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65- भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार एवं अमृत वितरण की कथा

Jun 7th, 2025 | 9 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 8 अध्याय: 8-9

जब भगवान शंकर ने हलाहल विष पी लिया, तब देवता और असुर प्रसन्न होकर फिर से उत्साह से समुद्र मंथन करने लगे। 

सबसे पहले समुद्र से कामधेनु गाय प्रकट हुई, जिसे यज्ञों के लिए उपयोगी समझकर ब्रह्मवादी ऋषियों ने ग्रहण किया।

फिर चंद्रमा के समान उज्ज्वल वर्ण वाला उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला, बलिने उसे लेनेकी इच्छा प्रकट की। इन्द्रने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान्ने उन्हें पहलेसे ही सिखा रखा था ।

इसके बाद ऐरावत हाथी निकला, जिसके चार विशाल, चमकदार दाँत थे।

फिर कौस्तुभ मणि प्रकट हुई, जिसे भगवान विष्णु ने अपने हृदय पर धारण करने के लिए लिया। 

इसके बाद कल्पवृक्ष निकला, जो स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाने वाला और इच्छाओं को पूर्ण करने वाला था।

अंत में, अप्सराएँ प्रकट हुईं—वे स्वर्णाभूषणों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित थीं और अपनी आकर्षक चाल और चितवन से देवताओं को प्रसन्न करने लगीं।

इसके बाद शोभाकी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुईं। वे भगवान की नित्यशक्ति हैं और बिजली-सी चमक से दिशाओं को आलोकित कर देती हैं। उनके सौंदर्य, यौवन, और महिमा ने देवताओं, असुरों और मनुष्यों – सभी को आकृष्ट कर लिया। इन्द्र ने उनके बैठने के लिए सुंदर आसन लाया, नदियों ने पवित्र जल से भरे सोने के कलश दिए, पृथ्वी ने औषधियाँ और गायों ने पंचगव्य प्रदान किया। वसंत ऋतु ने फूल और फल दिए। ऋषियों ने इन सामग्रियों से विधिपूर्वक लक्ष्मीजी का अभिषेक किया। गन्धर्वों ने संगीत छेड़ा, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं, और बादल वाद्ययंत्रों से गूंजने लगे। फिर लक्ष्मीजी कमल हाथ में लेकर सिंहासन पर विराजमान हुईं। दिग्गजों ने उन्हें जल से स्नान कराया, समुद्र ने पीले वस्त्र, वरुण ने सुगंधित वैजयन्ती माला, विश्वकर्मा ने आभूषण, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्माजी ने कमल, और नागों ने कुण्डल अर्पित किए।

इसके बाद, वे अपने हाथों में कमल की माला लेकर सर्वगुणसंपन्न पुरुष को वरमाला पहनाने चलीं। उस समय उनका सौंदर्य, लज्जा और मुस्कान की छवि अवर्णनीय थी। लक्ष्मीजी चाहती थीं कि वे ऐसा पुरुष वरण करें जो निर्दोष और समस्त उत्तम गुणोंसे नित्ययुक्त अविनाशी हो। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदिमें कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला। कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोधपर विजय नहीं प्राप्त की है। किसी में ज्ञान है पर अनासक्ति नहीं, किसी में ऐश्वर्य है पर वह दूसरों पर निर्भर है, किसी में वीरता है पर मृत्यु के वश में हैं, और कोई तो विषयों से रहित हैं पर सदा समाधि में लीन हैं।

अंततः लक्ष्मीजी ने निष्कर्ष निकाला कि केवल भगवान विष्णु ही ऐसे हैं जिनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं। वे किसी के आश्रित नहीं, अपितु स्वयं में पूर्ण हैं। इसलिए उन्होंने उन्हीं को अपना वरण किया। लक्ष्मीजी ने भगवान के गले में कमलों की माला पहनाई और लज्जा व प्रेमभरी दृष्टि से उन्हें निहारती हुई उनके पास खड़ी हो गईं। भगवान विष्णु ने उन्हें अपने वक्षस्थल पर स्थायी निवास का स्थान दिया। इस दिव्य मिलन से तीनों लोकों में उल्लास छा गया। लक्ष्मीजी की कृपादृष्टि से देवता और प्रजा सभी शील, सद्गुण और सुख से भर गए।

जब लक्ष्मीजी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तो वे दुर्बल, आलसी, निर्लज्ज और लोभी बन गये। इसके बाद मंथन से वारुणी देवी प्रकट हुईं, जो मदिरा की अधिष्ठात्री थीं। भगवान की अनुमति से दैत्यों ने उन्हें स्वीकार किया। 

इसके पश्चात्, जब देवता और असुरों ने अमृत की कामना से फिर समुद्र मंथन किया, तब एक अलौकिक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसकी लम्बी-मोटी भुजाएँ, शंख जैसे गले की बनावट, लालिमा भरी आंखें, सुंदर सांवला रंग, पीताम्बर वस्त्र, चमकीले आभूषण और सिंह-समान पराक्रम ने उसे अत्यन्त तेजस्वी बना दिया। उसका सौन्दर्य और दिव्यता अपूर्व थी—वह तरुण अवस्था का, बलवान और मनमोहक रूप वाला था।

उसके हाथोंमें कंगन और अमृतसे भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णुभगवान्के अंशांश अवतार थे। वे ही आयुर्वेदके प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरिके नामसे सुप्रसिद्ध हुए।

जब दैत्यों ने उस अमृत-कलश को दिव्य पुरुष के हाथ में देखा, तो उन्होंने बलपूर्वक अमृत छीन लिया। वे तो पहलेसे ही इस ताकमें थे कि किसी तरह समुद्रमन्थनसे निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायँ।  असुरों द्वारा अमृत हड़प लिये जाने पर देवता दुखी हो गए और वे भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। देवताओं की दीन अवस्था देखकर भगवान बोले, "चिंता मत करो, मैं अपनी माया से उनके भीतर फूट डालकर अभी तुम्हारा कार्य सिद्ध करता हूँ।"

तभी दैत्यों में अमृत को लेकर आपसी झगड़ा शुरू हो गया—सब आपस में कहने लगे, “पहले मैं पीऊँगा, नहीं, मैं पीऊँगा!” इस प्रकार भगवान की माया से दैत्यों में मतभेद और असंतोष फैल गया, जिससे देवताओं को अमृत दिलाने की राह बननी शुरू हो गई।

जब दैत्यों में अमृत को लेकर ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी, तब भगवान विष्णु ने अद्भुत एवं अवर्णनीयस्त्री-रूप धारण किया—यही था मोहिनी रूप। इस मोहिनी रूप में भगवान का शरीर नीलकमल के समान श्याम था और हर अंग अत्यंत आकर्षक था। उनके सुंदर कपोल, ऊँची नासिका, पतली कमर, और सुगंधित मुख—इन सबके कारण वे अत्यंत मनोहर लग रही थीं। उनकी सुंदर चाल और सौम्य मुस्कान ने वातावरण को मोहक बना दिया। बालों में बेल के फूलों की माला, गले में आभूषण, भुजाओं में बाजूबंद, नूपुरों की मधुर रुनझुन, और कमर पर चमकती करधनी—इन सबने उनके रूप को और भी मोहक बना दिया।

मोहिनी रूपधारी भगवान, अपनी सलज्ज मुस्कान, नृत्य करती भौंहों और विलासभरी दृष्टि से दैत्य सेनापतियों के चित्त में काम की उत्तेजना पैदा करने लगे। इस प्रकार वे मोह में पड़ने लगे और भगवान की योजना सफल होने लगी।
मोहिनी को देखकर दैत्य पूरी तरह मोहित और कामविवश हो गए और आपसी लड़ाई भूलकर उनके पास दौड़ गए और पूछने लगे, "हे कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? तुम्हारा उद्देश्य क्या है? तुम किसकी कन्या हो? तुम्हें देखकर तो हमारे मन में हलचल मच गई है।"

वे आगे अपनी समस्या बताते हुए बोले, "हम सब एक ही कुल—कश्यपजी की संतान—होने पर भी एक ही अमृत को लेकर आपस में विवाद और ईर्ष्या में पड़ गए हैं। हे सुन्दरी! कृपा करके तुम ही न्यायपूर्वक अमृत का वितरण कर दो, ताकि हम भाइयों में फिर कोई झगड़ा न रहे।"

इस प्रकार दैत्यों ने पूरी आस्था के साथ मोहिनी रूपधारी विष्णुजी से अमृत बांटने का आग्रह किया। जब असुरों ने मोहिनी रूपधारी भगवान से अमृत बाँटने की प्रार्थना की, तब भगवान विष्णु ने लीला करते हुए स्त्री का रूप बनाए रखा और मुस्कराते हुए तिरछी चितवन से उनकी ओर देखकर चतुराई से उत्तर दिया।

भगवान ने कहा, "तुम सब तो महर्षि कश्यप के ज्ञानी-पुत्र हो, और मैं तो केवल एक  स्वेच्छाचारी स्त्री हूँ। फिर तुम मेरे जैसे अस्थिर स्वभाववाली स्त्री पर कैसे न्याय का भार डाल सकते हो? बुद्धिमान लोग कभी भी स्वेच्छाचारी स्त्रियों पर विश्वास नहीं करते। मेरा भरोसा करना भी मूर्खता होगी।"

मोहिनी की परिहास भरी बातों से दैत्य पूरी तरह विश्वास में आ गए और हँसते हुए अमृत का कलश उसके हाथ में सौंप दिया। भगवान्ने अमृतका कलश अपने हाथमें लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणीसे कहा -‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुमलोगोंको स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ’।

दैत्यों ने मोहिनी की बातों में आकर बिना उसके असली स्वरूप को जाने ‘स्वीकार’ कर दिया। फिर सबने एक दिन का उपवास किया, स्नान किया, हवन किया, दान दिया और नए वस्त्र-आभूषण पहनकर पूर्व की ओर मुख करके बैठ गए। मोहिनी, बड़ी सुंदर साड़ी पहने, हाथ में अमृत का कलश लेकर आईं। उनकी सुंदरता से देवता और दैत्य दोनों मोहित हो गए। 

भगवान् ने सोचा कि असुर क्रूर हैं, इसलिए उन्हें अमृत नहीं देना चाहिए। फिर उन्होंने देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग कतारों में बैठाया। इसके बाद अमृतका कलश हाथमें लेकर भगवान् दैत्योंके पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्षसे मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओंके पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेनेपर बुढ़ापे और मृत्युका नाश हो जाता है । असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञाका पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्रीसे झगड़ने में अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे। मोहिनीमें उनका अत्यन्त आसक्ति हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेमसम्बन्ध टूट न जाय। मोहिनीने भी पहले उन लोगोंका बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनीको कोई अप्रिय बात नहीं कही।

जब भगवान् मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, तभी राहु नामक एक दैत्य देवता का वेश धारण कर चुपचाप उनके बीच आ बैठा और छलपूर्वक अमृत पी लिया। लेकिन चन्द्रमा और सूर्य ने उसे पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। तभी भगवान् ने तीव्र सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट डाला। अमृत केवल उसके गले तक ही पहुँचा था, इस कारण उसका सिर तो अमर हो गया लेकिन धड़ नीचे गिर पड़ा।

ब्रह्माजी ने राहु के उस अमर सिर को 'ग्रह' के रूप में प्रतिष्ठित किया। तभी से राहु, सूर्य और चन्द्रमा से वैर रखता है। वह पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा और अमावस्या के दिन सूर्य पर आक्रमण करता है। इन्हीं आक्रमणों के कारण जब सूर्य या चन्द्रमा राहु की छाया रेखा के साथ एक सीध में आ जाते हैं, तब ग्रहण की स्थिति बनती है। 

जब देवताओं ने अमृतपान कर लिया, तब भगवान् ने अपने मोहिनी रूप का त्याग कर विशाल दैत्यों के समक्ष अपना दिव्य रूप प्रकट कर दिया।

शुकदेवजी परीक्षित को कहते हैंदेवता और दैत्य दोनोंने एक ही समय एक स्थानपर एक प्रयोजन तथा एक वस्तुके लिये एक विचारसे एक ही कर्म किया था, परन्तु फलमें बड़ा भेद हो गया। देवताओंने बड़ी सुगमतासे अपने परिश्रमका फल-अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान्के चरणकमलोंकी रजका आश्रय लिया था। परन्तु उससे विमुख होनेके कारण परिश्रम करनेपर भी असुरगण अमृतसे वंचित ही रहे।

मनुष्य जब अपने शरीर, पुत्र, धन या सुख के लिए कर्म करता है, तो उसमें स्वार्थ और भेदभाव रहता है, इसलिए उसके कर्म का लाभ सीमित और अस्थायी होता है। लेकिन जब वह भगवान के लिए निष्काम भाव से (बिना स्वार्थ के) अपने प्राण, कर्म, धन आदि को समर्पित कर देता है, तो उसके कर्म का फल न केवल उसके लिए, बल्कि उसके परिवार और पूरे संसार के लिए भी शुभ और सफल होता है।

जैसे पेड़ की जड़ में पानी देने से पूरा पेड़ – तना, टहनियाँ, पत्ते – सभी हरे-भरे और जीवित होते हैं, वैसे ही भगवान के लिए किए गए कर्म से सारे परिणाम भी सभी के लिए लाभकारी होते हैं। भगवान्ने समुद्रको मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओंको पिला दिया। फिर सबके देखते-देखते वे गरुडपर सवार हुए और वहाँसे चले गये ।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 06.06.2025