो साधक किसी सूक्ष्म वासनाके कारण ब्रह्मलोकमें जाकर क्रमशः ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं, उनकी मुक्तिको 'क्रममुक्ति' कहते हैं। यदि योगी ब्रह्मलोक में जाना चाहता है, आठ सिद्धियों को प्राप्त करना चाहता है, दिव्य सिद्ध पुरुषों के साथ विचरण करना चाहता है, या त्रैलोक्य के किसी भी क्षेत्र में भ्रमण करना चाहता है, तो उसे शरीर को मन और इन्द्रियों के साथ छोड़ देना चाहिए। योगियों का शरीर वायु के समान सूक्ष्म होता है। जो योगी उपासना, तप, योग और ज्ञान का अभ्यास करते हैं, उन्हें तीनों लोकों के भीतर और बाहर स्वतंत्र रूप से विचरण करने का अधिकार होता है। इस प्रकार की निर्बाध गति केवल कर्मों के द्वारा संभव नहीं है।
- क्रमुक्ति में जब एक योगी ज्योतिर्मयी मार्ग सुषुम्ना के माध्यम से ब्रह्मलोक के लिए प्रस्थान करता है, तो वह पहले आकाश के माध्यम से अग्निलोक में जाता है। वहाँ उसकी शेष अशुद्धियाँ भी जल जाती हैं।
- इसके बाद, वह भगवान हरि के शिशुमार नामक उज्ज्वल चक्र में पहुँचता है। यह भगवान विष्णु का शिशुमार चक्र ब्रह्मांड के घूर्णन का केंद्र है।
- इसे पार करने के बाद, वह अकेला एक अत्यंत सूक्ष्म और शुद्ध शरीर में महर्लोक जाता है।
- उस लोक की ब्रह्मज्ञानी और देवताओं द्वारा पूजा होती है, जो एक कल्प तक जीवित रहते हैं और उसमें भ्रमण करते रहते हैं।
फिर जब प्रलय का समय आता है, तो वह योगी शेष के मुख से निकली अग्नि द्वारा निचले लोकों को जलते हुए देखकर ब्रह्मलोक (सत्यलोक) चला जाता है। ब्रह्मलोक में बड़े सिद्धेश्वर विमान पर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्धकी है । ब्रह्मलोक में न तो कोई दुःख है और न ही शोक, न वृद्धावस्था और न ही मृत्यु। वहाँ किसी भी प्रकार की चिंता या भय नहीं होता। यदि वहाँ कोई दुःख होता है, तो वह केवल एक ही चीज़ का होता है। वह यह कि जो लोग इस परम स्थिति को नहीं जानते हैं, उनके जन्म और मृत्यु की अत्यधिक कठिनाइयों को देखकर वहाँ के लोग दया के कारण अपने हृदय में महान पीड़ा अनुभव करते हैं।
सत्यलोक पहुँचकर, वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी के साथ मिला देता है और फिर बिना हड़बड़ी किए सात आवरणों को भेदता है।
- सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी में
- पृथ्वी को जल में
- जल को अग्नि में
- अग्नि को वायु में
- और वायु को आकाश में
इस प्रकार पाँच स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने-अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रामें, नेत्र रूपतन्मात्रामें, त्वचा स्पर्शतन्मात्रामें, श्रोत्र शब्दतन्मात्रामें और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाशक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ।
- इस प्रकार योगी पंचभूतोंके स्थूल-सूक्ष्म आवरणोंको पार करके छठे आवरण अहंकारमें प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहंकारमें, इन्द्रियोंको राजस अहंकारमें तथा मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवताओंको सात्त्विक अहंकारमें लीन कर देता है।
- इसके बाद अहंकारके सहित महत्तत्त्वमें प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ।
महाप्रलयके समय प्रकृतिरूप आवरणका भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता।
शुकदेवजी महाराज कहते हैं, “परीक्षित्! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्तिका तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान् वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गोंकी बात ब्रह्माजीसे कही थी। संसारचक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये जिस साधनके द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है।
ब्रह्माने एकाग्रचित्तसे सारे वेदोंका तीन बार नियमित अध्ययन करके अपनी बुद्धिसे यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्यप्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है।
भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैरनुमापकैः ।।
समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके आत्मारूपसे भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं । (भागवत 2.2.35)
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् ।।
परीक्षित्! इसलिये मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान् श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें। (भागवत 2.2.36)
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ।।
राजन्! संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान्की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कानके दोनोंमें भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं। (भागवत 2.2.35)
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 05.08.2024