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75- श्रीशुकदेवजी द्वारा परीक्षित को रामावतार की दिव्य लीलाओं का वर्णन

Aug 24th, 2025 | 4 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 9 अध्याय: 10

श्री शुकदेवजी परीक्षित् इक्ष्वाकु वंश वर्णन करते हुये कहते हैं की खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु हुए, उनके परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु से अज और अज से महाराज दशरथ उत्पन्न हुए। देवताओं की प्रार्थना पर साक्षात् परमब्रह्म भगवान श्रीहरि ने अपने अंशांश से चार रूप धारण कर दशरथजी के पुत्र रूप में अवतार लिया। वे थे- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न

भगवान श्रीराम पिता दशरथजी के वचन पालन हेतु वनवास स्वीकार कर लेते हैं। उनके चरणकमल इतने कोमल थे कि जानकीजी के कर-स्पर्श को भी सहन नहीं कर पाते। वे ही चरण वन में कष्ट उठाते हैं, तब लक्ष्मण और हनुमान उन्हें दबा-दबाकर थकान दूर करते हैं। 

विश्वामित्रजी के यज्ञ की रक्षा हेतु श्रीराम ने लक्ष्मण के साथ मारीच आदि राक्षसों का वध किया। तत्पश्चात् जनकपुरी में सीताजी का स्वयंवर हुआ। वहाँ रखे शिवजी के धनुष को अनेक वीर मिलकर भी उठा न सके, परंतु श्रीराम ने उसे सहज ही उठाकर तोड़ दिया और सीताजी से उनका विवाह हुआ।

अयोध्या लौटते समय परशुरामजी से भेंट हुई। परशुराम, जो पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रियों से शून्य कर चुके थे, वे भी श्रीराम के तेज और विनम्रता से शांत हो गए और उनका गर्व दूर हो गया।

फिर कैकेयी के वरदान के कारण दशरथजी को दिया गया वचन निभाने हेतु श्रीराम वन को जाते हैं। वहाँ शूर्पणखा का घमंड चूर कर उसके भाइयों खर-दूषण और चौदह हजार राक्षसों का वध करते हैं। रावण, सीताजी के सौंदर्य से मोहित होकर मारीच को स्वर्ण-मृग का रूप देकर छल करता है और उनकी अनुपस्थिति में सीताजी का हरण कर लेता है।

सीताजी से वियोग पाकर श्रीराम वन-वन भटकते हैं। जटायु के बलिदान पर उनका दाह संस्कार करते हैं, फिर सुग्रीव से मैत्री और बाली-वध के बाद वानरसेना प्राप्त करते हैं। समुद्र तट पर पहुँचकर जब प्रार्थना का फल नहीं मिलता तो भगवान अपने क्रोध रूप का प्रदर्शन करते हैं। समुद्र देव भयभीत होकर उनके चरणों में समर्पित होते हैं और प्रार्थना करते हैं कि “आप मेरे ऊपर सेतु बनाकर लंका को पधारें।”

वानर पर्वत-शिलाएँ लाकर समुद्र में डालते हैं और श्रीराम का सेतु पूर्ण होता है। फिर वानरसेना लंका में प्रवेश कर बाग-बगीचे, सभा भवन और दुर्ग तोड़ डालती है।

युद्ध आरंभ होता है। रावण अपने सेनापतियों—निकुंभ, कुम्भ, धूम्राक्ष, अतिकाय, मेघनाद और अंततः कुम्भकर्ण को भेजता है। परंतु सबका अंत श्रीराम और उनके पराक्रमी सहायकों—लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान आदि के हाथों होता है।

अंत में रावण स्वयं युद्ध के लिए आता है। इन्द्र का सारथी मातलि दिव्य रथ लेकर भगवान श्रीराम को युद्धभूमि में ले जाता है। दोनों ओर से भयंकर युद्ध होता है। तब श्रीराम एक प्रचंड बाण चलाते हैं, जो रावण के हृदय को भेद देता है। रावण गिर पड़ता है और उसका अंत हो जाता है।

रणभूमि में राक्षस स्त्रियाँ विलाप करती हैं, “हाय स्वामी! आपकी कामवासना और अहंकार ने आज पूरे राक्षसकुल का नाश कर दिया।”

श्रीशुकदेवजी बोले, “परीक्षित! भगवान की आज्ञा से विभीषण ने विधिपूर्वक राक्षसों का अंतिम संस्कार किया। फिर अशोक वाटिका में श्रीराम ने वियोग से क्षीण सीताजी को देखा और उन्हें प्रेमपूर्वक अपने साथ लिया। विभीषण को लंका का राज्य देकर वे पुष्पक विमान पर अयोध्या लौट चले।”

मार्ग में देवता उन पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। भरतजी, जो नन्दिग्राम में जटाएँ बढ़ाए, वल्कल पहने, केवल जौ का दलिया खाकर रहते थे, समाचार सुनकर पादुकाएँ सिर पर रख अयोध्यावासियों और मंत्रियों के साथ श्रीराम की अगवानी हेतु जाते हैं।

भेंट के समय भरतजी का हृदय प्रेम से भर जाता है, वे चरणों में गिरकर आँसुओं से भीग जाते हैं। श्रीराम उन्हें उठाकर हृदय से लगाते हैं। अयोध्या लौटकर माता कौसल्या और समस्त माताएँ पुत्रों को पाकर अश्रुपूरित हो उठती हैं।

वशिष्ठजी ने विधिपूर्वक भगवान का अभिषेक कराया। चारों समुद्रों के जल आदि से स्नान कराया गया। श्रीराम ने राजसिंहासन संभाला और प्रजा का पालन पिता के समान करने लगे। श्रीरामराज्य में प्रजा दुःख-शोक से रहित थी। कोई रोगी न था, कोई अकाल मृत्यु को प्राप्त न होता। सब लोग संतुष्ट और धर्मपरायण थे। वन, नदी, पर्वत, समुद्र सब कामधेनु के समान फल देते थे।

भगवान श्रीराम ने आजीवन एकपत्नीव्रत का पालन किया और गृहस्थ धर्म का आदर्श प्रस्तुत किया। सीताजी भी सेवा, लज्जा, शील और प्रेम से उनका चित्त मोह लेती थीं। इस प्रकार उनका जीवन संपूर्ण मानवता के लिए आदर्श बना।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 22.08.2025