श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 7 अध्याय: 8
नारदजी युधिष्ठिर को बताते हैं कि प्रह्लादजी का भगवद्भक्ति से भरा उपदेश सुनकर दैत्यबालक उसी समय प्रभु के मार्ग पर चलने लगे और गुरु की अधार्मिक बातों पर ध्यान नहीं दिया। जब गुरु ने देखा कि सबकी बुद्धि भगवान में लग गई है, तो घबराकर हिरण्यकशिपु से शिकायत की। प्रह्लाद की भक्ति और आज्ञा उल्लंघन से हिरण्यकशिपु क्रोधित हो गया और उसे मारने का निश्चय कर लिया।
हिरण्यकशिपु ने क्रोध में कहा, "अरे मूर्ख! तू तो बहुत उद्दंड हो गया है। खुद तो बिगड़ा है ही, अब औरों को भी बिगाड़ना चाहता है! मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर तूने भारी दुस्साहस किया है। आज ही तुझे मार डालूंगा। मैं जब क्रोधित होता हूँ, तो तीनों लोक कांप उठते हैं। बता, किसके बल पर तू मेरे विरुद्ध जाने का साहस कर रहा है?"
प्रह्लादजी ने विनम्रता से कहा-
“हे दैत्यराज! ब्रह्माजी से लेकर तिनके तक, सभी छोटे-बड़े, जड़-चेतन जीवों को भगवान ही अपने नियंत्रण में रखते हैं। मेरे और आपके ही नहीं, बल्कि पूरे संसार के बलवानों की शक्ति भी उन्हीं की दी हुई है। वे ही सबसे शक्तिशाली, महान और कालस्वरूप प्रभु हैं। सभी प्राणियों का इन्द्रियबल, मनोबल, शरीर की ताकत, धैर्य और इन्द्रियाँ भी उन्हीं की ही शक्ति हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियों से इस सृष्टि की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही सत्व, रज, तम- तीनों गुणों के स्वामी हैं।
“हे दैत्यराज! ब्रह्माजी से लेकर तिनके तक, सभी छोटे-बड़े, जड़-चेतन जीवों को भगवान ही अपने नियंत्रण में रखते हैं। मेरे और आपके ही नहीं, बल्कि पूरे संसार के बलवानों की शक्ति भी उन्हीं की दी हुई है। वे ही सबसे शक्तिशाली, महान और कालस्वरूप प्रभु हैं। सभी प्राणियों का इन्द्रियबल, मनोबल, शरीर की ताकत, धैर्य और इन्द्रियाँ भी उन्हीं की ही शक्ति हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियों से इस सृष्टि की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही सत्व, रज, तम- तीनों गुणों के स्वामी हैं।
आप कृपया यह अहंकार और आसुरी भाव छोड़ दीजिए। अपने मन को सभी के लिए समान बनाइए। इस संसार में असली दुश्मन कोई बाहर नहीं, बल्कि वही मन है जो हमारे काबू में नहीं रहता और गलत रास्तों पर ले जाता है।
भगवान की सबसे बड़ी पूजा यही है कि हम अपने मन में सभी के प्रति समानता का भाव रखें।
जो लोग अपनी छह इन्द्रियों (आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और मन) जैसे लूटनेवाले डाकुओं पर विजय नहीं पाते, और सोचते हैं कि हमने सारी दिशाएं जीत लीं- वे मूर्ख हैं। लेकिन जो ज्ञानी और जितेन्द्रिय (इन्द्रियों को वश में रखनेवाले) महापुरुष सभी प्राणियों को समान देखते हैं- उनके भीतर से काम, क्रोध जैसे अज्ञानजन्य शत्रु भी खत्म हो जाते हैं। ऐसे में फिर कोई बाहरी शत्रु रह ही नहीं सकता।”
हिरण्यकशिपुने कहा-
“रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैरकी बातें बका करते हैं।
यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः।
क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते।
अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगतका स्वामी बतलाया है, सो देखू तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता? (भागवत 7.8.13)
सोऽहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते।
गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ।
अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है। (भागवत 7.8.14)
इस तरह हिरण्यकशिपु भगवान के परम भक्त प्रह्लाद को बार-बार डाँटता रहा और तरह-तरह से तंग करता रहा। जब वह क्रोध से इतना भर गया कि खुद को रोक नहीं पाया, तब वह हाथ में तलवार लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बहुत ज़ोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा।
उसी समय उस खंभेमें एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालोंके लोकमें पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादिको ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकोंका प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े जोरसे झपटा था; परन्तु दैत्यको भी भयसे कँपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्दको सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है? परन्तु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा।
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्।
इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंहका ही था और न मनुष्यका ही। (भागवत 7.8.18)
नृसिंह भगवान का रूप न मनुष्य का था, न जानवर का — आधा सिंह और आधा पुरुष। उनका चेहरा बहुत भयंकर था, आंखें जलती हुई अग्नि जैसी, बाल बिखरे हुए, जीभ तलवार की तरह बाहर निकली हुई, और नाखून इतने तेज़ कि किसी शस्त्र से कम नहीं। विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। उन्हें देखकर देवता भी डर के मारे बादलों में छिप गए।
हिरण्यकशिपु ने सोचा कि यह विष्णु का कोई नया रूप है, लेकिन वह भी घबराया नहीं। वह गदा और तलवार लेकर भगवान पर टूट पड़ा। थोड़ी देर भगवान ने जैसे खिलवाड़ किया, लेकिन फिर बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया और वेगसे झपटकर उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहेको पकड़ लेता है।
जिस हिरण्यकशिपु के चमड़ेपर वज्रकी चोटसे भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था। भगवान्ने सभाके दरवाजेपर ले जाकर उसे अपनी जाँघोंपर गिरा लिया और खेल-खेलमें अपने नखोंसे उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं। उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोंकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो रहे थे। हाथीको मारकर गलेमें आँतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी। उन्होंने अपने तीखे नखोंसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाड़कर उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवानपर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेड़कर उन्हें मार डाला।
नारदजी युधिष्ठिर को कहते हैं की उस समय भगवान नृसिंह इतने क्रोधित थे कि उनके शरीर से निकल रही ऊर्जा से पूरा ब्रह्मांड हिलने लगा। उनकी गर्दन के बालों के झटके से बादल उड़ने लगे। उनकी आंखों की तेज़ चमक से सूर्य और बाकी ग्रहों का प्रकाश फीका पड़ गया। जब उन्होंने सांस ली, तो समुद्र में तूफ़ान आ गया। उनके सिंहनाद से दिशा के हाथी डरकर चिल्लाने लगे। उनके बालों से टकराकर देवताओं के विमान बिखरने लगे, स्वर्ग कांपने लगा। उनके पैरों की धमक से धरती हिल उठी, पहाड़ हवा में उड़ने लगे और उनके तेज़ प्रकाश से आकाश और दिशाएं दिखना बंद हो गईं।
इस समय नृसिंह भगवान्का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राजसभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयंकर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे। जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीडाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं।
आकाशमें विमानोंसे आये हुए भगवान्के दर्शनार्थी देवताओंकी भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान्के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगोंने सिरपर अंजलि बाँधकर सिंहासनपर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 12.05.2025