श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 7 अध्याय: 9-10
नारदजी युधिष्ठिर बताते हैं कि जब भगवान नृसिंह अवतार लेकर उग्र रूप में प्रकट होते हैं, तब ब्रह्मा, शंकर और अन्य देवता भी उनका क्रोध शांत नहीं कर पाते और उनके पास जाने का साहस नहीं कर सकते। उनका रूप इतना विकराल था कि किसी को उसका अंत-किनारा नहीं दिखता। देवताओं ने नृसिंह भगवान को शांत करने के लिए लक्ष्मीजी को भेजा, लेकिन जब उन्होंने भगवान का वह अद्भुत और अद्वितीय रूप देखा, तो वे भी भय से उनके पास नहीं जा सकीं। तब ब्रह्माजी ने प्रह्लादजी से कहा, “बेटा, भगवान तुम्हारे पिता पर ही क्रोधित हुए थे। अब तुम ही जाकर उन्हें शांत करो।”
प्रह्लादजी ने आज्ञा मानकर विनम्रता से भगवान के पास जाकर साष्टांग प्रणाम किया। एक छोटा-सा बालक अपने चरणों में देखकर नृसिंह भगवान का हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद के सिर पर अपना करकमल रख दिया, जो भय से मुक्ति देनेवाला है। भगवान के स्पर्श से प्रह्लाद के सारे अशुभ संस्कार मिट गए और उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हो गया। वे प्रेम और आनंद में डूब गए, भगवान के चरणों को हृदय में धारण कर लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया, हृदय प्रेम से भर गया और आंखों से आनंद के आँसू बहने लगे।प्रह्लादजी एकटक भगवान को निहारते हुए भावविभोर होकर प्रेमपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।
प्रह्लादजीने कहा-ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं?
मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्।
तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः।
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो।
भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय।
मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग–ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे। (भागवत 7.9.9)
व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का
कुब्जाया: किमु नामरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनम् ।
वंशः को विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधव: ।।
व्याध का तो कोई पवित्र आचरण नहीं था,
ध्रुव की उम्र कम थी और विद्या भी नहीं,
गजेंद्र के पास कोई ज्ञान नहीं था,
कुब्जा के लिए तो नाम-रूप भी बोझ था,
सुदामा के पास कोई धन नहीं था।
विदुर का कोई कुल या वंश नहीं था,
यादवों के स्वामी उग्रसेन में कोई शौर्य नहीं था,
फिर भी केवल भक्ति से ही माधव संतुष्ट होते हैं,
गुणों या सामर्थ्य से नहीं।
भगवान को पूजा की आवश्यकता नहीं, वे करुणावश भक्तों की भक्ति स्वीकार करते हैं। इसलिए मैं अयोग्य होते हुए भी भगवान की महिमा गा रहा हूँ, क्योंकि यही भक्ति जीव को संसार से पवित्र कर देती है। वे जगत के कल्याण हेतु विविध अवतारों से लीलाएं करते हैं। जिस असुरको मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब कृपा करके अपना क्रोध शांत करें। जैसे साँप और बिच्छू की मृत्यु से सब सुखी होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के मारे जाने से सबको आनंद मिला है। भक्तजन अब आपके शांत रूप के दर्शन के लिए आतुर हैं।
प्रह्लादजी विनती करते हैं, "हे प्रभु! आपका भयावह रूप देखकर भी मैं नहीं डरता, क्योंकि मेरा भय संसार के दुखदायी चक्र से है। मैं अपने कर्मों में फंसा हुआ इस जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटक रहा हूँ। हे दीनबन्धु! मुझे अपने चरणों की शरण कब देंगे? मैंने हर योनि में दुख ही भोगा है, और दुख मिटाने के उपाय भी दुखद ही निकले। अब आप मुझे ऐसी भक्ति का साधन दीजिए, जिससे मैं आपकी सेवा में लग जाऊँ। आप हमारे परम प्रिय, बिना कारण उपकार करने वाले सच्चे सुहृद हैं और सबके आराध्य हैं। मैं आपकी लीलाओं का गुणगान करता हुआ संसार के दुखों से सहज ही पार हो जाऊँगा, क्योंकि आपके चरणों में स्थित महात्माओं का संग मुझे मिलता रहेगा। इस संसार में कोई भी उपाय बिना आपकी कृपा के किसी का रक्षण नहीं कर सकता। ब्रह्मा से लेकर अन्य समस्त कर्ता जो कुछ भी करते हैं, वह सब आपकी ही प्रेरणा, सामग्री और शक्ति से होता है। संपूर्ण जगत और उसकी क्रिया-प्रक्रिया वास्तव में आप ही हैं।”
प्रह्लादजी कहते हैं — जब पुरुष की अनुमति से काल माया में हलचल करता है, तब माया मन और इन्द्रियों वाला लिंगशरीर रचती है, जो अविद्या का जाल है। यह ही संसारचक्र है, जिसे कोई भी भगवान से भिन्न पुरुष पार नहीं कर सकता। माया मुझे इस संसाररूपी चक्र में पीस रही है। आप सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं, कृपा करके मुझे अपनी शरण में ले लीजिए। मैंने स्वर्ग की आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य देख लिए हैं, जो उनके पिता के क्रोध से भी डोल जाते थे। लेकिन वह सब नश्वर है, काल उन्हें निगल चुका है। मुझे न स्वर्ग चाहिए, न भोग। अब आप मुझे अपने भक्तों की संगति में ले चलें, यही मेरी प्रार्थना है।
विषयभोग सुनने में अच्छे लगते हैं, पर वास्तव में मृगतृष्णा जैसे झूठे और शरीर रोगों का घर है। फिर भी मनुष्य इन क्षणिक सुखों के पीछे भागता है, जैसे मधु के छोटे-छोटे कणों से तृप्ति पाना चाहता हो। भगवान सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं, इसलिए उनमें कोई भेद नहीं; लेकिन उनकी कृपा सेवा और भक्ति से ही प्राप्त होती है, जन्म से नहीं। यह संसार अंधेरे कुएँ जैसा है, जिसमें कालरूपी सर्प डंसने को तैयार रहता है। मैं भी गिरने वाला था, पर नारदजी ने बचा लिया। इसलिए मैं कभी भी आपके भक्तों की सेवा नहीं छोड़ सकता। जब मेरे पिता ने अन्यायपूर्वक मुझे मारने के लिये तलवार उठाई और चुनौती दी कि "अगर कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले", तब आपने ही मेरी रक्षा की और उसका वध किया।मैं मानता हूँ कि यह सब आपने अपने भक्त सनकादि ऋषियों के वचन को सत्य करने के लिये किया था।
प्रह्लादजी कहते हैं- भगवान् ही जगत् के आदि, मध्य और अंत हैं, सबकुछ उन्हीं से प्रकट होकर उन्हीं में लीन होता है।
संसार का कारण-कार्य रूप भी भगवान् ही हैं, भिन्नता केवल माया का भ्रम है। प्रलयकाल में भगवान् तुरीय अवस्था में विश्राम करते हैं, और फिर अपनी इच्छा से ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं। विराट् पुरुष रूप में भगवान् के अनेकों मुख, हाथ, अंग आदि हैं—चौदहों लोक उनके अंग हैं। मधु-कैटभ को मारकर आपने वेदों की रक्षा की, और ब्रह्माजी को वेद लौटा दिये। हर युग में आप विभिन्न अवतार लेकर धर्म की रक्षा और दुष्टों का विनाश करते हैं। कलियुग में आप गुप्तरूप से विद्यमान रहते हैं, इसी कारण आपका नाम ‘त्रियुग’ (तीन युगों में प्रकट) है।
प्रह्लादजी भगवान से करुण भाव से निवेदन करते हैं, "हे वैकुण्ठनाथ! मेरा मन पापवासनाओं से अशुद्ध और इन्द्रियों से खिंचा हुआ है, इसलिए आपकी लीलाओं में रस नहीं ले पाता। मैं संसार के झूठे सुखों और जन्म-मरण के चक्र में फँसकर थक गया हूँ। हे जगदगुरु! जैसे आपने सबकी रचना की है, वैसे ही कृपा कर इन मूढ़ प्राणियों को भी भवसागर से पार उतार दीजिए। मुझे तो भय नहीं, क्योंकि मेरा मन आपकी लीलाओं में लगा है—लेकिन वे लोग दुर्भाग्यशाली हैं, जो इन्द्रियों के पीछे भागकर आपके अमृतमय गुणगान से विमुख हैं।
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दुसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता।
मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं—मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं उनके लिये ये सब जीविकाके साधनव्यापारमात्र रह जाते हैं। वेदों ने आपके दो रूप बताए हैं—कार्य और कारण, पर वास्तव में आप स्वरूपरहित और परे हैं।सभी तत्व—वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल, इन्द्रिय, मन, अहंकार, जगत्, सत्त्वादि गुण और उनके परिणाम—सब आपका ही रूप हैं। ज्ञानी लोग समझते हैं कि ये सब सीमित और परिवर्तनशील हैं, जबकि आप अनादि और अनन्त हैं, इसलिए शब्द और विचार आपके स्वरूप को पूरी तरह नहीं पकड़ सकते।”
तत्तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः।
कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम्।
संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं।
भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत।
परम पूज्य! आपकी सेवाके छः अंग हैं-नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण। इस षडंगसेवाके बिना आपके चरणकमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व हैं। (भागवत 7.9.50)
नारदजी कहते हैं इस प्रकार भक्त प्रह्लाद के द्वारा भगवान के स्वरूप और गुणों का प्रेमपूर्वक वर्णन किया। इससे नृसिंह भगवान का क्रोध शांत हुआ और वे प्रसन्न होकर प्रह्लाद से बोले, "परम कल्याण-स्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ।"
असुरकलभूषण प्रह्लादजी भगवानके अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बडे-बडे लोगोंको प्रलोभनमें डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की। प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेमभक्तिका विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्से बोले की मैं जन्मसे ही विषय-भोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोंके द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोंके संगसे डरकर उनसे छूटनेकी अभिलाषासे ही आपकी शरणमें आया हूँ। मुझमें भक्तके लक्षण हैं या नहीं यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगनेकी ओर प्रेरित किया है। ये विषय- भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले हैं। परीक्षाके सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है? वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ।
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः।
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन्यो राति चाशिषः ।
जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं । (भागवत 7.10.5)
मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं।
यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्।
मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका बीज अंकुरित ही न हो। (भागवत 7.10.7)
इन्द्रि याणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना।
हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा , श्री, तेज, स्मृति और सत्य–ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं। (भागवत 7.10.8)
विमुञ्चति यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते।
कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। (भागवत 7.10.9)
ॐ नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने।
भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। (भागवत 7.10.10)
श्रीनृसिंहभगवान् ने प्रह्लादजी से कहा कि सच्चे एकान्त भक्त कभी भी लोक या परलोक की कोई भी कामना नहीं करते। फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिए तुम एक मन्वंतर तक दैत्यराज्य के सारे भोग स्वीकार करो। तुम अपने हृदय में निरंतर मुझे देखते रहो, मेरी प्रिय लीलाओं को सुनते रहो और समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना।
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं कलेवरं कालजवेन हित्वा।
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः।
भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे। (भागवत 7.10.13)
प्रह्लादजी ने भगवान से अपने पिता के उद्धार की प्रार्थना की, जिन्होंने अज्ञानवश भगवान की निन्दा की थी। उन्होंने कहा कि यद्यपि भगवान की दृष्टि से वे शुद्ध हो चुके हैं, फिर भी उनका दोष पूर्णतः मिट जाये — यही वे वर माँगते हैं। श्रीनृसिंहभगवान् ने उत्तर दिया कि तुम्हारे पिता तो तर ही गये, यदि उनकी 21 पीढ़ियाँ भी होतीं तो वे भी तुम्हारे जैसे पवित्र भक्तपुत्र के कारण उद्धार पा जातीं।
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्तेऽपि कीकटाः ।
मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं। (भागवत 7.10.19)
नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर! भगवान्की आज्ञाके अनुसार प्रह्लादजीने अपने पिताकी अन्त्येष्टि-क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उनका राज्याबिषेक किया। ब्रह्माजी ने नृसिंह भगवान की स्तुति कर कहा कीमैंने ही हिरण्यकशिपु को वर दिया था कि कोई प्राणी उसे न मार सके, इसी से वह अहंकारी बन गया। सौभाग्य है कि उसका भक्त पुत्र प्रह्लाद आपकी शरण में है। आपके इस नृसिंह रूप का ध्यान करने से मनुष्य सभी भय से मुक्त हो जाता है। भगवान ने उत्तर दिया—ब्रह्माजी! आगे से क्रूर दैत्यों को ऐसे वर मत दीजिये, क्योंकि यह तो ऐसा है जैसे साँप को दूध पिलाना। इतना कहकर वह वहीं अन्तर्धान हो गये । इसके बाद प्रह्लादजीने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शंकरकी तथा प्रजापति और देवताओंकी पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया। तब शुक्राचार्य आदि मुनियोंके साथ ब्रह्माजीने प्रह्लादजीको समस्त दानव और दैत्योंका अधिपति बना दिया और वे लोग अपने-अपने लोकोंको चले गये।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 16.05.2025