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6- नारदजी के पूर्वजन्म की कथा

Jun 30th, 2024 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

सूतजी शौनक मुनि को कहते हैं कि भगवान के असंख्य अवतार हुए हैं। ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌के ही अंश हैं।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ⁠। इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ⁠।⁠।
ये सब अवतार तो भगवान्‌के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् (अवतारी) ही हैं⁠। जब इंद्र आदि, दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं। (भागवत 1-3-27)

भगवान का शरीर कैसे बना?

भगवान के सभी रूप या अवतार उनके मायाके महत्त तत्त्व आदि गुणों से स्वयं के द्वारा निर्मित हैं, किन्तु वे दिव्य और चिन्मय बने रहते हैं। जैसे बादल और धूल हवा द्वारा उड़ाए जाते हैं, लेकिन कम बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि बादल और धूल उड़ रही है। वैसे ही भौतिक शरीर भी आत्मा के संपर्क से चेतनवत् कार्य करती है। परंतु अविवेकी पुरुष शरीर को ही चेतन समझते हैं। 

इस भौतिक शरीर (स्थूल शरीर) परे एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुननेमें ही आ सकता है। जिसे सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। जब आत्मा इस सूक्ष्म शरीर से जुड़ती है, तो वह एक जीवन्त प्राणी बन जाती है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में सदैव फंसा रहता है। उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर माया (अज्ञान) से ही आत्मामें स्थापित होता हैं⁠। ⁠तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि माया निवृत (अज्ञान समाप्त) होते ही जीव परमानन्दमय हो जाता है, उसको ब्रह्म का साक्षात्कार होता एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। 

अजन्मा और अकर्मा होते हुए भी भगवान जन्म लेने का एवं अनेक कर्म करने का लीला करते हैं। उनकी लीला अमोघ है। वे लीला से ही इस जग का सृजन, पालन और संहार करते हैं परंतु इसमें आसक्त नहीं होते। वह प्राणियों के अंतःकरण में रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियंत्रक के रूप में विषयों का ग्रहण भी करते हैं परंतु उससे अलग भी रहते हैं। जैसे देखने वाला, जादूगर का किया हुआ खेल को नहीं समझ सकता वैसे ही जीव भी भगवान के द्वारा अपने संकल्प से प्रकट किया हुआ नाना नाम एवं लीला को नहीं समझ सकता। 
स वेद धातुः पदवीं परस्य दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ⁠। योऽमायया संततयानुवृत्त्या भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ⁠।⁠।
भगवान की शक्ति और पराक्रम अनंत है, उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। सारे जगत के निर्माता होने पर भी वह उन सब से परे हैं। उनके लीला रहस्य को वही जान सकता है जो नित्य-निरन्तर निष्कपटभावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवाभावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है। (भागवत 1-3-38)

वेद व्यास ने वेद, पुराण एवं इतिहासों की रचना कब, कैसे और क्यों किया?

सूतजी कहते हैं कि की वेदव्यासने भागवत पुराण बनाया और लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने पुत्र शुकदेव को ग्रहण कराया। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को सुनाया ।⁠ जब श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी (सूतजी) वहाँ बैठा था⁠। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया⁠।

इसपर शौनकीजी ने प्रश्न किया कि:
  1. व्यासजी ने किसकी प्रेरणा से भागवत की रचना की थी?
  2. परम योगी, प्रमात्मा में लीन रहने वाले मौनी शुकदेवजी ने परीक्षित को यह कथा कैसे सुनाया? 
  3. शुकदेवजी तो गृहस्थ के द्वार पर उतने ही देर खड़े रहते जीतने देर में गाय दुही जाती है, फिर उन्होंने कैसे सात दिन एक स्थान में रहकर कथा सुनाया?
  4. परीक्षित की जन्म-मृत्यु की कथा क्या है? 
  5. पाण्डवों के वंश बढ़ाने वाले वह राजा कैसे सब साम्राज्य लक्ष्मी को त्यागकर मृत्यु पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर गंगातट पर बैठकर भागवत सुनने लगे? 
सूतजी ने उत्तर देते हुए कहा- वर्तमान चतुर्युग के द्वापर युग में महर्षि पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार वेद व्यास का जन्म हुआ। एक दिन वह सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नान करके एकांत में बैठे थे। वह भूत भविष्य सब जानते थे। उन्होंने देखा कि प्रत्यक युग में धर्म के क्षय होने से भौतिक वस्तुओं के शक्तियों का भी ह्रास होता है। मनुष्यों का बुद्धि ठीक-ठीक कम नहीं कर पाती, आयु भी कम होता जाता है। ऐसे में सब का कल्याण कैसे हो यह सोचा और वेद को चार भाग में बाँट दिया। फिर इतिहास और पुराण की रचना की जिसको पाँचवा वेद भी कहा जाता है। आगे उन्होंने अपने शिष्यों को इसका स्नातक बनाया:
  • ऋग्वेद- पैल
  • सामवेद- जैमिनि
  • यजुर्वेद- वैशम्पायन
  • अथर्ववेद- सुमन्तु मुनि 
  • इतिहास और पुराण- रोमहर्ष
इन सब ऋषियों अपने-अपने शाखा को और आगे विभक्त कर दिया। इस प्रकार वेदों के अनेक शाखाएँ बनी।ऐसा इसलिए किया कि कम समझ और स्मरण शक्ति वाले भी वेदों को धारण कर सके। इतना करने पर भी वेद व्यासजी के मनको शांति नहीं मिली। वह खिन्न मन से नदी के तट पर बैठ कर सोचने लगे कि मैंने महाभारत लिखने के बहाने सारे वेद का अर्थ खोल दिया। में ब्रह्मतेज से संपन्न समर्थ हूँ फिर भी हृदय में अपूर्णता क्यों? वेद व्यासजी जब यह सोच ही रहे थे कि वहाँ नारदजी पहुँचे। उन्होंने पूछा कि आप संतुष्ट हो ना? महाभारत जैसा ग्रंथ लिखा है? तब व्यासजी बताते हैं कि आप तो ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं सब जानते हैं मुझ में जो कमी रह गई है कृपया बता दीजिए।

नारदजीने कहा व्यासजी कहा की आपने भगवान्‌के निर्मल यशका गान प्रायः नहीं किया⁠। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान् में प्रेम नहीं बढ़त, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है। आपने धर्म आदि पुरुषार्थोंका जैसा निरूपण किया है, भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वैसा निरूपण नहीं किया। जिस वाणीसे—चाहे वह रस-भाव-अलंकारादिसे युक्त ही क्यों न हो—भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अपवित्र मानी जाती है⁠। इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान्‌के नामोंसे युक्त है, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है। 

आप सम्पूर्ण जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये भगवान्‌की लीलाओंका स्मरण कीजिये। जो मनुष्य भगवान्‌की लीलाके अतिरिक्त और कुछ कहनेकी इच्छा करता है, वह उस इच्छासे ही निर्मित अनेक नाम और रूपोंके चक्करमें पड़ जाता है⁠। उसकी बुद्धि भेदभावसे भर जाती है⁠। जैसे हवाके झकोरोंसे डगमगाती हुई डोंगीको कहीं भी ठहरनेका ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती।

संसारी लोग स्वभावसे ही विषयोंमें फँसे हुए हैं⁠। धर्मके नामपर आपने उन्हें सकाम कर्म (यज्ञ, पूजा, लौकिक धर्म का पालन) करनेकी भी आज्ञा दे दी है⁠। ऐसे में संसारी मनुष्य “वेद व्यास ने वेद में ऐसा ही करने को कहा है!” सोच के संसारी कर्मकाण्ड में ही उलझे रहेंगे। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही वेदों में छुपी हुई भगवान की भक्ति को चुन-चुन कर ग्रहण करके परमानन्दका अनुभव कर पायेंगे⁠। अतः संसार में संसारी कर्म-धरम में ही फेज हुए मनुष्यों के कल्याणके लिये आप भगवान्‌की लीलाओंका वर्णन कीजिए। क्यों की बिना भगवान के लीलाओं का श्रवण-स्मरण किए किसी भी मनुष्य का इस भाव-सागर स्वरूप संसार से पार पाना असंभव है। 

इतना कहकर नारदजी आगे बोले, “आप सब जानते हैं, अवतार हैं। मैंने तो संकेत मात्र किया है। अजन्मा होकर भी आपने जीव कल्याण के लिए जन्म लिया है। इसीलिए आप विशेषरूप से श्रीकृष्ण के लीलाओं का वर्णन कीजिए।”
इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयोः। अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम्⁠।⁠।
विद्वानोंने इस बातका निरूपण किया है कि मनुष्यकी तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दानका एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्णके गुणों और लीलाओंका वर्णन किया जाय।(भागवत 1-5-22)

नारदजी के पूर्वजन्म की कथा 

नारदजी ने अपना पूर्व जन्म का वृत्तांत सुनाते हुए कहा की वह तब एक दासी पुत्र थे। वर्षाकाल में चातुर्मास के समय वह एक स्थान में रहकर भक्ति करते थे। छोटा होने पर भी नारदजीको उनकी सेवा मिल गई। वह बोलते कम थे और उनकी शील स्वभाव देखकर वह बड़े खुश हुए। नारदजी उनके उच्छिष्ट खाते थे और मन लगाके साधु सेवा करते थे जिसके कारण उनका अंतःकरण शुद्ध हो गया। उनका बाल मन भगवान के लीला कथाओं में लगाने लगा। जाते समय उन महात्माओं ने नारदजी को दिव्य ज्ञान प्रदान किया।उसके बाद नारदजी चाहते तो थे की सब छोड़कर केवल भक्ति करूँ परंतु उनकी माँ की उनमे बहुत आसक्ति थी, जिसके कारण वह बँध गये। एक दिन माँ को साँप ने डस लिया और वह मर गई। नारदजी ने इसको भी कृपा ही समझा और उत्तर की और निकल पड़े।अनेक नगर, ग्राम, खेत पार करते हुए वह एक घोर जंगल में पहुँचे। 

नारदजी आगे कहते हैं, “चलते-चलते थक गया था। भूक भी लगी थी। वहीं पास में कुण्ड में स्नान करके जल पिया और पीपल के पेड़ के नीचे बैठा। जैसे उन महात्माओं ने बताया था वैसे ही भगवान के चरणों का ध्यान करने लगा। ध्यान में मन ऐसा लगा की आँसू आ गये, शरीर पुलकित होगया।और नाभि तभी अचानक भगवान ने हृदय में अपना दिव्य दर्शन दिया।”एक झलक के बाद भगवान चले गये। नारदजी पुनः दर्शन के लिए व्याकुल हुए और अनेक प्रयत्न करने लगे परंतु असफल रहे।

तभी भगवान ने उनको कहा, "निष्पाप बालक! तुम्हारे हृदयमें मुझे प्राप्त करनेकी लालसा जाग्रत् करनेके लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूपकी झलक दिखायी है⁠। मुझे प्राप्त करनेकी आकांक्षासे युक्त साधक धीरे-धीरे हृदयकी सम्पूर्ण वासनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है। अल्पकालीन संतसेवासे ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है⁠। अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीरको छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे। मुझे प्राप्त करनेका तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा⁠। समस्त सृष्टिका प्रलय हो जानेपर भी मेरी कृपासे तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी।"

आकाशके समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् भगवान इतना कहकर चुप हो रहे⁠। नारदजी उनकी इस कृपाका अनुभव करके लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान्‌के मंगलमय मधुर नामों और लीलाओंका कीर्तन और स्मरण करने लगे⁠। इच्छा और मद-मत्सर उनके हृदयसे पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब वह आनन्दसे कालकी प्रतीक्षा करते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे। समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गई। 

कल्पके अन्तमें जिस समय भगवान् नारायण प्रलय-कालीन समुद्र के जलमें शयन करते हैं, उस समय सारी सृष्टिको समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वासके साथ नारदजी भी उनके हृदयमें प्रवेश कर गये।एक सहस्र चतुर्युगी बीत जानेपर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करनेकी इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियोंसे मरीचि आदि ऋषियोंके साथ नारदजी भी प्रकट हो गया। तभीसे वह भगवान्‌की कृपासे वैकुण्ठादिमें और तीनों लोकोंमें बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करते हैं। भगवान्‌की दी हुई स्वरसे विभूषित वीणापर तान छेड़कर वह उनकी लीलाओंका गान करते हुए सारे संसारमें विचरते रहते हैं।

नारदजी कहते हैं, “जब मैं उनकी लीलाओंका गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, बुलाये हुएकी भाँति तुरन्त मेरे हृदयमें आकर दर्शन दे देते हैं । जिन लोगोंका चित्त निरन्तर विषयभोगोंकी कामनासे आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान्‌की लीलाओंका कीर्तन संसारसागरसे पार जानेका जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है।”

इतना कह कर नारदजी वहाँ से चले गये उसके बाद व्यासजी ने अपने मन को एकाग्र कर भक्ति किया और अंत में भगवान एवं उनकी माया का दर्शन किया। उन्होंने जान लिया कि भगवान की शक्ति माया से मोहित जीव को उससे पार पाने के लिए भक्ति करनी होगी। यही सोचकर फिर उन्होंने भागवत की रचना किया जिसके श्रवण मात्र से जीव को श्रीकृष्ण का निर्मल प्रेम प्राप्त होता है। भागवत को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने पुत्र शुकदेवजी को यह पढ़ाया। 

आगे शौनकजी सूतजी से ने पूछा कि शुकदेवजी ने किसकी प्राप्ति की इच्छा से भागवत पढ़ा? तब सूतजी ने कहा कि जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्याकी गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मामें ही रमण करनेवाले हैं, वे मुक्त-सिद्ध भी भगवान्‌की निष्काम भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्‌के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं। फिर श्रीशुकदेवजी तो भगवान्‌के भक्तोंके अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यासके पुत्र हैं⁠। भगवान्‌के गुणोंने उनके हृदयको अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थका अध्ययन किया।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 28.06.2024