श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 25-28
श्री मैत्रेयजी ने विदुरजी से कहा— भगवान शिव ने प्रचेताओं को उपदेश दिया। प्रचेताओं ने बड़े भक्ति भाव से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान शिव उनके सामने ही अंतर्धान हो गए। प्रचेताओं ने जल में खड़े होकर भगवान शिव द्वारा बताए गए स्तोत्र का जप करते हुए दस हज़ार वर्षों तक तपस्या की।
उधर, राजा प्राचीनबर्हि कर्मकांडों में लिप्त थे। नारदजी ने उन्हें उपदेश दिया और पूछा, “राजन्! इन कर्मों से आप कौन सा कल्याण चाहते हैं? असली कल्याण तो दुःखों के अंत और परम आनंद की प्राप्ति में है, जो कर्म से नहीं होता।” राजा ने कहा, “नारदजी! मेरी बुद्धि कर्म में फंसी हुई है। कृपया मुझे ऐसा ज्ञान दीजिए, जिससे मैं इस कर्म बंधन से मुक्त हो सकूं।”
नारदजी ने बताया, “राजन्! जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन में पुत्र, स्त्री और धन को ही जीवन का परम उद्देश्य मानता है, वह संसार में भटकता रहता है और कल्याण प्राप्त नहीं कर सकता। देखिए, यज्ञ में आपने जिन पशुओं की बलि दी थी, वे सभी अब आकाश में खड़े होकर आपके मरने का इंतजार कर रहे हैं। परलोक में वे क्रोधित होकर अपने सींगों से आपको घायल करेंगे।"
पुरंजन उप-आख्यान
इसके बाद नारदजी ने राजा को राजा पुरंजन की कथा सुनाई। पूर्वकालमें पुरंजन नामका एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। राजा पुरंजन अपने रहने योग्य स्थान की खोज में पूरी पृथ्वी पर भटका, लेकिन कोई स्थान उसे उपयुक्त नहीं लगा। भोगों की लालसा के कारण, उसने कई नगर देखे, लेकिन कोई भी उसकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं था, जिससे वह उदास हो गया। एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण में भारतखण्ड में नौ द्वारों वाला एक अद्भुत नगर देखा। यह नगर बगीचों, महलों, झरोखों और सोने-चाँदी से सुसज्जित था। वहाँ नीलम, मोती और रत्नों से बनी फर्शें थीं, और नगर भोगवतीपुरी के समान दिव्य प्रतीत होता था। बाग, सरोवर, पक्षियों की मधुर ध्वनि, वासंती वायु, और शांत वन्यजीवों से नगर की शोभा अद्वितीय थी।
राजा पुरंजनने उस अद्भुत वनमें घूमते-घूमते एक सुन्दरीको आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। वह विवाह के लिए योग्य पुरुष की तलाश में थी। उसके साथ दस सेवक थे, और एक पाँच फनवाला साँप उसकी रक्षा करता था। वह किशोरावस्था की लज्जा से युक्त, साँवले रंग की, सुंदर नासिका, कपोल, दंतपंक्ति और मनमोहक मुखमंडल वाली थी। पीली साड़ी, सोने की करधनी, और झनकते नूपुर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसकी चाल गजगामिनी और आचरण देवी तुल्य था। राजा पुरंजन, उस सुन्दरी से मोहित होकर मधुर वाणी में उससे उसका परिचय पूछते हैं और जानना चाहते हैं कि वह कौन है, कहां से आई है, और वन में क्या कर रही है। सुन्दरी की सुंदरता, लज्जा, और स्नेह से भरे कटाक्षों ने राजा के मन को विचलित कर दिया। प्रेम की भावनाओं से अभिभूत होकर, वे उसे अपने साथ रहने का आग्रह करते हैं और उसकी तुलना देवी लक्ष्मी से करते हैं। राजा उससे आग्रह करते हैं कि वह अपनी लज्जा त्यागकर अपने मुख का दर्शन कराए, क्योंकि उसकी मीठी वाणी और सुंदरता उनके हृदय को पूरी तरह से मोह रही है।
सुन्दरी राजा पुरंजन के प्रेमपूर्ण प्रस्ताव से प्रसन्न होकर मुस्कुराते हुए उत्तर देती है कि वह भी राजा को देखकर मोहित हो चुकी है। वह कहती है कि उसे अपने उत्पत्ति-स्थान, नाम या गोत्र का ज्ञान नहीं है और वह नहीं जानती कि यह नौ द्वारोंवाली पुरी किसने बनाई।सुन्दरी बताती है कि उसके साथ के पुरुष उसके मित्र और स्त्रियां उसकी सहेलियां हैं, जबकि सर्प उसकी सुरक्षा करता है। वह राजा को आश्वासन देती है कि वह और उसकी सहेलियां उनके लिए सभी प्रकार के इच्छित भोग प्रस्तुत करती रहेंगी। वह गृहस्थाश्रम को सर्वोत्तम बताते हुए कहती है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, और लोक-कल्याण का आधार गृहस्थाश्रम ही है। संसार त्यागी लोग इन सुखों से वंचित रहते हैं। सुन्दरी राजा की मधुर मुस्कान, उदार हृदय और सौंदर्य की प्रशंसा करती है और कहती है कि कौन स्त्री ऐसा पति पाकर प्रसन्न न होगी। ऐसा कहकर वह स्त्री राजा को नगर में ले जाती है। राजा पुरंजन और उसकी रानी पुरंजनी ने सौ वर्षों तक उस पुरी में आनंदपूर्वक जीवन बिताया। गायक राजा की कीर्ति गाते रहते थे और ग्रीष्म ऋतु में वह कई स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करता था।
पुरी में में कुल नौ द्वार थे, जिनमें से सात ऊपर और दो नीचे की ओर थे। इन द्वारों के माध्यम से राजा विभिन्न देशों में यात्रा करते थे। पूर्व दिशा में पाँच द्वार थे, जिनसे वह विभ्राजित, सौरभ, बहूदन, और अपन देशों में जाते थे। दक्षिण दिशा में पितह द्वार था, जिससे वह दक्षिण पाँचाल देश जाते थे, और उत्तर दिशा में देवहू द्वार था, जिससे वह उत्तरपाँचाल देश जाते थे। पश्चिम दिशा में दो द्वार थे, आसुरी और निर्ऋति, जिनसे वह क्रमशः ग्रामक और वैशस देशों में जाते थे। नगर में दो अंधे नागरिक थे, जिनकी मदद से राजा पुरंजन काम करता था, हालांकि वह आँखों वाले नागरिकों का राजा था। राजा पुरंजन का चित्त मोह और विकारों में फंसा हुआ था। वह अपनी रानी के साथ-साथ उसकी आदतें और कर्म अपनाने लगता था। जब रानी मद्यपान करती, तो वह भी मदिरा पीता और उन्मत्त हो जाता था। इसी तरह, वह उसकी हर गतिविधि में भाग लेने लगता, जैसे कि गाना, खाना, दौड़ना, सोना, और यहाँ तक कि रानी के भावनात्मक अनुभवों को भी अपनी स्थिति मानने लगता। इस प्रकार, राजा पुरंजन अपनी रानी द्वारा धोखा खा रहा था और जैसे बंदर अपने मालिक का अनुकरण करते हैं, वैसे ही वह भी रानी के कर्मों का अनुसरण करता रहता था।
श्रीनारदजी प्राचीनबर्हि से कहते हैं, एक दिन राजा पुरंजन अपना धनुष, सोने का कवच, और तरकस लेकर, अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर पंचप्रस्थ नामक वन में गया। रथ में दो धुरियाँ, दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदंड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। रथ सुनहरे साज-सज्जा से सुसज्जित था और पाँच प्रकार की चालों से चलता था।
राजा अपनी प्रिय पत्नी से क्षणभर भी दूर रहना कठिन समझता था, लेकिन उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसने उसकी परवाह नहीं की और गर्वपूर्वक धनुष-बाण लेकर शिकार करने लगा। इस समय आसुरी वृत्तियों के प्रभाव से उसका चित्त कठोर और दयाशून्य हो गया, जिससे उसने निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला।शास्त्रों के अनुसार, जो राजा शिकार का इच्छुक हो, वह केवल आवश्यकता और शास्त्रों द्वारा अनुमति प्राप्त पशुओं का ही वध करे। परंतु राजा ने अत्यधिक हिंसा की। इससे कई जानवरों की दर्दनाक मृत्यु हुई और दयालु लोग इस दृश्य को देखकर दुःखी हो गए।
राजा पुरंजन शिकार करते हुए थक गया और भूख-प्यास से परेशान होकर महल वापस लौटा। वहाँ स्नान और भोजन करके उसने विश्राम किया और फिर सुंदर आभूषण पहनकर अपनी पत्नी को खोजने लगा। लेकिन वह उसे कहीं भी नहीं मिली। तब राजा उदास होकर अपने महल की स्त्रियों से पूछते हैं, "सुन्दरियों! क्या आप सब पहले की तरह स्वस्थ और सुखी हैं? आज इस घर की स्थिति पहले जैसी क्यों नहीं लग रही? जब घर में पत्नी या माता नहीं होती, तो वह बिना पहिए के रथ की तरह होता है। बताइये, वह सुन्दरी कहाँ है?" स्त्रियाँ जवाब देती हैं, "हमें नहीं पता कि आपकी प्रियाने आज क्या तय किया है। देखिये, वह बिना बिछौने के पृथ्वी पर पड़ी हुई हैं।" उस स्त्रीके संगसे राजा पुरंजनका विवेक नष्ट हो चुकाथा; इसलिये अपनी रानीको पृथ्वीपर अस्त-व्यस्त अवस्थामें पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसको बहुत प्रकार से मनाने लगा। राजा पुरंजन अपनी पत्नी के मोह में इस तरह फंस गए कि समय का आभास ही नहीं हुआ। पत्नी के साथ बिताते-बिताते राजा ने आत्मज्ञान को पूरी तरह भुला दिया और अपनी जवानी को व्यर्थ गवा दिया।
श्रीनारदजी प्राचीनबर्हि से कहते हैं की उस पुरंजनीसे राजा पुरंजनके ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिताका सुयश बढ़ानेवाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नामसे विख्यात हुईं। इतने में ही उस सम्राट्की लंबी आयुका आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजनने पितृवंशकी वृद्धि करनेवाले पुत्रोंका वधुओंके साथ और कन्याओंका उनके योग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया। पुत्रोंमेंसे प्रत्येकके सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धिको प्राप्त होकर पुरंजनका वंश सारे पांचाल देशमें फैल गया। इन पुत्र, पौत्र, गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदिमें दृढ़ ममता हो जानेसे वह इन विषयोंमें ही बँध गया। फिर तुम्हारी (प्राचीनबर्हि) तरह उसने भी अनेक प्रकारके भोगोंकी कामनासे यज्ञकी दीक्षा ले तरहतरहके पशुहिंसामय घोर यज्ञोंसे देवता, पितर और भूतपतियोंकी आराधना की। इस प्रकार वह जीवनभर आत्माका कल्याण करनेवाले कर्मोंकी ओरसे असावधान और कुटुम्बपालनमें व्यस्त रहा। अन्तमें वृद्धावस्थाका वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषोंको बड़ा अप्रिय होता है।
इतने में एक दिन राजा पुरंजन के नगर पर चण्डवेग नामक गन्धर्वराज और उसके अनुचर गन्धर्वों ने हमला किया। चण्डवेग के अधीन तीन सौ साठ गन्धर्व और उतनी ही संख्या में गन्धर्वियाँ थीं, जो भोग-विलास में लिप्त होकर नगर को लूटती रहती थीं। जब ये गन्धर्व राजा पुरंजन के नगर को लूटने लगे, तब उन्हें पांच फन वाले सर्प ने रोका। यह सर्प पुरंजनपुरी की रक्षा कर रहा था और अकेले ही सौ वर्षों तक उन सात सौ बीस गन्धर्वों से युद्ध करता रहा। राजा पुरंजन ने देखा कि उसके एकमात्र संरक्षक सर्प के बलहीन होने पर उसे बड़ी चिन्ता होने लगी। वह इतने समय तक अपने नगर और राज्य में मस्त था, विषयों में लिप्त होकर, और स्त्री के मोह में था, कि इस खतरे का उसे अंदाजा ही नहीं हुआ।
इन्हीं दिनों कालकी एक कन्या जिसे 'जरा' भी कहा जाता था, वर की खोज में त्रिलोकी में भटकती रही, लेकिन कोई भी उसे स्वीकार नहीं करता था। वह दुर्भाग्यशाली थी, इसलिए लोग उसे 'दुर्भगा' कहते थे। एक बार राजर्षि पूरु ने अपने पिता को अपना यौवन देने के लिए अपनी इच्छा से उसे वर लिया, जिससे वे प्रसन्न हो उन्हें राज्यप्राप्तिका वर दिया था ।
एक दिन मैं (नारदजी) ब्रह्मलोकसे पृथ्वीपर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होनेके कारण उसने वरना चाहा । मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इसपर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थानपर अधिक देर न ठहर सकोगे’। तब मेरी ओरसे निराश होकर यवनराज के पास गई और उसे अपना पति बनाने का प्रस्ताव दिया।
कालकन्याकी बात सुनकर यवनराजने विधाताका एक गुप्त कार्य करानेकी इच्छासे मुसकराते हुए उससे कहा ।‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करनेवाली है, इसलिये किसीको भी अच्छी नहीं लगती और इसीसे लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोकको तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायतासे तू सारी प्रजाका नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा। यह प्रज्वार नामका मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनोंके साथ मैं अव्यक्त गतिसे भयंकर सेना लेकर सारे लोकोंमें विचरूँगा’।
श्रीनारदजी बताते हैं कि यवनराज भय के आदेश पर प्रज्वार और कालकन्या पृथ्वी पर पुरंजनपुरी को घेरकर उसे नष्ट करने लगे। राजा पुरंजन ने देखा कि उसकी संपत्ति और सुख-संसार समाप्त हो गए हैं और वह विषयों में लिप्त होकर दीन-हीन हो गया। उसका विवेक भी खो गया, और गन्धर्व व यवनों ने उसका ऐश्वर्य छीन लिया। राजा ने देखा कि नगर बर्बाद हो गया है, परिवार के लोग विरोधी बन गए हैं, और उसकी पत्नी भी स्नेहहीन हो गई है। कालकन्या ने उसकी देह को अपने नियंत्रण में कर लिया था, और उसका मन केवल स्त्री और संतान की देखभाल में ही लगा हुआ था। इस विपत्ति में राजा पुरंजन को कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया। जब यवनराज भय के भाई प्रज्वार ने नगर में आग लगा दी, तो राजा पुरंजन को अपने परिवार और प्रजा के जलते हुए शवों को देख राजा शोक में डूबा और अपने परिवार की चिंता करने लगा। हालांकि, उसे यह समझना चाहिए था कि यह शोक नहीं करना चाहिए था। यवनराज ने उसे पकड़ लिया, और उसका नगर भी नष्ट हो गया। राजा को अपने कृत्यों का परिणाम भुगतना पड़ा। अंत में, अपनी आसक्ति के कारण उसे दुर्गति मिली और वह अगले जन्म में विदर्भराज के घर एक कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ।
पुरंजन का विदर्भराज की पुत्री के रूप में पुनर्जन्म
अगले जन्म में पुरंजन विदर्भराज के घर उनकी कन्या वैदर्भी के रूप में उत्पन्न हुआ। जब विदर्भराज की कन्या विवाह योग्य हुई, तो उन्होंने घोषणा की कि केवल सबसे पराक्रमी वीर से ही उसका विवाह होगा। फिर पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वज ने शत्रुओं के नगरों को जीतकर उसे विवाह किया। उनके सात पुत्र हुए, जो द्रविडदेश के सात राजा बने। इनमें से प्रत्येक के बहुत से वंशज हुए, जो पृथ्वी के अंत तक भोग करेंगे।
मलयध्वज की पहली पुत्री व्रतशील थी, और उसने अगस्त्य ऋषि से विवाह किया। उनसे दृढ़च्युत नामक पुत्र हुआ। अंत में, महाराज मलयध्वज अपनी संतान को पृथ्वी में बांटकर भगवान श्री कृष्ण की आराधना करने के लिए मलय पर्वत पर गए। लगभग सौ वर्षों तक कठोर तपस्या करते हुए, उन्होंने आत्मा और परब्रह्म के बीच का भेद समझा और शांति की प्राप्ति की। उनकी पत्नी वैदर्भी (पुरंजन) ने भी उनके साथ जाने का निश्चय किया और वहां अपने पति की सेवा करती रही, लेकिन एक दिन जब उसने अपने पतिके चरणों में गरमी महसूस नहीं की, तो वह शोकित हो गई। वह अपने पतिके पास जाकर विलाप करने लगी और अंत में उनका शव अग्नि में रखकर सती होने का निश्चय किया। उसी समय एक ब्राह्मण ने आकर उसे समझाया।
ईश्वर और जीव का पुनर्मिलन
ब्राह्मण ने वैदर्भी से कहा- तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नामका सखा था? तुम पृथ्वीके भोग भोगनेके लिये निवास स्थानकी खोजमें मुझे छोड़कर चले गये थे। पहले मैं और तुम एक-दूसरेके मित्र एवं मानस निवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षोंतक बिना किसी निवास-स्थानके ही रहे थे।
किन्तु मित्र! तुम विषयभोगोंकी इच्छासे मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वीपर चले आये! यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्रीका रचा हुआ स्थान देखा। यहां आकर तुमने एक ऐसा नगर देखा, जिसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, तीन परकोटे और कई बाजार थे। यह नगर इन्द्रिय भोगों से भरा था, और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करनेपर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है—अपने स्वरूपको भूल जाता है। भाई! उस नगरमें उसकी स्वामिनीके फंदेमें पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूपको भूल गये और उसीके संगसे तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो, तुम न तो विदर्भराजकी पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारोंके नगरमें बंद किया था, उस पुरंजनीके पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्ममें अपनेको पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो—यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है। वास्तवमें तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो।
मित्र! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचार पूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनोंमें कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। जैसे एक पुरुष अपने शरीरकी परछाईंको शीशेमें और किसी व्यक्तिके नेत्रमें भिन्न-भिन्न रूपसे देखता है वैसे ही—एक ही आत्मा विद्या और अविद्याकी उपाधिके भेदसे अपनेको ईश्वर और जीवके रूपमें दो प्रकारसे देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर)-ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवरका हंस (जीव) अपने स्वरूपमें स्थित हो गया और उसे अपने मित्रके विछोहसे भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया। नारदजी आगे प्राचीनबर्हि को कहते हैं की मैंने तुम्हें परोक्षरूपसे यह आत्मज्ञानका दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वरको परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।
पुरंजन आख्यान के प्रतीकों का अर्थ
- पुरंजन = जीव
- अविज्ञात = ईश्वर
- नौ द्वारों वाला नगर = नौ छिद्र वाला मानव शरीर (दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र, दो कर्णछिद्र, मुख, लिंग, गुदा)
- पुरंजनी = बुद्धि या अविद्या
- पुरंजनी के दस सेवक = दस इन्द्रियाँ
- पुरंजनी की सखियाँ = इन्द्रियों की वृत्तियाँ
- पाँच फनों वाला सर्प = प्राणवायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान)
- चण्डवेग = समय
- चण्डवेग के अधीन तीन सौ साठ गन्धर्व और उतनी ही संख्या में गन्धर्वियाँ = दिन और रात
- कालकन्या = वृद्धावस्था
- प्रज्वार = शीत और उष्ण ज्वर
- यवनराज = मृत्यु रूप
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 13.12.2024