Log in
English

26- महत्तत्व, अहंकार, पंचतन्नमात्र, पंचमहाभूत आदि का निर्माण

Oct 5th, 2024 | 10 Min Read
Blog Thumnail

Category: Bhagavat Purana

|

Language: Hindi

श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 3 अध्याय: 26 और 27

संख्या दर्शन- महत्तत्व और अहंकार की उत्पत्ति और उसका रूपांतरण, प्रकृति और पुरुष संबंधी ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति

शुरू में प्रकृति अपनी शांत और संतुलित अवस्था में होती है। जब परमपुरुष परमात्मा, जो सभी प्राणियों के परम स्रोत हैं, जीवों के अदृष्ट (कर्मफल या भाग्य) के कारण उत्पन्न क्षोभ या हलचल को अनुभव करते हैं, तो वे अपनी माया शक्ति (जड़ शक्ति) में चिच्छक्ति (चित् शक्ति) के रूप में वीर्य को स्थापित करते हैं। माया को यहाँ जगत का निर्माण स्थल कहा गया है, और इस चिच्छक्ति के स्थापित होने से महत्तत्व उत्पन्न होता है।

महत्तत्व क्या है?

महत्तत्व सृष्टि का पहला और प्रमुख तत्व है जिसको हिरण्यमय (स्वर्ण के समान) कहा गया है, जो इसका दिव्य, तेजस्वी और सूक्ष्म स्वरूप दर्शाता है। महत्तत्व ही वह आधार है जिससे सृष्टि के अन्य तत्व उत्पन्न होते हैं। महत्तत्व के भीतर पूरा ब्रह्मांड अंकुर रूप में स्थित है, जिसे वह प्रकट करने वाला है। इसका मतलब है कि यह वह बीज है, जिसमें सम्पूर्ण जगत समाहित होता है। महत्तत्व की विशेषता यह है कि यह लय-विक्षेपादि रहित है, यानी इसमें कोई बाधा/अशांति या विघटन नहीं है। यह सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान की उपलब्धिका स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्व है और उसीको ‘वासुदेव’ कहते हैं।जिस प्रकार जल अपनी स्वाभाविक अवस्था में, पृथ्वी और अन्य पदार्थों के संसर्ग में आने से पहले, अत्यन्त स्वच्छ, विकाररहित और शान्त होता है, ठीक वैसे ही चित्त भी अपनी स्वाभाविक अवस्था में शुद्ध, अविकारी और शान्त होता है। जब महत्तत्व में स्थित जगत को प्रकट करने का समय आता है, तो यह महत्तत्व अपने स्वरूप को ढकने वाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से समाप्त कर देता है।

अहंकार की उत्पत्ति और उसका रूपांतरण

भगवान की चित्-शक्ति से महत्तत्व में विकार उत्पन्न होता है, तो उससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। यहाँ अहंकार को तीन भागों में बाँटा गया है:
  1. वैकारिक अहंकार (सत्त्वगुण प्रधान) - इससे मन की उत्पत्ति होती है।
  2. तैजस अहंकार (रजोगुण प्रधान) - इससे इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।
  3. तामस अहंकार (तमोगुण प्रधान) - इससे पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है।
शरीर, इन्द्रियों और मन के रूप में प्रकट होनेवाला अहंकार का मूल तत्त्व सहस्र सिर वाले अनंतदेव अर्थात् ‘संकर्षण’ हैं।

अहंकार के तीन कार्य:
  1. देवता के रूप में: यह कर्तापन के रूप में कार्य करता है।
  2. इन्द्रियों के रूप में: यह साधन के रूप में कार्य करता है।
  3. पंचमहाभूतों के रूप में: यह कार्य का प्रतिनिधित्व करता है।
गुणों के आधार पर अहंकार के लक्षण:
  1. सत्त्वगुण से जुड़ने पर: अहंकार शांत होता है।
  2. रजोगुण से जुड़ने पर: अहंकार तीव्र होता है।
  3. तमोगुण से जुड़ने पर: अहंकार मोहयुक्त होता है।
उपर्युक्त तीन प्रकारके अहंकारमेंसे वैकारिक अहंकारके विकृत होनेपर उससे मन उत्पन्न हुआ। मन संकल्प-विकल्प (विचार) से इच्छाओं को उत्पन्न करता है। यह मनस तत्त्व ही इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नामसे प्रसिद्ध है।

तैजस अहंकारमें विकार होनेपर उससे बुद्धि और इन्द्रियाँ उत्पन्न हुये। बुद्धि वस्तुओं का स्फुरण, इन्द्रियों की सहायता और वस्तुओं का विशेष ज्ञान कराता है। वृत्तियोंके भेदसे संशय, विपर्यय, निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धि की अवस्थाएँ है। बुद्धि का तत्त्व 'प्रद्युम्न' के रूप में प्रकट होता है। इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकार से उत्पन्न होते हैं। कर्म इन्द्रियाँ प्राण की शक्ति से संचालित होती हैं। ज्ञान इन्द्रियाँ बुद्धि से प्रभावित होती हैं।

पंचतन्मात्र एवं पंचमहाभूत की उत्पत्ति, लक्षण और विकार का संरचित विवरण:

अहंकारमेंसे तामसिक अहंकारके विकृत होनेपर उससे शब्दतन्मात्रा उत्पन्न हुआ।
  1. शब्दतन्मात्रा से आकाश और श्रवणेंद्रिय का निर्माण होता है।
    • आकाश का लक्षण:
      • सभी तत्त्वों के लिए स्थान प्रदान करना
      • बाहरी और आंतरिक रूप से हर जगह उपस्थित होना
      • प्राण, इन्द्रियाँ और मन का आधार
    • श्रवणेंद्रिय का लक्षण:
      • अर्थ का बोध कराना 
      • छिपे हुए वक्ता की पहचान कराना
      • सूक्ष्म रूप में विद्यमान होना
    • आकाश के विकार से वायु की उत्पत्ति।
    • श्रवणेंद्रिय के विकार से स्पर्शतन्मात्र की उत्पत्ति।
  2. स्पर्शतन्मात्र से वायु और त्वगिन्द्रिय का निर्माण होता है।
    • वायु का लक्षण:
      • वृक्ष की शाखाएँ और तृण को हिलाना।
      • गंध और ध्वनि को इन्द्रियों तक पहुँचाना।
      • प्राण वायु के द्वारा इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना
    • त्वगिन्द्रिय का लक्षण:
      • कोमलता, कठोरता, शीतलता, उष्णता का अनुभव कराना।
      • सूक्ष्म रूप में विद्यमान होना
    • वायु के विकार से तेज की उत्पत्ति।
    • त्वगिन्द्रिय के विकार से रूपतन्मात्र की उत्पत्ति।
  3. रूपतन्मात्र से तेज और नेत्रेन्द्रिय का निर्माण होता है।
    • तेज का लक्षण:
      • चमकना, पकाना, शीत दूर करना।
      • भूख-प्यास उत्पन्न करना और उनकी निवृत्ति कराना।
    • नेत्रेन्द्रिय का लक्षण:
      • वस्तु के आकार, प्रकार, परिमाण का बोध कराना।
      • प्रकाश का अनुभव कराना।
    • तेज के विकार से जल की उत्पत्ति।
    • नेत्रेन्द्रिय के विकार से रसतन्मात्र की उत्पत्ति।
  4. रसतन्मात्र से जल और रसनेन्द्रिय का निर्माण होता है।
    • जल का लक्षण:
      • गीला करना, पिण्डाकार बनाना, तृप्त करना।
      • ताप को कम करना।
    • रसनेन्द्रिय का लक्षण:
      • शुद्ध रूप में एक, लेकिन अन्य तत्त्वों से जुड़कर मीठा, तीखा, खट्टा, नमकीन आदि बनना।
    • जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति।
    • रसनेन्द्रिय के विकार से गन्धतन्मात्र की उत्पत्ति।
  5. गन्धतन्मात्र से पृथ्वी और घ्राणेन्द्रिय का निर्माण होता है।
    • पृथ्वी का लक्षण:
      • प्रतिमादि रूपसे ब्रह्मकी साकार-भावनाका आश्रय होना।
      • वस्तुओं को धारण करना, प्राणियों के गुणों को प्रकट करना।
      • आकार, प्रकार और परिमाण का निर्धारण।
    • घ्राणेन्द्रिय का लक्षण: 
      • गंध शुद्ध रूप में एक, लेकिन मिश्रण से विभिन्न प्रकार की सुगंध और दुर्गंध बनती है।

  • आकाश का गुण शब्द। अनुभव करने के लिए श्रोत्रेन्द्रिय (कान)।
  • वायु का गुण स्पर्श। अनुभव करने के लिए त्वगिन्द्रिय (त्वचा)।
  • तेज का गुण रूप (आकार/रंग)। अनुभव करने के लिए नेत्रेन्द्रिय (आँख)।
  • जल का गुण रस। अनुभव करने के लिए रसनेन्द्रिय (जिह्वा/जीभ)।
  • पृथ्वी का गुण गन्ध। अनुभव करने के लिए घ्राणेन्द्रिय (नाक)।

वायु, तेज, जल, और पृथ्वी जैसे तत्त्वों में उनके कारण-तत्त्व (आकाश, वायु आदि) के गुण भी समाहित रहते हैं। इसलिए, पृथ्वी में सभी महाभूतों (पाँच तत्त्वों) के गुण—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध—समाहित होते हैं, जो केवल पृथ्वी में ही पूरी तरह से पाए जाते हैं।

महत्तत्व, अहंकार और पंचभूत के निर्माण के बाद क्या हुआ?

जब महत्तत्व, अहंकार, और पंचभूत (पाँच तत्त्व) के निर्माण के बाद भी अलग-अलग रहे और मिल नहीं सके, तब श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट (कर्म), और सत्त्व-रज-तम गुणों सहित इन तत्त्वों में प्रवेश किया। इस प्रविष्टि से एक जड़ अंड उत्पन्न हुआ, जो विराट पुरुष की अभिव्यक्ति का स्रोत बना। इस अंड से श्रीहरि के चौदह लोकों का विस्तार हुआ, और यह छह आवरणों (जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, और महत्तत्व) से घिरा है। विराट पुरुष ने इस अंड में प्रवेश कर मुख, नाक, नेत्र, कान, त्वचा, लिंग, गुदा, हाथ, चरण आदि अंगों को प्रकट किया। हर अंग से संबंधित इन्द्रियाँ और उनके अधिष्ठाता देवता उत्पन्न हुए। जैसे मुख से वाक इन्द्रिय और अग्नि देवता, नाक से घ्राण इन्द्रिय और वायु देवता, नेत्र से चक्षु इन्द्रिय और सूर्य देवता इत्यादि। इसके साथ ही मन, बुद्धि, अहंकार, और चित्त का प्राकट्य हुआ। मन का अधिष्ठाता चंद्रमा और बुद्धि का अधिष्ठाता ब्रह्मा हुआ। जब इन सभी देवताओं का उत्पन्न होना हो गया, तब भी वे विराट पुरुष को उठाने में असमर्थ रहे, इसलिए वे सभी अपने-अपने उत्पत्तिस्थानों में लौटने लगे।

विराट पुरुष कैसे जगे?
विभिन्न देवताओं ने विराट पुरुष को उठाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सके। अग्नि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, वायु ने घ्राणेन्द्रिय के साथ नासाछिद्रों में, सूर्य ने चक्षु के साथ नेत्रों में, दिशाओं ने श्रवणेन्द्रिय के साथ कानों में, ओषधियों ने रोमों के साथ त्वचा में, जल ने वीर्य के साथ लिंग में, मृत्यु ने अपान के साथ गुदा में, इन्द्र ने बल के साथ हाथों में, विष्णु ने गति के साथ चरणों में, नदियों ने रुधिर के साथ नाड़ियों में, समुद्र ने क्षुधा-पिपासा के साथ उदर में, चन्द्रमा ने मन के साथ हृदय में, ब्रह्मा ने बुद्धि के साथ हृदय में और रुद्र ने अहंकार के साथ हृदय में प्रवेश किया, परन्तु विराट पुरुष नहीं उठा।

आखिर में, जब क्षेत्रज्ञ ने चित् के साथ हृदय में प्रवेश किया, तब ही विराट पुरुष जल से उठकर खड़ा हो गया। यह इस बात का प्रतीक है कि केवल क्षेत्रज्ञ ने चित् शक्ति (भगवान+स्वरूप शक्ति) के प्रवेश से ही जीवन और चेतना प्राप्त होती है, जिससे विराट पुरुष सक्रिय हो पाता है।
यथा प्रसुप्तं पुरुषं प्राणेन्द्रियमनोधियः ।
प्रभवन्ति विना येन नोत्थापयितुमोजसा ॥
जैसे इस संसार में प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि जैसे तत्व बिना क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की मदद के सोये हुए प्राणियों को अपने बल से नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट पुरुष को भी बिना क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) की सहायता के उठाना संभव नहीं है। (भगवान 3.26.71)
तमस्मिन् प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया ।
भक्त्या विरक्त्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ॥
अतः भक्ति, वैराग्य और चित्तकी एकाग्रतासे प्रकट हुए ज्ञानके द्वारा उस अन्तरात्म स्वरूप क्षेत्रज्ञको इस शरीरमें स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये। (भगवान 3.26.72)

प्रकृति और पुरुष संबंधी ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति

भगवान कपिल माता देवहूति से आगे कहते हैं- जैसे जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब होता है, लेकिन उस जल की ठंडक और चंचलता से सूर्य का कोई संबंध नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी जब शरीर में रहती है, तब उसके सुख-दुख से जुड़ी नहीं होती। आत्मा स्वभाव से निष्क्रिय, न करने वाली और गुण रहित होती है।जब आत्मा प्रकृति के गुणों से जुड़ जाती है, तब वह अहंकार से यह मानने लगती है कि 'मैं कर्ता हूँ'। इस अहंकार के कारण, वह अच्छे-बुरे कर्मों के प्रभाव से अपनी स्वतंत्रता और शांति खो देती है और विभिन्न योनियों में जन्म लेती है। जैसे स्वप्न में कोई कारण न होने पर भी लोग दुख उठाते हैं, उसी प्रकार आत्मा बिना किसी वास्तविक कारण के भी विषयों पर सोचते रहने से संसार के चक्र में फंसी रहती है।इसलिए, समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने मन को गलत मार्ग (विषय-चिंतन) से हटाकर भक्ति और वैराग्य के द्वारा नियंत्रित करे। योग और साधना जैसे यम आदि का अभ्यास करते हुए, चित्त को एकाग्र करके भगवान में सच्चा भाव रखना चाहिए। सभी प्राणियों के प्रति समानता रखनी चाहिए, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए, और ब्रह्मचर्य, मौन और अपनी शक्ति को भगवान को समर्पित करते हुए संतोष में रहना चाहिए।

जब किसी व्यक्ति को इन सभी गुणों का अनुभव होता है, तो वह आत्मदर्शी मुनि बन जाता है। वह अपने अंतःकरण से परमात्मा का साक्षात्कार करता है और उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त करता है, जो सभी उपाधियों से परे होता है और सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है।जिस तरह पानी में पड़ा हुआ सूरज का प्रतिबिंब दीवार पर दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब के संबंध से समझा जाता है, और पानी में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब से असली सूरज का पता चलता है, वैसे ही वैकारिक आदि तीन प्रकार के अहंकार (देह, इंद्रिय और मन में स्थित) अपने प्रतिबिंबों से पहचाने जाते हैं। फिर उस अहंकार के माध्यम से सत्-स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार होता है। यह वही परमात्मा है जो गहरी नींद (सुषुप्ति) के समय, जब शब्द, इंद्रियां, मन-बुद्धि आदि सब अव्यक्त हो जाते हैं, तब भी जागृत रहता है और पूरी तरह से अहंकार रहित होता है।

देवहूतिन ने पूछा कि पुरुष और प्रकृति एक-दूसरे पर निर्भर हैं, इसलिए प्रकृति कभी भी पुरुष को छोड़ नहीं सकती। जैसे गंध और पृथ्वी या रस और जल एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते, उसी तरह पुरुष और प्रकृति भी अलग नहीं रह सकते। जिन गुणों के आधार पर पुरुष को कर्मबन्धन प्राप्त होता है, उनके रहते उसे कैवल्य (मुक्ति) कैसे प्राप्त होगी? अगर तत्त्वों पर विचार करने से संसार के बंधनों का डर कम भी हो जाए, तो भी प्राकृतिक गुणों के बिना वह डर फिर से आ सकता है।
अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ⁠।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम् ⁠।⁠।⁠

ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ⁠।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ⁠।⁠।⁠

प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ⁠।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः ⁠।⁠।

भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ⁠।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ⁠।⁠।⁠
भगवान ने कहा कि जैसे अग्नि उत्पन्न होने पर उसकी उत्पत्ति स्थल जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्काम भाव से अपने धर्म का पालन करते हुए अंतःकरण की शुद्धि से भक्ति बढ़ती है। भगवत् कथा सुनने, ज्ञान प्राप्त करने, वैराग्य को पक्का करने, और ध्यान के द्वारा अपने चित्त को एकाग्र करने से आत्मा (पुरुष) की प्रकृति (अविद्या माया) धीरे-धीरे कम होती जाती है।
फिर जब हम अपने स्वभाव में स्थिर और स्वतंत्र हो जाते हैं, तो वह माया हमारे लिए कोई भी हानि नहीं कर सकती। जैसे सोते समय कोई व्यक्ति स्वप्न में कई दु:खों का अनुभव करता है, लेकिन जागने पर उसे उन स्वप्नों का कोई मोह नहीं होता। (भागवत 3.27.21-22-23-24)
मद्भक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ⁠।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ⁠।⁠।⁠

प्राप्नोतीहांजसा धीरः स्वदृशा छिन्नसंशयः ⁠।
यद्‌गत्वा न निवर्तेत योगी लिंगाद्विनिर्गमे ⁠।⁠।⁠

यदा न योगोपचितासु चेतो मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग ⁠।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद् आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ⁠।⁠।⁠
जो व्यक्ति अनेकों जन्मों तक आत्मचिन्तन में लगा रहता है, उसे सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य प्राप्त होता है। भगवान की कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके वह भक्त सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और लिंग देह के समाप्त होने पर कैवल्य का आनंद प्राप्त करता है, जहाँ जाने के बाद योगी फिर लौटकर नहीं आता। यदि योगी अपने चित्त को योग साधना से बढ़ाए बिना मायामयी सिद्धियों में नहीं फंसता, तो उसे वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है, जहाँ मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं होता।(भागवत 3.27.28-29-30)

सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 04.10.2024