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50- नारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्ष का शाप

Mar 15th, 2025 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 6 अध्याय: 3-5

श्री शुकदेवजी ने कहा– परीक्षित! जब भगवान के पार्षदों ने यमदूतों को अजामिल को यमलोक ले जाने से रोक दिया, तो वे यमराज के पास पहुंचे और बोले, "प्रभु! जीवों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं – पाप, पुण्य और मिश्रित। इनके फल का निर्णय केवल एक ही शासक करे, अन्यथा न्याय व्यवस्था बिगड़ जाएगी। हम आपको ही सबसे बड़ा शासक मानते हैं, लेकिन इस बार चार सिद्धों ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर अजामिल को मुक्त कर दिया, क्योंकि उसने 'नारायण' नाम लिया। हम इसका कारण जानना चाहते हैं।" 

यमराज बोले, "दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत्के स्वामी हैं, जिनसे यह सारा जगत जुड़ा है। ब्रह्मा, विष्णु और शंकर उन्हीं के अंश हैं और सृष्टि की रचना, पालन व संहार करते हैं। जैसे किसान बैलों को रस्सियों से बांधकर एक मुख्य रस्सी में जोड़ता है, वैसे ही भगवान ने वर्णों और आश्रमों को नियमों से बांधा है और वेदवाणी से इसे संचालित किया है। सभी जीव नाम और कर्म के बंधन में हैं और भयवश अपने कर्म भगवान को अर्पित करते हैं। मैं, इन्द्र, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, सूर्य, वायु, ब्रह्मा और अन्य सभी देवता सत्त्वगुणी होने पर भी भगवान की मायाके अधीन हैं और उनके कार्यों को नहीं समझ सकते।"

वे परम स्वतंत्र हैं और उनके दिव्य दूत अत्यंत मनोहर रूप, गुण और स्वभाव से सम्पन्न होकर इस लोक में विचरण करते हैं। भगवान विष्णु के अलौकिक पार्षदों का दर्शन दुर्लभ है। वे भक्तों को मुझसे, शत्रुओं, अग्नि और सभी संकटों से बचाते हैं। भगवान्के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज)।

इस जगत्में जीवोंके लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य-परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान्के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें। भगवान के गुण, लीला और नामों का कीर्तन पापों का नाश कर देता है, लेकिन यह उसका सबसे बड़ा फल नहीं है। देखो, अजामिल ने मरते समय चंचल मन से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ लिया, और मात्र नामाभास से ही उसके सारे पाप नष्ट हो गए और उसे मुक्ति मिल गई। बड़े विद्वान भी भगवान की माया से मोहित होकर यज्ञ-कर्मकांड में उलझ जाते हैं और नाम की महिमा नहीं समझ पाते। लेकिन जो साधु केवल भगवान पर निर्भर रहते हैं, उनकी रक्षा स्वयं भगवान की गदा करती है। दूतो! ऐसे संतों के पास कभी मत जाना, न हम उन्हें दंड दे सकते हैं, न काल। लेकिन जो लोग इस दिव्य रस से विमुख हैं, गृहस्थी की तृष्णा में फंसे हैं और भगवान का नाम नहीं जपते, उनके चरणों में नहीं झुकते – उन्हीं पापियों को मेरे पास लाते रहो!

यमराज बोले – आज मेरे दूतों ने भगवान के पार्षदों का अपमान कर, स्वयं भगवान का ही तिरस्कार किया। यह मेरा ही अपराध है। भगवान नारायण हमारी इस अज्ञानता को क्षमा करें। हम उनके आज्ञापालक सेवक हैं और सदा उनकी कृपा की प्रतीक्षा में रहते हैं। मैं उन सर्वान्तर्यामी प्रभु को नमन करता हूँ।

श्रीशुकदेवजी बोले – परीक्षित! बड़े से बड़े पापों का सबसे श्रेष्ठ और अंतिम प्रायश्चित यही है कि भगवान के गुण, लीला और नामों का कीर्तन किया जाए। इससे ही संसार का कल्याण संभव है। जो बार-बार भगवान की कृपा से भरे चरित्रों का श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदय में प्रेममयी भक्ति जागृत होती है। ऐसी आत्मशुद्धि किसी व्रत या तप से नहीं होती। जो श्रीकृष्ण के चरणकमल के रस के प्यासे हैं, वे फिर संसार के भोगों में नहीं फंसते। लेकिन जो इस दिव्य रस से विमुख हैं, वे बार-बार प्रायश्चित करते हैं, फिर भी उनकी पापवृत्ति समाप्त नहीं होती। परीक्षित! जब यमदूतों ने धर्मराज से भगवान की महिमा सुनी, तब से वे भक्तों के पास जाने से भी डरने लगे। यह कथा अगस्त्यजी ने मलय पर्वत पर श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे सुनाई थी।

प्रचेता से वंश वृद्धि

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! आपने संक्षेपसे इस बातका वर्णन किया कि स्वायम्भुव मन्वन्तरमें देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदिकी सृष्टि कैसे हुई। अब मैं उसीका विस्तार जानना चाहता हूँ।

श्रीशुकदेवजी बताते हैं कि राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र प्रचेता जब समुद्र से बाहर आए, तो उन्होंने देखा कि पूरी पृथ्वी वृक्षों से ढक गई है। गुस्से में आकर उन्होंने अग्नि और वायु से इन पेड़ों को जलाने का प्रयास किया। तब चन्द्रदेव ने उन्हें शांत करते हुए समझाया कि वृक्ष भी सृष्टि का महत्वपूर्ण अंग हैं और सभी प्राणियों के भोजन व जीवन के लिए आवश्यक हैं। उन्होंने प्रचेताओं को अपने क्रोध को संयमित करने, प्रजा की रक्षा करने और भगवान श्रीहरि की व्यवस्था को समझने की सलाह दी। साथ ही, वनस्पतियों के राजा चन्द्रमाने प्रचेताओंको इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सराकी सुन्दरी कन्या मारिषा दे दी और वे वहाँसे चले गये। प्रचेताओंने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया।

प्रचेता पुत्र दक्ष से वंश वृद्धि

उन्हीं प्रचेताओंके द्वारा उस कन्याके गर्भसे प्राचेतस् दक्षकी उत्पत्ति हुई। फिर दक्षकी प्रजा-सृष्टिसे तीनों लोक भर गये। पहले प्रजापति दक्षने जल, थल और आकाशमें रहनेवाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजाकी सृष्टि अपने संकल्पसे ही की। जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचलके निकटवर्ती पर्वतोंपर जाकर बड़ी घोर तपस्या की। वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है-अघमर्षण। वह सारे पापोंको धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थमें भगवान्की ‘हंसगुह्य’ नामक स्तोत्रसे स्तुति की थी। उसीसे भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए और कहा- तपस्या के कारण दक्ष ने परम प्रेमभाव प्राप्त कर लिया है, जिससे वे प्रसन्न हैं। उन्होंने समझाया कि ब्रह्मा, शंकर और अन्य देवता उनकी ही विभूतियाँ हैं और सृष्टि की वृद्धि में सहायक हैं। सृष्टि की रचना उनकी इच्छा से हुई और पहले केवल वे ही विद्यमान थे। ब्रह्मा को सृष्टि करने में कठिनाई हुई, तब भगवान ने उन्हें तप करने का आदेश दिया, जिससे नौ प्रजापतियों की उत्पत्ति हुई।

फिर भगवान ने दक्ष को पंचजन प्रजापति की कन्या असिक्नी से विवाह करने का निर्देश दिया और कहा कि अब सृष्टि स्त्री-पुरुष के संयोग से आगे बढ़ेगी तथा सभी प्राणी उनकी सेवा में तत्पर रहेंगे। श्रीशुकदेवजी कहते हैं की तव भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्षके सामने से अन्तर्धान हो गये।

नारद जी द्वारा दक्ष पुत्रों को वैराग्य करवाना 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं की भगवान्के शक्तिसंचारसे दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पंचजनकी पुत्री असिक्नीसे हर्यश्व नामके दस हजार पुत्र उत्पन्न किये। यह सब दक्ष पुत्र एक समान स्वभाव और आचरण वाले थे। जब उनके पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तो वे तपस्या करने के लिए पश्चिम दिशा में गए। वहाँ, सिन्धु नदी और समुद्र के संगम पर स्थित पवित्र तीर्थ नारायण-सर पहुँचे जहाँ स्नान करने से उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया और उनकी बुद्धि भागवत धर्म में लग गई। फिर भी, वे पिता की आज्ञा से बँधे होने के कारण उग्र तपस्या करते रहे।
जब देवर्षि नारदने देखा कि भागवत धर्ममें रुचि होनेपर भी ये प्रजावृद्धिके लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पास आकर कहा- 'अरे हर्यश्वो! तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तवमें तो तुमलोग मूर्ख ही हो। बतलाओ तो, जब तुमलोगोंने पृथ्वीका अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? 

नारदजी ने हर्यश्वों को एक पहेली सुनाई- देखो-एक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलनेका रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहरूपिणी है। एक ऐसा पुरुष है, जो व्यभिचारिणीका पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थों से बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्रसे बना हुआ है और अपने-आप घूमता रहता है। मूर्ख हर्यश्वो! जबतक तुमलोग अपने सर्वज्ञ पिताके उचित आदेशको समझ नहीं लोगे और इन उपर्युक्त वस्तुओंको देख नहीं लोगे, तबतक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?’ 

हर्यश्व जन्मसे ही बड़े बुद्धिमान् थे। वे देवर्षि नारदकी यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धिसे स्वयं ही विचार करने लगे और उसका अर्थ समझने लगे। 

  • "एक ऐसा देश जिसमें एक ही पुरुष है"- देश यह शरीर है और उसके अंदर बैठकर आनंद लेने वाला एक मात्र पुरुष भगवान है, जो सर्वत्र स्थित है। अगर मनुष्य परमात्मा को नहीं समझता और केवल अस्थायी सुख के लिए कठोर परिश्रम करता है, तो उसका क्या लाभ?
  • "एक ऐसा बिल जिससे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं है"- जो पाताल लोक में जाता है, वह लौटता नहीं। उसी तरह, जो एक बार भगवत् प्राप्ति करके दिव्य धाम में जाता है, वह फिर भौतिक संसार में नहीं लौटता। अस्थायी संसार में क्यूं कूदना, जब सच्चा स्थान दूसरा है?
  • "एक ऐसी स्त्री जो बहुरूपिणी है" यह बुद्धि है, जो सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों को धारण करके अलग-अलग रूप लेती रहती है। कभी विवेकपूर्ण बनती है तो कभी माया के प्रभाव में आकर जीव को भटका देती है।
  • "एक ऐसा पुरुष जो व्यभिचारिणी का पति है"- यह जीवात्मा है, जो अपनी चंचल बुद्धि के वश में होकर इधर-उधर भटकता रहता है और संसार के मोह में फँस जाता है। अगर कोई व्यभिचारी का पति बनता है, तो उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
  • "एक ऐसी नदी जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है"- यह माया है, जो एक ओर सृष्टि का निर्माण करती है और दूसरी ओर प्रलय भी लाती है। जब जीव इस संसार से निकलने की कोशिश करता है, तो माया उसे और ज्यादा उलझा देती है।
  • "एक ऐसा विचित्र घर जो पच्चीस पदार्थों से बना है"- यह शरीर और संसार है, जो प्रकृति के पच्चीस तत्त्वों से बना है। इसमें उलझकर जीव असली स्वतंत्रता को भूल जाता है।
  • "एक ऐसा हंस जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है"- यह वेद और शास्त्र हैं, जो दूध और पानी को अलग करने वाले हंस की तरह ज्ञान और अज्ञान का भेद बताते हैं।
  • "एक ऐसा चक्र जो छुरे और वज्र से बना हुआ है और अपने-आप घूमता रहता है"- यह काल (समय) है, जो हमेशा चलता रहता है और कोई इसे रोक नहीं सकता। जो इसे नहीं समझते, वे अस्थायी चीजों को स्थायी मानकर मोह में पड़ जाते हैं।

हर्यश्वों ने समझा कि समय के चक्र रोकनेवाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है। यह बात न जानकर कर्मोंके फलको नित्य समझकर जो लोग सकामभावसे उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मोंसे क्या लाभ होगा? शास्त्र ही पिता है और उसका आदेश कर्मोंमें लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि विषयोंपर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मोंसे निवृत्त होनेकी आज्ञाका पालन भला कैसे कर सकता है? इसके बाद हर्यश्वोंने एक मतसे यही निश्चय किया और नारदजीकी परिक्रमा करके वे उस मोक्षपथके पथिक बन गये, जिसपर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता। 

दक्षप्रजापति को जब पता चला कि उनके पुत्र नारदजी के उपदेश से सन्यास मार्ग पर चले गए हैं, तो वे अत्यंत दुखी हुए। दक्षप्रजापति को ब्रह्माजी ने सांत्वना दी, जिसके बाद उन्होंने असिक्नी से एक हजार पुत्रों को जन्म दिया, जिन्हें शबलाश्व कहा गया। वे भी पिता की आज्ञा से सृष्टि विस्तार के लिए नारायण सरोवर पर तप करने गए, जहाँ उनके बड़े भाइयों ने सिद्धि प्राप्त की थी। सरस्वती में स्नान करने से उनके हृदय की अशुद्धियाँ मिट गईं, और वे भगवान नारायण की आराधना में लीन हो गए। वे केवल जल और वायु पर रहकर ओंकार मंत्र का जप करते हुए तपस्या करने लगे। देवर्षि नारद वहाँ आए और प्रेमपूर्वक उन्हें उपदेश दिया कि सच्चा भाई वही है जो अपने बड़े भाइयों के श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करे। उनके उपदेश से प्रभावित होकर शबलाश्व भी सन्यास मार्ग पर चले गए और भगवत्प्राप्ति की ओर अग्रसर हुए।

नारदजी को दक्ष का श्राप

दक्ष प्रजापति को जब ज्ञात होता है कि नारदजी ने पहले की भाँति इस बार भी उनके पुत्रों को सन्यास मार्ग की ओर प्रेरित कर दिया है। क्रोध में उनके होंठ फड़कने लगते हैं, और वे नारदजी को कठोर वचनों से भला-बुरा कहने लगते हैं। दक्ष नारदजी पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने उनके भोले-भाले पुत्रों को अपने कर्तव्य से विमुख कर दिया, जबकि वे अभी गृहस्थ धर्म के ऋणों से मुक्त भी नहीं हुए थे। वे नारदजी को दुष्ट कहकर तिरस्कृत करते हैं और उनके वैराग्य को केवल एक ढोंग बताते हैं। वे कहते हैं कि बिना विषयों का अनुभव किए कोई भी उनसे विरक्त नहीं हो सकता, और नारदजी ने जबरन उनके पुत्रों को बहका दिया। आक्रोश में आकर दक्ष नारदजी को शाप देते हैं कि वे लोक-लोकांतरों में भटकते रहें और उन्हें कहीं भी ठहरने का ठिकाना न मिले। लेकिन संतस्वभाव से युक्त नारदजी इस शाप को बिना किसी द्वेष के स्वीकार कर लेते हैं और "बहुत अच्छा" कहकर दक्ष के वचनों को सहर्ष ग्रहण कर लेते हैं। यही सच्ची साधुता है- बदला लेने की शक्ति होने पर भी क्षमा का भाव रखना।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 10.03.2025