श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 1 अध्याय: 18 एवं 19
कलि को रहने के लिए पाँच स्थान देने के बाद राजा परक्षित प्रजा पालन करने लगे। एक दिन वह धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी। जब कहीं उन्हें कोई जल नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषिके आश्रममें घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं। इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और मृगचर्मसे ढका हुआ था।
राजा परीक्षित्ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा परंतु जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको भी न कहा तब अपनेको अपमानित-सा मानकर वे क्रोधके वश हो गये। उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रिय वृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधिका ढोंग रच रखा है। यह कलि का ही प्रभाव था कि राजा परीक्षित जैसे राजर्षि के मन में भी क्रोध, मान का भावना उत्पन्न हुआ। वहाँसे लौटते समय परीक्षित ने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप उठाकर ऋषिके गलेमें डाल दिया और अपनी राजधानीमें चले आये।
उन शमीक मुनिके पुत्र शृंगी बड़े तेजस्वी थे। वह दूसरे ऋषिकुमारोंके साथ पास ही खेल रहा थे। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमारने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके परीक्षित को शाप दिया-
इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ।।
कुलांगार परीक्षित्ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादाका उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा। (भागवत 1-18-37)
इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा। शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है। उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा—‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया।
ब्रह्मर्षि शमीकने राजाके शापकी बात सुनकर अपने पुत्र के कार्य को अच्छा नहीं माना। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया। तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। वे भगवान्के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं। इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप राजाका अपराध किया है, भगवान् इसे क्षमा करें।’
भगवान्के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते। महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षित्ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते।
डारि नाग ऋषि कंठ में, नृप ने कीन्हों पाप।
होनहार हो कर हुतो, ऋंगी दीन्हों शाप॥
उधर राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे की मैंने निरपराध ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेदकी बात है। अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से-शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दुःसाहस नहीं करूँगा। ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजानेको जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओंके प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो।
वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषिकुमारके शापसे तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आगके समान तक्षकका डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनोंसे मैं संसारमें आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया। वे इस लोक और परलोकके भोगोंको तो पहलेसे ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपतः त्याग करके भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगातटपर बैठ गये। राजा परीक्षित के मन में न ही शाप देने वाले के प्रति द्वेष या दुर्भावना या प्रतिशोध की भावना आयी न ही भरापुरा राज्य, एवं प्राण के प्रति आसक्ति।
सोइ पंडित सोइ पारखी सोई संत सुजान ।
सोई सूर सचेत सो सोई सुभट प्रमान ॥
सोइ ग्यानी सोइ गुनी जन सोई दाता ध्यानि ।
तुलसी जाके चित भई राग द्वेष की हानि ॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसके चित्त से राग-द्वेष का नाश हों गया है, वही पण्डित है, वही (सत-असत का) पारखी है; वही चतुर संत है, वही शूरवीर है, वही सावधान है; वही प्रामाणिक योद्धा है, वही ज्ञानी है, वही गुणवान् पुरुष है, वही दाता है और वही ध्यान-सम्पन्न है।
उस समय त्रिलोकीको पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्योंके साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थयात्राके बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानोंको ही पवित्र करते हैं । उस समय वहाँपर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान् व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्योंका शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रोंके मुख्य-मुख्य ऋषियोंको एकत्र देखकर राजाने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणोंपर सिर रखकर वन्दना की।
तब महाराज परीक्षित्ने उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदयसे अंजलि बाँधकर कहा, ‘अहो! समस्त राजाओंमें हम धन्य हैं। राजवंशके लोग प्रायः निन्दित कर्म करनेके कारण ब्राह्मणोंके चरण-धोवनसे दूर पड़ जाते हैं। मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहनेके कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ। इसीसे स्वयं भगवान् ही ब्राह्मणके शापके रूपमें मुझपर कृपा करनेके लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। क्योंकि इस प्रकारके शापसे संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं । अब मैंने अपने चित्तको भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर दिया है। आपलोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझपर अनुग्रह करें, तक्षक आकर डस ले इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है। आपलोग कृपा करके भगवान्की रसमयी लीलाओंका गायन करें। मैं आप ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनिमें जन्म लेना पड़े, भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओंसे विशेष प्रीति हो और जगत्के समस्त प्राणियोंके प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये।’
परीक्षित महाराज ने अपना अंत समय अत देख वह कर दिखाया जो सभी मनुष्य को करना चाइए। मृत्यु के समय कोई काम नहीं आता है। इसीलिए मनुष्य को समय रहते ही भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय लेना चाइए।
गहो रे मन ! श्याम चरण शरणाई।
अन्त समय कोउ काम न अइहैं, मात पिता सुत भाइ।
काम, क्रोध अरु लोभ, मोह, मद, इन सों कछु न बसाई।
यह जग मृग-तृष्णा सम दीखत, सुख लवलेश न पाई।
धन-यौवन-तन छन-भंगुर सब, ज्यों कपूर उड़ि जाई।
बहुरि 'कृपालु' न नर तनु पाइय, बिगरी लेहु बनाई।।
श्रीशुकदेवजी महाराज कैसे हैं
महाराज परीक्षित् परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजीके दक्षिण तटपर कुशोंके आसनपर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज-काजका भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजयको सौंप दिया था। उसी समय पृथ्वीपर स्वेच्छासे विचरण करते हुए, किसीकी कोई अपेक्षा न रखनेवाले व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। उनका वेष अवधूतका था । सोलह वर्षकी अवस्था थी। चरण, हाथ, जंघा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था । हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवरके समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवलीसे युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुखपर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेषमें वे श्रेष्ठ देवताके समान तेजस्वी जान पड़ते थे । श्याम रंग था। यद्यपि उन्होंने अपने तेजको छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जाननेवाले मुनियोंने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मानके लिये उठ खड़े हुए । राजा परीक्षित्ने अतिथिरूपसे पधारे हुए श्रीशुकदेवजीको सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए।
जब श्रीशुकदेवजी शान्तभावसे बैठ गये, तब परीक्षित्ने उनके समीप आकर और चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणीसे उनसे यह पूछा, ‘आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि हमें संत-समागमका अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूपसे पधारकर आपने हमें तीर्थके तुल्य पवित्र बना दिया । आप-जैसे महात्माओंके स्मरणमात्रसे ही गृहस्थोंके घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसन-दानादिका सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है । जैसे भगवान् विष्णुके सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधिसे बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं । अवश्य ही पाण्डवोंके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयोंकी प्रसन्नताके लिये उन्हींके कुलमें उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपनका व्यवहार किया है । भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्युके समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्योंको क्यों दर्शन देते ।’
हरि कृपा गुरु मिले, गोविंदा राधे।
गुरु कृपा हरि मिले, सबको बता दे।।
राजा परीक्षित ने आगे कहा- आप योगियोंके परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धिके स्वरूप और साधनके सम्बन्धमें प्रश्न कर रहा हूँ।
- जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये?
- मनुष्य किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें?
आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थोंके घरपर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते । सूतजी कहते हैं—जब राजाने बड़ी ही मधुर वाणीमें इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे । इसके साथ ही श्रीमद्भागवत महापुराण का प्रथम स्कंध समाप्त होता है।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 26.07.2024