श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 7 अध्याय: 5-7
जब प्रह्लाद ने श्री हरि की नवधा भक्ति द्वारा उपासना की विधि का वर्णन किया, तो हिरण्यकशिपु क्रोध से बौखला उठा। उसने प्रह्लाद को अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। उसके नेत्र क्रोध से लाल हो उठे और वह गरजते हुए दैत्य सैनिकों से बोला – “इसको मार डालो!” हिरण्यकशिपु के आदेश पर विकराल दैत्य त्रिशूल लेकर प्रह्लाद पर टूट पड़े और उनके शरीर के मर्मस्थलों पर प्रहार करने लगे, परन्तु प्रह्लाद पूरी निष्ठा से परमात्मा में लीन थे। उनकी श्रीहरि भक्ति के प्रभाव से दैत्यों के सारे प्रयास निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के उद्योग विफल हो जाते हैं। यह देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक भयंकर उपाय किए—हाथियों से कुचलवाना, विषधर सर्पों से डँसवाना, कृत्या राक्षसी द्वारा हमला, पहाड़ से गिरवाना, मायावी आक्रमण, विष देना, भूखा रखना, आग, समुद्र, आँधी और बर्फ में डालना, यहाँ तक कि पर्वतों के नीचे दबवाना भी; लेकिन इनमें से कोई भी उपाय प्रह्लाद का कुछ बिगाड़ न सका।
अंततः हिरण्यकशिपु पूर्णतः निराश और चिंतित हो गया कि अब वह अपने पुत्र को मारने के लिये और क्या करे। उसने प्रह्लाद को बहुत अपमानित किया, मारने के अनेक उपाय भी किये, पर वह बालक न केवल बचता गया, बल्कि निडर होकर उसी के पास भी रहता है। हिरण्यकशिपु को यह लगने लगा कि प्रह्लाद में कोई विशेष सामर्थ्य अवश्य है। उसको यह भय सताने लगा कि न तो प्रह्लाद किसी से डरता है, न मरता है, और उसकी शक्ति का कोई माप नहीं है — संभव है, भविष्य में वही उसके अंत का कारण बने। इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्यके पुत्र शण्ड और अमर्कने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्तमें जाकर उससे यह बात कही "राजन्! आप तीनों लोकों के विजेता हैं। एक बालक से क्यों चिंतित हैं? जबतक हमारे पिता शुक्राचार्यजी नहीं लौटते, तबतक इसे बाँधकर रखें। समय और शिक्षा से इसकी बुद्धि सुधर सकती है।"
हिरण्यकशिपु ने उनकी सलाह मान ली और प्रह्लाद को फिर से पाठशाला भेज दिया, जहाँ उसे धर्म, अर्थ और काम — इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा दी जाने लगी। प्रह्लाद बड़े नम्र भाव से सीखते रहे, लेकिन उन्हें वह शिक्षा रास नहीं आई क्योंकि वह विषयभोग और राग-द्वेष में लिप्त लोगों के लिए थी।
प्रह्लाद ने बताया क्यों बचपन से करनी चाहिए श्री हरि की भक्ति
एक दिन जब गुरु किसी कार्य से बाहर गए, तो छुट्टी के समय बालकों ने प्रह्लाद को खेलने के लिए बुलाया। वे जानते थे कि इन बालकों की बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई है, और उनके मन में श्रद्धा है। अतः उन्होंने खेल छोड़कर प्रह्लादजी के चारों ओर बैठकर भक्तिभाव से उनके उपदेशों को सुनना शुरू किया। प्रह्लादजी का हृदय दया और स्नेह से भर उठा, और उन्होंने उन्हें भगवान की भक्ति का उपदेश देना शुरू किया।
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥
प्रह्लादजीने कहा-मित्रो! इस संसारमें मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको बुढ़ापे या जवानीके भरोसे न रहकर बचपनमें ही । भगवान्की प्राप्ति करानेवाले साधनोंका अनुष्ठान कर लेना चाहिये। (भागवत 7.6.1)
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् ।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥
इस मनुष्य जन्ममें श्रीभगवान्के चरणोंकी शरण लेना ही जीवनकी एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियोंके स्वामी, सहृद, प्रियतम और आत्मा हैं। (भागवत 7.6.2)
सुख-दुख प्रारब्ध से मिलते हैं, इसलिए सिर्फ इन्द्रियसुख के लिए मेहनत करना व्यर्थ है। जो लोग इन सुखों में फँसे रहते हैं, वे भगवान को नहीं पा सकते। जीवन अनिश्चित है, इसलिए जब तक शरीर ठीक है, आत्मकल्याण के लिए प्रयास करना चाहिए। जिन्होंने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, उनकी आधी उम्र सोते हुए ही निकल जाती है।
मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः ।
जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः ॥
बचपनमें उन्हें अपने हित-अहितका ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होनेपर कुमार अवस्थामें वे खेल-कूदमें लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्षका तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीरको ग्रस लेता है, तब अन्तके बीस वर्षों में कुछ करने-धरनेकी शक्ति ही नहीं रह जाती। (भागवत 7.6.7)
दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा ।
शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥
बीचकी कुछ थोड़ी-सी आयु में कभी न पूरी होनेवाली बडी-बडी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वारकी वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथसे निकल जाती है। (भागवत 7.6.8)
हे दैत्य बालको!जो व्यक्ति इन्द्रिय सुख को ही जीवन का सब कुछ मान लेता है, वह इच्छाओं के जाल में फँसकर संसार में उलझ जाता है और पाप तक कर बैठता है। वह केवल परिवार और धन की चिन्ता में जीवन बिता देता है और भगवान का भजन नहीं करता, जिससे वह अंधकारमयी गति को प्राप्त होता है। जो स्त्री और सन्तान के मोह में फँस गया है, वह जीवन का उद्धार नहीं कर सकता।
इसलिए तुम ऐसे विषयासक्त लोगों का संग छोड़कर भगवान नारायण की शरण लो। जो संसार की आसक्ति छोड़ देते हैं, उनके लिए भगवान ही सबसे प्रिय और परम लक्ष्य होते हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए बहुत प्रयास नहीं चाहिए, क्योंकि वे हर प्राणी में आत्मा रूप में सदा विद्यमान हैं।
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च॥
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।
एक एव परो ह्यात्मा भगवान् ईश्वरोऽव्ययः॥
ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक छोटे-बड़े समस्त प्राणियोंमें, पंचभूतोंसे बनी हुई वस्तुओंमें, पंचभूतोंमें, सूक्ष्म तन्मात्राओंमें, महत्तत्त्वमें, तीनों गुणोंमें और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृतिमें एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्योंकी खान हैं। (भागवत 7.6.20-21)
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम् ।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो हि, अनिर्देश्योऽविकल्पितः॥
वे ही अन्तर्यामी द्रष्टाके रूपमें हैं और वे ही दृश्य जगत्के रूपमें भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होनेपर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापकके रूपमें उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। (भागवत 7.6.22)
केवलानुभवानन्द स्वरूपः परमेश्वरः ।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया॥
वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली मायाके द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। (भागवत 7.6.23)
इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपनेका, आसुरी सम्पत्तिका त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं। जब भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, तब धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- सब कुछ सहज मिल जाता है। यदि वेद-शास्त्रों का ज्ञान भगवान की भक्ति में सहायक न हो, तो वह व्यर्थ है। यह दुर्लभ भागवत ज्ञान उन्हीं को मिलता है जो भगवद्भक्तों की चरण-रज से पवित्र होते हैं। यही सच्चा और शुद्ध ज्ञान है, जिसे मैंने नारदजी से सुना था।
प्रह्लादजीके सहपाठियोंने पूछा की इन दोनों गुरुपुत्रोंको छोड़कर और किसी गुरुको तो न तुम जानते हो और न हम। तुम एक तो अभी छोटी अवस्थाके हो और दूसरे जन्मसे ही महलमें अपनी माँके पास रहे हो। ऐसे में तुम नारदजी से कब और कैसे मिले थे?
प्रह्लाद को गर्भ में ही मिला भागवत धर्म का ज्ञान
नारदजी युधिष्ठिर से कहते हैं की जब दैत्यबालकोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब प्रह्लादजीको मेरी बातका स्मरण हो आया और कुछ मुसकराते हुए उन्होंने कहा की जब मेरे पिताजी तपस्या करने मन्दराचल चले गये, देवताओं ने दानवों पर आक्रमण किया। दैत्य भाग गये और इन्द्र ने मेरी माँ कयाधू को बंदी बना लिया। नारदजी ने उसे बचाया और बताया कि उसके गर्भ में भगवान का परम भक्त है, जिसे कोई मार नहीं सकता। इन्द्र ने सम्मानपूर्वक मेरी माँ को छोड़ा और नारदजी के कहने पर वह उनके आश्रम में रहने लगी। वहाँ मेरी माँ ने भक्तिभाव से नारदजी की सेवा की, और मुझे गर्भ में रहते ही भागवतधर्म का ज्ञान मिला। नारदजी की कृपा से वह ज्ञान मुझे आज भी स्मरण है। यदि तुम श्रद्धा रखो, तो वह ज्ञान तुम्हें भी प्राप्त हो सकता है।
शरीर के ६ विकार
जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः।
फलानामिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ।।
जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों में फल लगते हैं, ठहरते हैं, बढ़ते हैं, पकते हैं, क्षीण होते हैं और अंततः नष्ट हो जाते हैं—उसी प्रकार जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय और विनाश—ये छह भाव-विकार (शारीरिक अवस्थाएं) केवल शरीर में होते हैं, आत्मा से इनका कोई संबंध नहीं होता। (भागवत 7.7.18)
आत्मा का १२ उत्कृष्ट लक्षण
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः।
अविक्रियः स्वदृघेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ।।
आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है। (भागवत 7.7.19)
ये बारह आत्माके उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्वको जाननेवाले पुरुषको चाहिये कि शरीर आदिमें अज्ञानके कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे। जैसे कोई सोनार पत्थर से सोना निकालने की विधि जानता है और उसे निकाल लेता है, वैसे ही जो व्यक्ति आत्मा और अध्यात्म के तत्त्व को जानता है, वह अपने ही शरीर में साधना के द्वारा परमात्मा (ब्रह्म) का अनुभव कर लेता है।
देह की परिभाषा
अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः।
विकाराः षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ।
आचार्योंने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ इन आठ तत्त्वोंको प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं- सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलहदस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। (भागवत 7.7.22)
देहस्तु सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा।
अत्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ।
इन सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकारका है- स्थावर और जंगम। इसीमें अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओंका ‘यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्माको ढूँढ़ना चाहिये।(भागवत 7.7.23)
आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक। इस प्रकार शुद्ध बद्धिसे धीरे-धीरे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलयपर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति — ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धि की हैं, और इनका अनुभव करनेवाला आत्मा सबका साक्षी परमात्मा है। आत्मा, शरीर और प्रकृति से अलग है, लेकिन अज्ञानवश वह जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा रहता है।
जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति का सर्वोत्तम साधन क्या है?
इससे मुक्त होने के लिए कर्मों का मूल बीज — गुण और वासनाएँ — नष्ट करना ज़रूरी है। यही योग है, यही परमात्मा से मिलन है। हालाँकि कई उपाय हैं, लेकिन निष्काम प्रेम से भगवान में जुड़ जाना ही सर्वोत्तम साधन है, जैसा स्वयं भगवान ने कहा है।
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च।
सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च।
श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम्।
तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः।
गुरुकी प्रेमपूर्वक सेवा, अपनेको जो कुछ मिले वह सब प्रेमसे भगवान्को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओंका सत्संग, भगवान्की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओंका कीर्तन, उनके चरणकमलोंका ध्यान और उनके मन्दिरमूर्ति आदिका दर्शन-पूजन आदि साधनोंसे भगवान्में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है। (भागवत 7.7.30-31)
हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः।
इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत् ।
सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियोंमें विराजमान हैं— ऐसी भावनासे यथाशक्ति सभी प्राणियोंकी इच्छा पूर्ण करे और हृदयसे उनका सम्मान करे। (भागवत 7.7.32)
एवं निर्जितषड्वर्गैः क्रियते भक्तिरीश्वरे।
वासुदेवे भगवति यया संलभ्यते रतिः ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छ: शत्रुओंपर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान्की साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्तिके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्यप्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। (भागवत 7.7.33)
जब कोई भक्त भगवान की लीलाओं, गुणों और चरित्रों को सुनकर आनंद से भर जाता है — उसका शरीर रोमांचित हो उठता है, आंखों से आंसू बहने लगते हैं, वह नाचने, गाने और चिल्लाने लगता है, तो यह भक्तियोग का प्रभाव है। ऐसा भक्त जब भगवान में पूरी तरह लीन हो जाता है, तब उसके सारे बंधन कट जाते हैं और उसका हृदय भी भगवानमय हो जाता है। जन्म-मृत्यु का चक्र खत्म हो जाता है और वह भगवान को पा लेता है।
मनुष्य जीवन का एकमात्र परमार्थ – श्रीकृष्ण भक्ति
इस संसार के कीचड़ में फंसे जीव के लिए भगवान की प्राप्ति ही एकमात्र मुक्ति है। विद्वान उसे ‘ब्रह्म’ कहते हैं और कोई ‘निर्वाण’। भगवान तो सबके हृदय में रहते हैं, उनका भजन करने में कोई विशेष परिश्रम नहीं है। वे हमारे आत्मा समान, हमारे सबसे प्रिय सखा हैं। फिर उन्हें छोड़कर सांसारिक भोगों के पीछे भागना भारी मूर्खता है। धन, स्त्री, संतान, महल, हाथी, खजाना — सब क्षणभंगुर हैं, इन्हें पाने वाला भी क्षणभंगुर है। स्वर्ग और यज्ञ के फल भी नाशवान हैं, इसीलिए इनको भी दोष युक्त कहा गया है। केवल भगवान ही पूर्ण हैं, निर्दोष हैं। मनुष्य अपने को बड़ा ज्ञानी मानकर सुख पाने और दुःख मिटाने के लिए बार-बार कर्म करता है, लेकिन उसे उल्टा दुःख ही मिलता है। कामनाएँ बढ़ने पर जो पहले सुखी था, अब दुखी हो जाता है।
जिस शरीर के लिए इतना परिश्रम करता है, वही शरीर अंत में नाश होकर कुत्तों-सियारों का भोजन बनता है। फिर उससे जुड़े पुत्र, स्त्री, धन, महल, सेवक आदि की क्या बात करें — वे सब भी नाशवान हैं। ये सब विषय-वस्तुएं देखने में पुरुषार्थ (उपयोगी) लगती हैं, पर वास्तव में अनर्थ (हानिकर) हैं। आत्मा तो स्वयं अनंत आनंद का स्रोत है — उसे इन तुच्छ वस्तुओं की कोई ज़रूरत नहीं। भाइयो! ज़रा सोचो — जो जीव जन्म से मृत्यु तक सिर्फ कर्मों के अधीन रहकर कष्ट ही पाता है, उसका असल में इस संसार में क्या हित है?
जीव अपनी पहचान सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि आदि) से जोड़ लेता है और इसी भ्रांति से वह बार-बार कर्म करता है। कर्म करने से नया शरीर मिलता है और शरीर मिलने से फिर नए कर्म—इस तरह शरीर और कर्म का चक्र चलता रहता है। यह सब अविवेक (ज्ञान की कमी) के कारण होता है। इस चक्र से मुक्त होने का एक ही उपाय है—निष्काम भाव से भगवान् श्रीहरि का भजन। क्योंकि धर्म, अर्थ, काम—सबकुछ उन्हीं के अधीन हैं, वे बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि ही सब प्राणियों के परमात्मा, ईश्वर और सच्चे प्रियतम हैं। देव, दैत्य, मानव या कोई भी हो—जो भी भगवद्भक्ति करता है, वह कल्याण का अधिकारी बन जाता है।
नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः।
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ।
न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च।
प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनम् ।
दैत्यबालको! भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानोंसे सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतोंका अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्तिसे ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। (भागवत 7.7.51-52)
इसलिये दानव-वन्धुओ! समस्त प्राणियोंको अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान्की भक्ति करो। भगवान्की भक्तिके प्रभावसे दैत्य, यक्ष, राक्षस, और बहत-से पापी जीव भी भगवदभावको प्राप्त हो गये हैं।
एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः।
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम् ।
इस संसारमें या मनुष्य-शरीरमें जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्यभक्ति प्राप्त करे। उस भक्तिका स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओंमें भगवान्का दर्शन। (भागवत 7.7.55)
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 09.05.2025