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30- मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन, दक्ष प्रजापति का महादेव के प्रति द्वेष और सती का आत्मदाह

Oct 20th, 2024 | 13 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 4 अध्याय: 1 से 4

स्वायम्भुव मनुके महारानी शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद-इन दो पुत्रोंके सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं। आकूतिका विवाह रुचि प्रजापतिके साथ ‘पुत्रिकाधर्म’ के अनुसार हुआ। जब कोई अपनी कन्या को इस शर्त पर ब्याहता है कि 'इससे जो पहला पुत्र होगा, उसे मैं गोद ले लूंगा और अपना पुत्र मानूंगा' तो उसे 'पुत्रिकाधर्म' के अनुसार विवाह कहते हैं। प्रजापति रुचि भगवान के अनन्य चिन्तनके कारण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न थे। उन्होंने आकूतिके गर्भसे एक पुरुष और स्त्रीका जोड़ा उत्पन्न किया। उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञ स्वरूपधारी भगवान विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी। मनुजी आकूतिके अपने घर ले आये और दक्षिणाको रुचि प्रजापतिने अपने पास रखा बाद में दक्षिणा का विवाह यज्ञ भगवान से हुई।यज्ञ भगवान और दक्षिणा ने बारह पुत्र उत्पन्न किये: तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभ, स्वह्न, सुदेव और रोचन ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ‘तुषित’ नामके देवता हुए। उस मन्वन्तरमें मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओंके अधीश्वर इन्द्र थे।

मनु की दूसरी पुत्री देवहूति का विवाह कर्दमजी से हुई थीं जिनसे भगवान कपिल के अतिरिक्त नौ कन्याएँ हुई जो नौ ब्रह्मर्षियोंसे ब्याही गयी थीं। 
  1. मरीचि ऋषिकी पत्नी कलासे कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए। पूर्णिमा के विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नामकी एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्ममें श्रीहरिके चरणोंके धोवनसे देवनदी गंगाके रूपमें प्रकट हुई। 
  2. अत्रिकी पत्नी अनसूयासे दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नामके तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्माके अंशसे उत्पन्न हुए थे। महर्षि अत्रि को ब्रह्माजी ने सृष्टि रचने का आदेश दिया, तो वे अपनी पत्नी अनसूया के साथ ऋक्ष पर्वत पर एक पैर पर खड़े होकर सौ वर्ष तक तपस्या करने गए। उन्होंने "जो सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरण में हूँ, वे मुझे अपने समान सन्तान प्रदान करें" ऐसी कामना के साथ घोर तपस्या की, जिसके परिणामस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महादेव तीनों देवता प्रसन्न होकर वरदान दिया कि उनके यहाँ तीन प्रसिद्ध पुत्र होंगे—ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, विष्णुजी के अंश से दत्तात्रेय, और महादेवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि। 
  3. अंगिराकी पत्नी श्रद्धाने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति–इन चार कन्याओंको जन्म दिया। इनके सिवा उनके भगवान उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बहस्पतिजी -ये दो पुत्र भी हुए।
  4. पुलस्त्यजीके उनकी पत्नी हविर्भूसे महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा–ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्ममें जठराग्नि हुए। विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनीसे रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।
  5. महर्षि पुलहकी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु-ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
  6. क्रतुकी पत्नी क्रियाने बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया। 
  7. वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती)-से सात विशुद्धचित्त ब्रह्मर्षियोंका जन्म हुआ। उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और घुमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नीसे शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए। 
  8. अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दधीचि पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। 
  9. भृगुजीने अपनी भार्या ख्यातिसे धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नामकी एक भगवत्परायणा कन्या उत्पन्न की। 
मेरुऋषिने अपनी आयति और नियति नामकी कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाताको ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामकपुत्र हुए। मृकण्डके मार्कण्डेय और प्राणके मुनिवर वेदशिराका जन्म हुआ। भृगुजीके एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान् उशना (शुक्राचार्य) हुए। इन सब मुनीश्वरोंने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टिका विस्तार किया।

मनुने अपनी तीसरी कन्या प्रसूतिका विवाह ब्रह्माजीके पुत्र दक्ष प्रजापतिसे किया था। उससे उन्होंने सोलह कन्याएँ उत्पन्न की। उनमेंसे तेरह धर्मको, एक अग्निको, एक समस्त पितृगणको और एक भगवान शंकरको दी। श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति-ये धर्मकी पत्नियाँ हैं। इनमेंसे श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मोद और पुष्टिने अहंकारको जन्म दिया। क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बद्धिने अर्थ, मेधाने स्मति, तितिक्षाने क्षेम और ह्री (लज्जा)-ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणोंकी खान मूर्तिदेवीने नर-नारायण ऋषियोंको जन्म दिया। अग्निदेवकी पत्नी स्वाहाने अग्निके ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि-ये तीन पत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हए पदार्थों का भक्षण करनेवाले हैं। इन्हीं तीनोंसे पैंतालीस प्रकारके अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामहको साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये। वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्ममें जिन उनचास अग्नियोंके नामोंसे आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं ।अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप-ये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरोंकी पत्नी दक्षकमारी स्वधा हैं। इन पितरोंसे स्वधाके धारिणी और वयुना नामकी दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञानमें पारंगत और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करनेवाली हुईं।

दक्ष प्रजापति का महादेव के प्रति द्वेष और सती का आत्मदाह

महादेवजीकी पत्नी सती थीं किन्तु उनके अपने गुण और शीलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ। पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एकत्र हुए थे। उसी समय प्रजापति दक्ष सभा में प्रवेश करते हैं, उनका तेज सूर्य के समान चमकता है और वे विशाल सभा-भवन के अंधकार को दूर कर देते हैं। ब्रह्माजी और महादेवजी को छोड़कर सभी सभासद् अपने-अपने आसनों से उठ खड़े होते हैं।दक्ष ब्रह्माजी को प्रणाम करते हैं और उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ जाते हैं, लेकिन महादेवजी को बैठे देख, और उनसे कोई आदर या सम्मान न पाकर, दक्ष बहुत क्रोधित हो जाते हैं। उन्होंने महादेवजी की ओर तीखी नजर से देखा और सभा में सभी देवताओं और ऋषियों से कहने लगे कि महादेवजी शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहे हैं और उनके सम्मान और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है। दक्ष महादेवजी को कठोर शब्दों में अपमानित करते हुए कहते हैं कि महादेवजी घमंडी हैं, अपवित्र रहते हैं, श्मशानों में भूत-प्रेतों के साथ घूमते हैं, और समाज के शिष्ट आचरण का निरादर करते हैं। दक्ष महादेवजी के बिखरे बाल, शरीर पर चिता की राख, नरमुंडों की माला और हड्डियों के आभूषणों का उपहास करते हैं, उन्हें अमंगल और अशिव कहते हैं। वे कहते हैं कि महादेवजी जैसे खुद मतवाले हैं, वैसे ही उन्हें केवल मतवाले और तमोगुणी प्राणी जैसे भूत-प्रेत प्रिय हैं। अंत में, दक्ष दुख प्रकट करते हुए कहते हैं कि उन्होंने ब्रह्माजी के बहकावे में आकर अपनी भोली-भाली बेटी सती का विवाह महादेवजी जैसे भूतों के सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति से कर दिया।

दक्षने इस प्रकार महादेवजीको बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इससे दक्षके क्रोधका पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथमें लेकर उन्हें शाप देनेको तैयार हो गये। दक्षने कहा, ‘यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले!’ उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसीकी न सुनी; महादेवजीको शाप दे ही दिया। जब श्रीशंकरजीके अनुयायियोंमें अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणोंको, जिन्होंने दक्षके दुर्वचनोंका अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप दिया। वे बोले-‘जो इस मरणधर्मा शरीरमें ही अभिमान करके किसीसे भी द्रोह न करनेवाले भगवान् शंकरसे द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धिवाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञानसे विमुख ही रहे। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया है; यह साक्षात् पशुके ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरेका हो जाय। यह और जो लोग भगवान शङ्करका अपमान करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें। ये ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोड़कर केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या, तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियोंके सुखको ही सुख मानकर उन्हींके गुलाम बनकर दुनिया में भीख माँगते भटका करें।'

नन्दीश्वरके मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगुजीने भी शाप दिया -‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले और पाखण्डी हों। जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं-वे ही शैव सम्प्रदायमें दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं।' भृगु ऋषिके इस प्रकार शाप देनेपर भगवान् शंकर कुछ खिन्न-से हो वहाँसे अपने अनुयायियों लेकर चले गये। बाँकी देवता, ऋषि आदि भी एक हजार वर्षमें समाप्त होनेवाला उस यज्ञ को समाप्त कर श्रीगंगा-यमुनाके संगममें यज्ञान्त स्नान किया और अपने-अपने स्थानोंको चले गये। इस प्रकार उन ससुर और दामादको आपसमें वैर विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया। 

इसी समय ब्रह्माजीने दक्षको समस्त प्रजापतियोंका अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया। उसने भगवान शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठोंको यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय-यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नामका महायज्ञ आरम्भ किया। उस यज्ञोत्सवमें सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ मांगलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्षके द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया। उस समय आकाशमार्गसे जाते हुए देवता आपसमें उस यज्ञकी चर्चा करते जाते थे। उनके मुखसे दक्षकुमारी सतीने अपने पिताके घर होनेवाले यज्ञकी बात सुन ली। इससे उन्हें भी बड़ी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान शिव से कहा, "प्रभु! सुना है कि आपके ससुर दक्ष प्रजापति के यहाँ यज्ञ हो रहा है। देवता भी वहाँ जा रहे हैं। मेरी बहनें अपने पतियों के साथ ज़रूर वहाँ आएँगी, और मैं भी आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता से मिले उपहार लेना चाहती हूँ। बहनों और माँ से मिलने का मेरा मन बहुत उत्सुक है। कृपा करके मेरी इस इच्छा को पूरा कीजिये। आप तो करुणामय हैं और मुझे अपने आधे अंग में स्थान दिया है, इसलिए मेरी इस विनती को स्वीकार कीजिये।" भगवान शंकर ने सतीजी की विनती सुनकर कहा, "प्रिय, बिना बुलाए अपने बंधुजन के पास जाना तभी उचित होता है, जब उनके मन में अहंकार और क्रोध न हो। जिन लोगों में मद, क्रोध और द्वेष भरा होता है, वहाँ जाने से केवल कष्ट ही मिलता है। शत्रु के बाणों से उतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी अपनों के कटु वचनों से होती है। दक्ष प्रजापति मुझसे द्वेष करते हैं, इसलिए तुम्हें वहाँ मान-सम्मान नहीं मिलेगा। तुम मेरी आश्रिता हो, और उन्होंने पहले ही मुझे अपमानित किया है। यदि तुम वहाँ जाओगी, तो यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा, क्योंकि अपने ही लोगों से अपमानित होना बहुत दुखदायी होता है।" इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्षके यहाँ जाने देने अथवा जानेसे रोकने—दोनों ही अवस्थाओंमें सतीके प्राणत्यागकी सम्भावना है।

इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनोंको देखने जानेकी इच्छासे बाहर आतीं और कभी ‘भगवान शंकर रुष्ट न हो जायँ, इस शंकासे फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकनेके कारण वे दुविधामें पड़ गयीं-चंचल हो गयीं। सतीजी, अपने बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने पर बहुत अनमनी हो गईं। स्वजनों के प्रति स्नेह के कारण उनका हृदय भर आया और वे व्याकुल होकर रोने लगीं। उनका शरीर कांपने लगा, और वे भगवान शंकर को क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं, मानो उन्हें भस्म कर देंगी। शोक और क्रोध के कारण उनका मन अस्थिर हो गया, और स्त्रीस्वभाव के कारण उनकी बुद्धि भी विचलित हो गई। जिन्होंने उन्हें प्रेमपूर्वक अपना आधा अंग दिया था, उन भगवान शंकर को छोड़कर वे लंबी-लंबी साँसें भरते हुए अपने माता-पिता के घर चली गईं। सतीजी बड़ी फुर्ती से अकेली जाती देख, भगवान शंकर के वाहन वृषभराज को आगे कर, अनेकों पार्षदों और यक्षों के साथ तेजी से उनके पीछे हो लिए। उन्होंने सतीजी को बैल पर सवार कराया और राजचिह्न जैसे श्वेत छत्र, चँवर, माला, और वाद्ययंत्रों से सजी शोभायात्रा के साथ चले। सती अपने सेवकों के साथ दक्ष प्रजापति की यज्ञशाला में पहुँचीं। वहाँ ब्राह्मण वेदों का उच्चारण कर रहे थे, देवता और ब्रह्मर्षि विराजमान थे, और यज्ञ सामग्री यहाँ-वहाँ बिखरी थी।

सतीजी को वहाँ अपने पिता से अपमान सहना पड़ा, और उनके भय के कारण बाकी लोग भी उनका स्वागत नहीं कर सके। केवल उनकी माता और बहनें प्रसन्न होकर उन्हें गले लगाकर प्रेम से मिलीं। यज्ञमंडप में सती का अपमान हुआ, और उन्होंने देखा कि भगवान शंकर के लिए यज्ञ में कोई भाग नहीं रखा गया। यह देखकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आया, और ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे अपने रोष से संपूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी। दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से घमंड हो गया था। उसे शिवजीसे द्वेष करते देख जब सतीके साथ आये हुए भूत उसे मारनेको तैयार हुए तो देवी सतीने उन्हें अपने तेजसे रोक दिया और सब लोगोंको सुनाकर पिताकी निन्दा करते हुए क्रोधसे कहा- 'पिताजी! भगवान शंकर से बड़ा कोई नहीं है। वे सभी जीवों के प्रिय आत्मा हैं और उनका किसी से द्वेष नहीं है। आपके सिवा कौन है जो उनसे विरोध करेगा? आप जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष देखते हैं, लेकिन साधु पुरुष तो ऐसा नहीं करते। जो लोग दूसरों के थोड़े से गुण को भी बड़े रूप में देखते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने महापुरुषों पर दोषारोपण किया है। जो दुष्ट मनुष्य शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे ईर्ष्यावश महापुरुषों की निंदा करते हैं। महापुरुषों की निंदा करना जघन्य कार्य है। आप भगवान शिव से द्वेष करते हैं, जो पवित्र कीर्ति और मंगलमय हैं। उनका नाम ‘शिव’ एक बार लेने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानंद का पान करने वाले भगवान शिव की निंदा करने वाले आप ही अमंगल रूप हैं। जो लोग धर्म की रक्षा करने वाले अपने पूजनीय स्वामी की निंदा करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे अपने कान बंद कर लें या फिर उस जिह्वा को काट डालें। इसी प्रकार अपने धर्म की रक्षा करना सही है।'

सतीजी ने कहा- 'आप भगवान नीलकण्ठ की निंदा करने वाले हैं, इसलिए मैं इस शरीर को अब नहीं रख सकती। यदि कोई गलती से निंदा की हुई वस्तु खा ले, तो उसे उगाकर बाहर निकाल देना ही उसकी शुद्धि है। जैसे देवता और मनुष्यों की गति में भेद है, वैसे ही ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी भिन्न है। मनुष्य को अपने धर्म में रहकर दूसरों के मार्ग की निंदा नहीं करनी चाहिए। प्रवृत्ति (यज्ञ-याग आदि) और निवृत्ति (शम-दम आदि) रूप कर्म दोनों सही हैं, परंतु एक साथ नहीं किए जा सकते। भगवान शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें किसी भी प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। पिताजी! आप भगवान शंकर का अपराध करने वाले हैं। इसलिए मुझे आप जैसे दुर्जन से संबंध रखने में लज्जा आती है। जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे जन्म को भी धिक्कार है। जब भगवान शिव मुझे आपके साथ ‘दाक्षायणी’ नाम से पुकारेंगे, तो उस समय मुझे बड़ी लज्जा और खेद होगा। इसलिए, मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूंगी।'

देवी सती ने यज्ञमण्डप में मौन होकर उत्तर दिशा की ओर भूमि पर बैठकर आचमन किया और पीला वस्त्र ओढ़कर शरीर छोड़ने के लिए योगमार्ग में स्थित हो गईं। उन्होंने प्राण और अपान को एकरूप कर नाभिचक्र में स्थापित किया और धीरे-धीरे हृदय में ले गईं और अपने सम्पूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। भगवान शंकर के चरणों का ध्यान करते हुए उन्होंने सब ध्यान भुला दिया, और उनका शरीर योगाग्नि से जल उठा। जब देवताओं ने सती का देहत्याग देखा, तब वे हाहाकार करने लगे। चारों ओर गूंज उठा- "हाय! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर सती ने प्राण त्याग दिए। यह बड़ा असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है! इसकी पुत्री सती ने प्राण त्यागा, और इसने रोकने की भी कोशिश नहीं की!" भगवान शिव के पार्षद सती का प्राणत्याग देखकर अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिए उठ खड़े हुए। उनके आक्रमण का वेग देखकर भृगु ने यज्ञकुण्ड से 'ऋभु' नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गए और जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, जिससे समस्त गुह्यक और प्रमथगण इधर-उधर भाग गए।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 18.10.2024