शौनकजी सूतजी से प्रश्न करते हैं कि नारद और सनत् कुमारों का भेंट कैसे हुई। सूतजी ने बताया कि नारदजी की भेंट सनत् कुमारों से विशालापुरी नामक स्थान पर हुई थी। नारदजी वहां ऋषि संग करने पहुँचे थे। सनत् कुमारों ने नारदजी को उदास देखा और इसका कारण पूछा। नारदजी ने उत्तर दिया कि वे पृथ्वी को एक उत्तम लोक समझकर आए थे। उन्होंने विभिन्न तीर्थ स्थलों की यात्रा की, जैसे पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग, और सेतुबंध, परंतु मन को शांति नहीं मिली। उन्होंने बताया कि इस समय कलियुग के प्रभाव के कारण पृथ्वी में पाखंड बढ़ गया है।
नारदजी घूमते-घूमते श्री कृष्ण की लीला स्थली यमुना जी के तट पर पहुँचे। वहां उन्होंने एक महान आश्चर्य देखा। एक युवती खिन्न अवस्था में बैठी थी। साथ में दो वृद्ध पुरुष मूर्छित अवस्था में थे। युवती उन्हें उठाने का प्रयत्न कर रही थी। चारों ओर से अन्य स्त्रियाँ पंखा कर रही थीं और रोती युवती को सांत्वना दे रही थीं। नारदजी के पूछने पर युवती ने अपनी कथा बताई। उसने अपना नाम भक्ति देवी बताया और कहा कि वे दो वृद्ध पुरुष उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य हैं। पंखा कर रही स्त्रियाँ पवित्र नदियाँ थीं। भक्ति देवी ने बताया कि वह द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में कहीं-कहीं सम्मानित हुई, परंतु गुजरात में बुढ़ापे ने आ घेरा। कलियुग के प्रभाव से पाखण्डियों ने उसे अंग-भंग कर दिया। वृन्दावन आकर वह फिर से नवयुवती हो गई, परंतु उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य बूढ़े ही रह गए। इस कारण से वह खिन्न थी।
नारदजी ने अपने हृदय में ज्ञान दृष्टि से देखा और जान लिया कि ऐसा विपरीत क्यों हो रहा है। कलियुग में विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर भक्ति जर्जर हो रही थी। वृन्दावन के संयोग से भक्ति फिर नवीन तरुणी हो गई, क्योंकि यह वृन्दावनधाम है जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है। परंतु भक्ति के दोनों पुत्रों का वृंदावन में कोई ग्राहक नहीं है, इसलिए उनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है।
भक्ति देवी ने प्रश्न किया कि राजा परीक्षित ने इस कलियुग को अपने राज्य में क्यों आने दिया? नारदजी ने कहा कि जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण इस भूलोक को छोड़कर अपने परमधाम को पधारे उसी दिन से यहाँ कलियुग आ गया। दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि पड़ने पर कलियुग दीन के समान उनकी शरण में आया।
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ।।
“जो फल तपस्या, योग एवं समाधिसे भी नहीं मिलता, कलियुगमें वही फल श्री हरिकीर्तनसे ही भलीभाँति मिल जाता है।” (भागवत महात्म्य 1-1-68)
राजा परीक्षित ने सोचा कि इसका वध नहीं करना चाहिए क्योंकि तपस्या, योग, और समाधि से भी जो फल नहीं मिलता, वही फल कलियुग में श्रीहरि कीर्तन से मिल जाता है। इस प्रकार सारहीन होने पर भी राजा ने कलियुग के एक गुण को देखकर इसे रहने दिया।
कलियुग का स्वभाव
कलियुग में ब्राह्मण केवल अन्न-धन के लोभवश घर-घर में भागवत कथा सुनाने लगे हैं, जिससे कथा का सार चला गया। तीर्थों में घोर कर्म करने वाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं, जिससे तीर्थों का प्रभाव समाप्त हो गया है। तपस्या का ढोंग करने वाले लोगों के कारण तप का भी सार निकल गया है। लोभ, दम्भ, और पाखण्ड के कारण ध्यानयोग का फल मिट गया है। पण्डितों में संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है, मुक्ति-साधन में वे अकुशल हैं। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओं का सार लुप्त हो गया है। यह कलियुग का स्वभाव है, इसमें किसी का दोष नहीं। इसलिए भगवान भी इसे सहन कर रहे हैं।
नारदजी भक्ति को समझाते हुए कहते हैं- तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो। तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो, उनकी कृपासे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की थी और गोपियों को सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं । फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् पापियों के घरोंमें भी चले जाते हैं ।
नारदजी आगे कहते हैं- सत्य, त्रेता और द्वापर—इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति करानेवाली है । यह सोचकर ही श्रीहरिने अपने सत्स्वरूपसे तुम्हें रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रिया हो । एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ''मैं क्या करूँ?'' तब भगवान्ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ''मेरे भक्तोंका पोषण करो।'' तुमने भगवान्की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमें दे दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको पुत्रोंके रूपमें । तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे गोलोक में ही भक्तोंका पोषण करती हो, भूलोकमें तो तुमने उनकी पुष्टिके लिये केवल छायारूप धारण कर रखा है ।
तब भक्तिदेवी मुक्ति, ज्ञान और वैराग्यको साथ लिये पृथ्वीतलपर आयीं और सत्ययुगसे द्वापरपर्यन्त बड़े आनन्दसे रहीं । कलियुगमें उनकी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरन्त ही भक्ति की आज्ञासे वैकुण्ठलोकको चली गयी । इस लोकमें भी भक्ति के स्मरण करनेसे ही वह आती है और फिर चली जाती है; किंतु ज्ञान-वैराग्यको भक्तिदेवी ने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है ।फिर भी कलियुगमें इनकी उपेक्षा होनेके कारण ये उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं।
नारदजी की प्रतिज्ञा
भक्तिदेवी को सांत्वना देने के पश्चात नारदजी कहते है की ज्ञान एवं वैराग्य को नवजीवनका कुछ भी उपाय सोचेंगे।
कलिना सदृशः कोऽपि युगो नास्ति वरानने ।
तस्मिंस्त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने ।।
“कलिके समान कोई भी युग नहीं है, इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें प्रत्येक पुरुषके हृदयमें स्थापित कर दूँगा।” (भागवत महात्म्य 1-2-13)
अन्यधर्मांस्तिरस्कृत्य पुरस्कृत्य महोत्सवान् ।
तदा नाहं हरेर्दासो लोके त्वां न प्रवर्तये ।।
“अन्य सब धर्म़ोंको छोड़कर केवल भक्ति विषयक तत्वों आगे रखकर यदि मैंने लोकमें भक्ति का प्रचार न किया तो मैं श्रीहरिका दास नहीं।” (भागवत महात्म्य 1-2-14)
इस कलियुगमें जो जीव भक्ति से युक्त होंगे, वे पापी होनेपर भी भगवान् श्रीकृष्णके अभय धामको प्राप्त होंगे । जिनके हृदयमें निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्तःकरण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते। जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ।
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ।।
“तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे भगवान् वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं।” (भागवत महात्म्य 1-2-18)
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ।।
“मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं।” (भागवत महात्म्य 1-2-19)
नारदजी ने भक्ति का महात्म्य गान करते हुए कहा की भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं। जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं वे तीनों लोकोंमें दुःख-ही-दुःख पाते हैं। व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञानचर्चा आदि बहुत-से साधनोंकी कोई आवश्यकता नहीं है; एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ।
नारदजी द्वारा भक्ति का महात्म्य गान
नारदजी से अपना ही महात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अंग पुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं, “नारदजी! आप धन्य हैं। आपकी मुझमें निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें रहूँगी, कभी आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी । आप बड़े कृपालु हैं। आपने क्षणभरमें ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया। किन्तु अभी मेरे पुत्रोंमें चेतना नहीं आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये।”
भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी करुणा आयी और वे उन्हें हाथसे हिला-डुलाकर जगाने लगे । फिर उनके कानके पास मुँह लगाकर जोरसे कहा, ''ओ ज्ञान! जल्दी जग पड़ो; ओ वैराग्य! जल्दी जग पड़ो।'' फिर उन्होंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ करके उन्हें जगाया; इससे वे जैसे-तैसे बहुत जोर लगाकर उठे । किन्तु आलस्यके कारण वे दोनों जँभाई लेते रहे, नेत्र उघाड़कर देख भी नहीं सके। इस प्रकार भूख-प्यासके मारे अत्यन्त दुर्बल होनेके कारण उन्हें फिर सोते देख नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई और वे सोचने लगे, ''अब मुझे क्या करना चाहिये? इनकी यह नींद और इससे भी बढ़कर इनकी वृद्धावस्था कैसे दूर हो?'' इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे भगवान्का स्मरण करने लगे । उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि “मुने! खेद मत करो। इसके लिये तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हें संतशिरोमणि महानुभाव बतायेंगे। उस सत्कर्मका अनुष्ठान करते ही क्षणभरमें इनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायँगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार होगा।”
यह आकाशवाणी वहाँ उपस्थित सभीको साफ-साफ सुनाई दी परंतु इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ और वे कहने लगे की मुझे इसका कुछ आशय समझमें नहीं आया। इसके पश्चात आकाशवाणी का तत्पर्य समझने के लिए नारदजी संतों की खोज में जगह-जगह भ्रमण करने लगे।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 14.06.2024