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5- भगवान के स्वरूप का विस्तार एवं प्रमुख अवतार

Jun 25th, 2024 | 8 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

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Language: Hindi

गोकर्ण कथा के बाद सनकादि मुनियों ने नारदजी को भागवत सप्ताह कथा सुनने की विधि बताई। इसके बाद मुनियों ने भागवत कथा सुनाई। कथा समाप्त होने पर नारदजी ने कहा, "मैं धन्य हूँ, आपने कृपा करके मुझे अत्यंत अनुगृहीत किया है। आज मुझे सर्वपापहारी भगवान श्रीहरि की प्राप्ति हो गई। मैं श्रीमद्भागवत श्रवण को सभी धर्मों में श्रेष्ठ मानता हूँ, क्योंकि इसके श्रवण से गोलोकविहारी श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है।"

सूतजी शौनकजी से कहते हैं कि उस समय वहां घूमते-घूमते व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी पधारे। सोलह वर्ष की उम्र के वे प्रेम से धीरे-धीरे श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे। परम तेजस्वी शुकदेवजी को देखकर सभी सभासद झटपट खड़े हो गए और उन्हें एक ऊँचे आसन पर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा कि महामुनि व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की है। इसमें निष्कपट-निष्काम परम धर्म का निरूपण है। इसमें शुद्ध अंतःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तु का वर्णन है, जिससे तीनों तापों की शांति होती है। इसका आश्रय लेने पर अन्य शास्त्र या साधन की आवश्यकता नहीं रहती।

जब पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदय में आते हैं। यह भागवत पुराणों का तिलक और वैष्णवों का धन है। इसमें परमहंसों के प्राप्य विशुद्ध ज्ञान का ही वर्णन किया गया है, तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिसहित निवृत्तिमार्ग को प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मनन में तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है। यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ में भी नहीं है। इसलिए तुम इसका खूब पान करो, इसे कभी मत छोड़ो।

जब शुकदेवजी यह कह रहे थे, तभी वहां प्रह्लाद, बलि, उद्धव और अर्जुन आदि पार्षदों को लेकर भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। नारदजी ने उन्हें एक सिंहासन पर बिठाया। सब उनके सामने कीर्तन करने लगे। तब वहां पार्वती सहित शिवजी और ब्रह्मा भी प्रकट हुए। प्रह्लाद करताल बजाने लगे, उद्धव ने झाँझ उठाया, नारदजी वीणा बजाने लगे, अर्जुन राग अलापने लगे, इंद्र मृदंग बजाने लगे, सनकादि बीच-बीच में जयगोष करने लगे और शुकदेवजी आगे भावभंगी के साथ भाव बताने लगे और भक्ति, ज्ञान वैराग्य नट के समान नाचने लगे।

यह देखकर भगवान प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा। तब सभी ने एक साथ कहा कि भविष्य में भी जहाँ कहीं भी भागवत कथा हो आप अपने पार्षदों के साथ अवश्य पधारें। तब श्रीकृष्ण ने "तथास्तु" कहा और अन्तर्धान हो गए। तब नारदजी ने शुकदेवजी और अन्य सभी को प्रणाम किया। शुकदेवजी ने भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को भागवत में स्थापित किया और सभी अपने-अपने स्थान को चले गए।

शौनकजी सूतजी से प्रश्न करते हैं कि शुकदेवजी ने परीक्षित, नारदजी, सनकादि को कब-कब यह कथा सुनाई। सूतजी ने बताया- भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम चले जाने के बाद कलियुग के 30 वर्ष बीतने पर भाद्रपद मास की शुक्ला नवमी में शुकदेवजी ने परीक्षित को भागवत कथा सुनाई। राजा परीक्षित के कथा सुनने के बाद कलियुग के 200 वर्ष बीत जाने पर आषाढ़ मास की शुक्ला नवमी को गोकर्णजी ने यह कथा सुनाई थी। इसके बाद कलियुग के 30 वर्ष और निकल जाने पर कार्तिक शुक्ला नवमी से सनकादि ने कथा आरम्भ की थी। 

इसके बाद सूतजी ने कहा कि सभी को यह भागवत कथा श्रवण करनी चाहिए। अपने कल्याण के उद्देश्य से आधे क्षण के लिए भी इस शुककथारूप अनुपम सुधा का पान करो। निंदित कथाओं से युक्त कुपथ में व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो? इस कथा के कान में प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बात के साक्षी राजा परीक्षित हैं। श्रीशुकदेवजी ने प्रेमरस के प्रवाह में स्थित होकर इस कथा को कहा था। शौनकजी! मैंने अनेक शास्त्रों को देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है। सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का यही निचोड़ है। संसार में इस शुकशास्त्र से अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है।

इसके साथ ही श्रीमद् भागवत महात्म्य समाप्त होता है और मूल ग्रंथ का आरंभ मङ्गलाचरण से किया जाता है। 
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् । तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा । धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।।
अर्थ: मैं परम सत्य का ध्यान करता हूँ क्योंकि वे ही परम सत्य हैं तथा सभी प्रकट ब्रह्माण्डों की रचना, पालन तथा संहार के मूल कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सभी अभिव्यक्तियों के प्रति पूर्णतया सचेत हैं और असत पदार्थो से पृथक है जड़ नहीं चेतन है ; परतंत्र नहीं, स्वयंप्रकाश है ; जो ब्रम्हा अथवा हिरण्यगर्भ नही, प्रयुत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है; जिसके संबध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते है; जैसे तेजोमय सुर्यरश्मियो में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमे यह त्रिगुणमयी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टी मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान- सत्ता से सत्यवत प्रतीत हो रही है। इसलिए मैं उस परम सत्य का ध्यान करता हूँ, जो भौतिक जगत की भ्रामक अभिव्यक्तियों से अछूते दिव्य क्षेत्र में सनातन रूप से विद्यमान हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं।(भागवत -1-1-1)
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां । वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः । सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ।।
अर्थ: महामुनि व्यासवेद के द्वारा निर्मित श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फलकीरहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्यपुरुषो के जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है, जो तीनो तापों का जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृति पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते है, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदय में आकर बंदी बन जाता है। (भागवत -1-1-2)
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।
अर्थ: रस के मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के मुख का संबन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है। इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नही है। यह मूर्तिमान रस है। जब तक शरीर में चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्रसका निरंतर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ।(भागवत -1-1-3)

वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण से

नैमिषारण्य में शौनक जी ने सूतजी को  प्रश्न किया कि कलियुग के अल्पायु वाले आलसी जीवों के कल्याण के लिए सारे वेदों, उपनिषदों का सार सुनाइए। तब सूतजी ने भगवान की लीला कथाओं को सुनाना प्रारंभ किया। 
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ⁠। अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति ⁠।⁠।⁠
मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकारकी कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्तिसे हृदय आनन्दस्वरूप परमात्माकी उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है। (भागवत 1-2-6)

वेदों का सार श्रीकृष्ण में ही निहित है। यज्ञों का मुख्य उद्देश्य भी श्रीकृष्ण हैं। योग की साधना भी श्रीकृष्ण के लिए ही की जाती है और सभी कर्मों की परिणति भी श्रीकृष्ण में होती है। ज्ञान के माध्यम से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है। तपस्या भी श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए की जाती है। श्रीकृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान किया जाता है और सभी गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समाहित हो जाती हैं। भगवान ही विभिन्न योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते हैं। वे ही संपूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में अवतार लेकर सत्त्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं।

भगवान के अवतारों की कथा

सृष्टि की इच्छा करने पर भगवान ने महाविष्णु के रूप में स्वयं का विस्तार किया, जिन्हें कारणोदकशायी विष्णु भी कहते हैं। ये प्रथम पुरुष के रूप में माने जाते हैं और कारण महासागर के दिव्य जल में निवास करते हैं। महाविष्णु अपने शरीर के छिद्रों से असंख्य भौतिक ब्रह्मांड प्रकट करते हैं। फिर वे गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रत्येक ब्रह्मांड के तल पर निवास करते हैं, जिन्हें द्वितीय पुरुष कहा जाता है। गर्भोदकशायी विष्णु के नाभि से ब्रह्मा का जन्म होता है, जो सृष्टि की प्रक्रिया का मार्गदर्शन करते हैं। वे विभिन्न तत्वों, प्रकृति के नियमों, आकाशगंगाओं और ग्रह प्रणालियों का निर्माण करते हैं।

गर्भोदकशायी विष्णु स्वयं को क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में विस्तारित करते हैं और प्रत्येक ब्रह्मांड के शीर्ष पर निवास करते हैं। क्षीरोदकशायी विष्णु तृतीय पुरुष के रूप में जाने जाते हैं। वे ब्रह्मांड के शीर्ष पर रहते हुए भी सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं और उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं।

योगीजन दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं, जिसमें हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ, और मुख होते हैं; हजारों सिर, कान, आँखें, और नासिकाएँ होती हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र, और आभूषणों से वह रूप अलंकृत होता है। भगवान का यही पुरुष रूप, जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है। 

भगवान के प्रमुख अवतार

  1. सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार: चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार लेकर कठोर ब्रह्मचर्य का पालन किया।
  2. सूकर अवतार: पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिए सूकर रूप धारण किया।
  3. नारद अवतार: देवर्षि नारद के रूप में अवतार लेकर 'नारद-पांचरात्र' का उपदेश किया।
  4. नर-नारायण अवतार: मन और इंद्रियों का संयम करके कठिन तपस्या की।
  5. कपिल अवतार: सांख्य-शास्त्र का उपदेश दिया।
  6. दत्तात्रेय अवतार: अत्रि और अनसूया के पुत्र रूप में प्रकट हुए।
  7. यज्ञ अवतार: यज्ञ के रूप में अवतार लेकर स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की।
  8. ऋषभदेव अवतार: परमहंस मार्ग का पालन करते हुए प्रकट हुए।
  9. पृथु अवतार: पृथ्वी से ओषधियों का दोहन किया।
  10. मत्स्य अवतार: पृथ्वी की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण किया।
  11. कच्छप अवतार: समुद्र मंथन के समय मंदराचल को पीठ पर धारण किया।
  12. धन्वन्तरि अवतार: अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए।
  13. मोहिनी अवतार: दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पिलाया।
  14. नरसिंह अवतार: हिरण्यकशिपु का वध किया।
  15. वामन अवतार: दैत्यराज बलि से तीन पग भूमि मांगी।
  16. परशुराम अवतार: इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त किया।
  17. व्यास अवतार: वेदों का विभाजन करके कई शाखाएं बनाईं।
  18. राम अवतार: रावण वध और सेतु बंधन की लीलाएं कीं।
  19. बलराम और श्रीकृष्ण अवतार: यदुवंश में प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा।
  20. बुद्ध अवतार: कलियुग के प्रारंभ में प्रकट हुए।
  21. कल्कि अवतार: कलियुग के अंत में प्रकट होकर अधर्म का नाश करेंगे।

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 24.06.2024