श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 29-31
प्राचीनकाल में राजा पुरंजन, अपने मित्र अविज्ञात को छोड़कर, रहने योग्य स्थान की खोज में पूरी पृथ्वी पर भटकते हैं। भोगों की लालसा के कारण उन्हें कोई स्थान उपयुक्त नहीं लगता। अंततः हिमालय के दक्षिण में वे एक नौ-द्वारों वाला अद्भुत नगर पाते हैं, जो स्वर्ग की भांति सुसज्जित है। वहाँ उनकी भेंट पुरंजनी नामक एक सुंदर युवती से होती है, जो दस साथियों, अनेक सहेलियों, और एक पाँच फन वाले साँप के साथ रहती है।
राजा पुरंजन उससे विवाह करते हैं और भोग-विलास में मग्न होकर सौ वर्षों तक नगर में आनंदपूर्वक जीवन बिताते हैं। नगर के नौ द्वारों से वे विभिन्न दिशाओं में यात्रा करते हैं। एक दिन, राजा सोने के कवच, धनुष, और तरकस लेकर, ग्यारहवें सेनापति के साथ पंचप्रस्थ वन में शिकार पर जाते हैं। पाँच घोड़ों वाले सुनहरे रथ पर सवार होकर, वे गर्वपूर्वक निर्दोष जानवरों का वध करते हैं।
समय बीतने के साथ, राजा अपनी पत्नी के सुख और आदतों में इतने लिप्त हो जाते हैं कि उनका विवेक समाप्त हो जाता है। इस बीच, चण्डवेग नामक गन्धर्वराज अपनी सेना के साथ नगर पर आक्रमण करते हैं। राजा का रक्षक पाँच फन वाला साँप वीरता से लड़ता है, परंतु धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है। कालांतर में, काल की पुत्री 'जरा' और यवनराज नगर पर कब्जा कर लेते हैं। नगर का नाश देखकर, राजा शोक और असहायता में डूब जाते हैं। अंततः यवनराज के अधीन होकर पुरंजन की मृत्यु हो जाती है।
पुरंजन आख्यान के प्रतीक और उनका अर्थ
- पुरंजन (नगर का निर्माता):
यह जीव का प्रतीक है, जो अपने लिए विभिन्न प्रकार के शरीर बनाता है—जैसे एक, दो, तीन, चार, कई पैरों वाले, या बिना पैरों वाले। - अविज्ञात (सखा):
यह ईश्वर का प्रतीक है, जिसे नाम, गुण, या कर्म के माध्यम से नहीं जाना जा सकता। - नौ द्वार वाला नगर (मानव शरीर):
सुख-दुःख भोगने के लिए जीव ने नौ द्वार, दो हाथ, और दो पैरों वाला मानव शरीर चुना। - पुरंजनी (बुद्धि या अविद्या):
यह अविद्या है, जो शरीर और इंद्रियों में "मैं" और "मेरा" का भाव उत्पन्न करती है। - पुरंजनी के मित्र (दस इंद्रियां):
ये जीव की ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां हैं, जो उसे ज्ञान और कर्म में सहायता करती हैं। - पांच फनों वाला सर्प (प्राणवायु):
प्राण, अपान, व्यान, उदान, और समान—पांच प्रकार की वायु, जो शरीर को जीवित और सक्रिय रखती हैं। - ग्यारहवां योद्धा (मन):
मन इंद्रियों का राजा है, जो उनके अनुभवों को नियंत्रित करता है। - नगर के नौ द्वार (शरीर के मार्ग):
- पूर्व के पांच द्वार: दो आंखें, दो नासाछिद्र, और मुख।
- दक्षिण और उत्तर के द्वार: दाहिना और बायां कान।
- पश्चिम के द्वार: गुदा और लिंग।
- पांचाल देश (पांच विषय):
शब्द, रूप, गंध, रस, और स्पर्श, जो इंद्रियों के माध्यम से अनुभव होते हैं। - अंतःपुर (हृदय) और विषूचि/ प्रधान सेवक (मन):
हृदय शरीर का केंद्र है, जहां मन (विषूचि) निवास करता है। यहीं से प्रसन्नता और मोह जैसे भाव उत्पन्न होते हैं। - रथ (शरीर):
- पांच ज्ञानेंद्रियां: रथ के घोड़े।
- पुण्य और पाप: रथ के पहिये।
- तीन गुण: रथ की ध्वजा।
- पांच प्राण: रथ की डोरियां।
- मन: रथ की बागडोर।
- बुद्धि: रथ का सारथी।
- हृदय: रथ में बैठने का स्थान।
- सुख-दुःख: रथ का जुआ।
- चण्डवेग (समय):
समय का प्रतीक, जिसके 360 दिन और 360 रातें मनुष्य की आयु को घटाते हैं। - काल की कन्या (वृद्धावस्था):
जिसे कोई पसंद नहीं करता, लेकिन यवनराज (मृत्यु) इसे अपनी बहन मानते हैं। - आधि-व्याधि (मानसिक और शारीरिक कष्ट):
ये मृत्यु के सैनिक हैं। - प्रज्वार (शीत और उष्ण ज्वर):
ठंड और गर्मी का ज्वर, जो मृत्यु को शीघ्र लाता है।
तीन प्रकार के कष्ट और देहाभिमान:
- आधिभौतिक: भौतिक कष्ट।
- आध्यात्मिक: मानसिक कष्ट।
- आधिदैविक: प्राकृतिक कष्ट।
अज्ञान से आच्छादित जीव देहाभिमान के कारण इन कष्टों को भोगता है।
आत्मा का स्वभाव और अज्ञान का प्रभाव
नारदजी प्राचीनबर्हि को पुरंजन आख्यान का अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि आत्मा शुद्ध, निर्विकार और प्रकाशमय होती है, लेकिन अज्ञान और प्रकृति के गुणों के प्रभाव से बंधकर "मैं" और "मेरा" का भाव अपनाती है और कर्मों में उलझ जाती है। जब तक आत्मा भगवान को नहीं पहचानती, तब तक वह प्रकृति में फंसी रहती है और विभिन्न योनियों में जन्म लेती रहती है।
सात्त्विक कर्म आत्मा को स्वर्ग जैसे प्रकाशमय लोकों में ले जाते हैं, राजसी कर्म दुखमय लोकों की ओर और तामस कर्म उसे अंधकारमय योनियों में ले जाते हैं। इस प्रकार, अपने कर्मों और गुणों के अनुसार जीव कभी देवता, कभी मनुष्य, और कभी पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेता है। जैसे भूख से व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकते हुए अपने प्रारब्ध के अनुसार कहीं डंडा खाता है, तो कहीं भोजन पाता है, वैसे ही जीव चित्त में अनेक वासनाओं को लेकर ऊँचे, नीचे या मध्य लोकों में भटकता रहता है और अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता है। जब तक जीव भगवान के स्वरूप को समझकर उनसे जुड़ता नहीं, तब तक यह चक्र चलता रहता है।
नारदजी प्राचीनबर्हि को ज्ञान देते हैं की- आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक—इन तीन प्रकार के दुखों से जीव का पूरी तरह से छुटकारा संभव नहीं है। यदि कभी ऐसा प्रतीत भी होता है तो वह केवल तात्कालिक होता है, जैसे कोई भारी बोझ सिर से उठाकर कंधे पर रख ले। एक दुख से छुटकारा मिलता है तो दूसरा आकर जीवन में बाधा डाल देता है।
यह सब कर्म और उनके फल की प्रक्रिया है, जो अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न होती है। कर्म और उसके फल से मुक्ति केवल आत्मज्ञान से ही संभव है। अज्ञान के कारण जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। इस अज्ञान की निवृत्ति श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति से होती है।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः समाहितः ।
सध्रीचीनेन वैराग्यं ज्ञानं च जनयिष्यति ॥
भगवान् वासुदेवमें एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकारसे किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव कर देता है। (भागवत 4.29.37)
भगवद्कथा श्रवण करने वाले भक्तजन सांसारिक बाधाओं से मुक्त होकर आनन्द का अनुभव करते हैं। जीव स्वाभाविक रूप से भूख, प्यास, मोह और शोक जैसे विघ्नों से घिरा रहता है, फिर भी वह श्रीहरि की कथा और भक्ति में रुचि नहीं लेता। भगवान के दर्शन और ज्ञान प्राप्ति के लिए तप, उपासना और समाधि करने वाले ऋषि-मुनि भी उनके स्वरूप को समझने में असमर्थ रहते हैं।
यदा यस्य अनुगृह्णाति भगवान् आत्मभावितः ।
स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥
हृदयमें बार-बार चिन्तन किये जानेपर भगवान् जिस समय जिस जीवपर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्गकी बद्धमूल आस्थासे छुट्टी पा जाता है। (भागवत 4.29.46)
नारदजी राजा को समझाते हुए कहते हैं कि तुम इन कर्मों को परमार्थ से संबंधित न समझो। ये कर्म सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन इनमें असली परमार्थ नहीं है, उनमें केवल अज्ञान है। जो लोग वेदों को केवल कर्मकेंद्रित मानते हैं, वे उनका असली मतलब नहीं समझते, क्योंकि वे अपने आत्मस्वरूप को नहीं जानते, जिसमें भगवान श्रीजनार्दन विराजमान हैं। जो लोग पहले अत्यधिक कर्मों में गर्वित होकर पशुओं का वध करते थे, वे कर्मों के बारे में सही समझ से अज्ञात थे। तत्कर्म हरितोषं यत् सा विद्या तन्मतिर्यया- असल में, सही कर्म वही है, जिससे भगवान श्रीहरि प्रसन्न हों, और सही विद्या वही है, जिससे भगवान में मन लगे।
हरिर्देहभृतामात्मा स्वयं प्रकृतिरीश्वरः ।
तत्पादमूलं शरणं यतः क्षेमो नृणामिह ॥
श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियोंके आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्योंके एकमात्र आश्रय हैं और उन्हींसे संसारमें सबका कल्याण हो सकता है। (भागवत 4.29.50)
स वै प्रियतमश्चात्मा यतो न भयमण्वपि ।
इति वेद स वै विद्वान् यो विद्वान् स गुरुर्हरिः ॥
‘जिससे किसीको अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है’ ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है। (भागवत 4.29.51)
श्रीनारदजी कहते हैं-पुरुषश्रेष्ठ! यहाँतक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभाँति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो-
क्षुद्रं चरं सुमनसां शरणे मिथित्वा रक्तं षडङ्घ्रिगणसामसु लुब्धकर्णम् ।
अग्रे वृकान् असुतृपोऽविगणय्य यान्तं पृष्ठे मृगं मृगय लुब्धकबाणभिन्नम् ॥
‘पुष्पवाटिकामें अपनी हरिनीके साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अंकुरोंको चर रहा है। उसके कान भौंरोंके मधुर गुंजार में लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवोंको मारकर अपना पेट पालनेवाले भेडिये ताक लगाये खडे हैं और पीछेसे शिकारी व्याधने बींधनेके लिये उसपर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ भी पता नहीं है।’ (भागवत 4.29.53)
नारदजी कहते हैं की एक बार इस हरिनकी दशापर विचार करो। इस रूपकका आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशापर विचार करो। पुष्पोंकी तरह ये स्त्रियाँ केवल देखने में सुन्दर हैं, इन स्त्रियोंके रहनेका घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पोंके मधु और गन्धके समान क्षुद्र सकाम कर्मोंके फलरूप, जीभ और जननेन्द्रियको प्रिय लगनेवाले भोजन तथा स्त्रीसंग आदि तुच्छ भोगोंको ढूँढ़ रहे हो। स्त्रियोंसे घिरे रहते हो और अपने मनको तुमने उन्हींमें फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रोंका मधुर भाषण ही भौंरोंका मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसीमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियोंके झंडके समान कालके अंश दिन और रात तुम्हारी आयुको हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थीके सुखोंमें मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाणसे तुम्हारे हृदयको दूरसे ही बींध डालना चाहता है।
देवर्षि नारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को आत्मज्ञान का उपदेश देते हुए बताया कि कर्मों का फल शरीर के नाश के बाद भी जीव को उसके सूक्ष्म शरीर द्वारा मिलता है, क्योंकि यह शरीर मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहता है। राजा ने पहले आचार्यों से कर्म के बारे में कुछ संदेह सुने थे, लेकिन नारद जी ने उन्हें समझाया कि कर्म केवल शरीर तक सीमित नहीं होते, बल्कि वे पूर्व जन्मों के संस्कारों और मन की वृत्तियों से जुड़े होते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जब मनुष्य इन्द्रियजनित भोगों में फंसा रहता है, तो वह कर्मों के बन्धन में जकड़ा रहता है। अंततः, अगर वह भगवान श्रीहरि का भजन करता है और उन पर ध्यान केंद्रित करता है, तो वह बंधनों से मुक्त हो सकता है। नारद जी ने राजा को भगवान के भजन और ध्यान में अपना मन लगाने की सलाह दी ताकि वह संसार के दुखों से मुक्त हो सके।
प्रचेताओं की कथा
श्रीमैत्रेय जी ने विदुरजी से कहा नारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को जीव और ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान कराया और सिद्धलोक की यात्रा पर चले गए। राजा प्राचीनबर्हि ने अपनी प्रजापालन की जिम्मेदारी अपने पुत्रों को सौंप दी और तपस्या करने के लिए कपिलाश्रम में चले गए। वहां उन्होंने अपनी समस्त इच्छाओं का त्याग करके श्रीहरि के चरणों में ध्यान लगाया और सारूप्य पद प्राप्त किया। विदुरजीने पूछा-ब्रह्मन्! आपने राजा प्राचीनबर्हिके जिन पुत्रोंका वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीतके द्वारा श्रीहरिकी स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की? श्रीमैत्रेयजीने- प्रचेताओंने समुद्रके अंदर खड़े रहकर रुद्रगीतके जपरूपी यज्ञ और तपस्याके द्वारा भगवान् श्रीहरिको प्रसन्न कर लिया। तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जानेपर पुराणपुरुष श्रीनारायण उनके सामने प्रकट हुए।
श्रीभगवान ने कहा कि तुमलोगोंने अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकोंमें फैल जायगी। तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणोंमें किसी भी प्रकार ब्रह्माजीसे कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तानसे तीनों लोकोंको पूर्ण कर देगा। भगवान ने उनको फिर कण्डु ऋषि की कथा सुनते हुए कहा कि ऋषिके तप नाश करने के लिये इन्द्रकी भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरासे एक कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोड़कर वह स्वर्गलोकको चली गयी। तब वृक्षोंने उस कन्याको लेकर पाला-पोसा। जब वह भूखसे व्याकुल होकर रोने लगी तब ओषधियोंके राजा चन्द्रमाने दयावश उसके मुँहमें अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अंगुली दे दी।
तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति)-में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी है। अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्यासे विवाह कर लो। तुम सब एक ही धर्ममें तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाववाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभीकी पत्नी होगी तथा तुम सभीमें उसका समान अनुराग होगा। तुमलोग मेरी कृपासे दस लाख दिव्य वर्षांतक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकारके पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे। अन्तमें मेरी अविचल भक्तिसे हृदयका समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जानेपर तुम इस लोक तथा परलोकके नरकतुल्य भोगोंसे उपरत होकर मेरे परमधामको जाओगे।
भगवान के दर्शनसे प्रचेताओंका रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। उन्होंने भगवान की स्तुति किया। इसके पश्चात प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकलकर देखा कि ऊँचे वृक्ष पृथ्वी को ढककर स्वर्ग का मार्ग रोकने की तरह खड़े थे। यह देखकर वे क्रोधित हो गए और इन वृक्षों को नष्ट करने के लिए प्रचंड वायु और अग्नि छोड़ दी, जैसे प्रलयकाल में कालाग्नि करता है। जब ब्रह्माजी ने यह देखा कि वे वृक्षों को नष्ट कर रहे हैं, तो उन्होंने प्रचेताओं को समझाया और शांत किया। बच गए वृक्षों ने डरकर ब्रह्माजी के आदेश से एक कन्या प्रचेताओं को दी, जिससे उन्होंने विवाह किया। इस कन्या का नाम मारिषा था। मारिषा से ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष ने जन्म लिया, जिन्होंने महादेवजी की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्याग दिया। दक्ष ने चाक्षुष मन्वन्तर में भगवान की प्रेरणा से नए प्रजाओं का सृजन किया। वे कर्म में दक्ष थे, इस कारण उनका नाम 'दक्ष' पड़ा। ब्रह्माजी ने उन्हें प्रजापतियों के नायक के रूप में नियुक्त किया और सृष्टि की रक्षा के लिए मरीचि जैसे अन्य प्रजापतियों को कार्य सौंपे।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं कि दस लाख वर्षों बाद प्रचेताओं को भगवान के उपदेश याद आए। वे अपनी पत्नी मारिषा को पुत्र के पास छोड़कर समुद्र के तट पर गए, जहां जाजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी। वहां उन्होंने आत्मविचार और ध्यान में लीन होकर परब्रह्म में चित्त को एकाग्र किया। इस अवस्था में उन्हें श्री नारदजी मिले। प्रचेताओं ने श्री नारदजी से कहा कि भगवान शंकर और श्री विष्णु ने जो उपदेश दिया था, वह गृहस्थी के व्यस्तता में वे भूल गए हैं इसीलिए नारदजी उनके हृदय में उस परमार्थ तत्त्व का ज्ञान फिर से प्रकाशित करें, जिससे वे इस संसार सागर से सरलता से पार हो सकें।
प्रचेताओं को नारदजी का उपदेश
श्रीनारदजी ने प्रचेताओं को उपदेश देते हुए कहा कि इस संसार में वही कर्म, जन्म और आय सफल हैं जिनसे श्रीहरि की सेवा होती है। बिना भगवान की प्राप्ति के अन्य सभी साधन जैसे तप, शास्त्रज्ञान, और लंबी आयु, किसी को लाभ नहीं देते। श्रीभगवान ही समस्त कल्याणों के कारण हैं, और उनकी पूजा ही सभी पूजा से श्रेष्ठ है। यह समस्त सृष्टि श्रीहरि से उत्पन्न होकर उनमें लीन हो जाती है।
जो भक्त सच्ची भक्ति में रत रहते हैं, उनका अंतःकरण शुद्ध होता है और वे भगवान की असीम कृपा प्राप्त करते हैं। श्रीहरि अपने भक्तों से अत्यधिक प्रेम करते हैं, विशेष रूप से उन निष्किंचन भक्तों से जो अपनी भक्ति में समर्पित रहते हैं। वे उन भक्तों की पूजा स्वीकार करते हैं जो अहंकार और भेदभाव से मुक्त होते हैं। नारदजी ने प्रचेताओं को भगवद्धर्शन के साथ-साथ कई उपदेश दिए और फिर ब्रह्मलोक चले गए। प्रचेताओं ने भगवान के चरित्रों को सुनकर उनके चरणों का ध्यान किया और अंत में भगवान के परमधाम को प्राप्त हुए।
श्रीशुकदेवजी परीक्षित को कहते हैं की श्रीमैत्रेयजीके मुखसे यह भगवद्-गुणानुवादयुक्त पवित्र कथा सुनकर विदुरजी प्रेममग्न हो गये, भक्तिभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्रोंसे पवित्र आँसुओंकी धारा बहने लगी तथा उन्होंने हृदयमें भगवच्चरणोंका स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेयजीके चरणोंपर रख दिया। विदुरजी कहने लगे—महायोगिन्! आप बड़े ही करुणामय हैं। आज आपने मुझे अज्ञानान्धकारके उस पार पहुंचा दिया है, जहाँ अकिंचनोंके सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-मैत्रेयजीको उपर्युक्त वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुरजीने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनोंसे मिलनेके लिये वे हस्तिनापुर चले गये।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 16.12.2024