श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 5 अध्याय: 5-8
भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों और ब्राह्मणों को उपदेश देते हुए कहा-
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्यान्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्
जो अपने प्रिय सम्बन्धीको भगवद्भक्तिका उपदेश देकर मृत्युकी फाँसीसे नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है । (भागवत 5.5.18)
"मेरे इस अवतार रूप और शरीर का रहस्य साधारण जनों की समझ से परे है। मेरा हृदय शुद्ध सत्त्व से बना है, और वही धर्म का आधार है। अधर्म को मैंने अपने से दूर कर दिया है, इसी कारण सज्जन मुझे 'ऋषभ' कहते हैं। तुम सब मेरे शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिए ईर्ष्या और द्वेष छोड़कर अपने बड़े भाई भरत और सम्पूर्ण चराचर भूतोंको मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धिसे पद-पदपर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है, और यही तुम्हारा प्रजा पालन का कर्तव्य भी है।"
भगवान ऋषभदेव के पुत्र पहले से ही ज्ञानी थे परंतु उन्होंने उन्हें उपदेश इसलिए दिया ताकि लोक को धर्म और जीवन के आदर्श सिखा सकें। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े और धर्मनिष्ठ थे। वे भगवान के महान भक्त और भक्तों के प्रति समर्पित थे। ऋषभदेव ने राज्य का भार भरत को सौंप दिया और खुद सांसारिक मोह त्यागकर सन्यास ग्रहण कर लिया।
उन्होंने वस्त्र भी छोड़ दिए और दिगंबर अवस्था में जीवन बिताने लगे। उनके बाल बिखरे हुए थे, और वे उन्मत्त जैसे दिखते थे। उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और ब्रह्मावर्त से बाहर चले गए। ऋषभदेव मौन रहते थे, और कोई उनसे बात करना चाहता तो वे उत्तर नहीं देते। वे जड़, पागल, अंधे, गूंगे और पिशाच जैसे आचरण करते हुए अवधूत की तरह विचरण करते। कभी वे गाँवों, नगरों, पहाड़ों, जंगलों, गोशालाओं, यात्रियों के ठहरने के स्थानों में जाते। लोग उनका अपमान करते—कोई उन पर थूकता, कोई पत्थर मारता, कोई गाली देता, लेकिन वे इन सब पर ध्यान नहीं देते। इसका कारण यह था कि वे शरीर और माया से ऊपर उठ चुके थे। ऋषभदेव ने देखा कि लोग उनके योगसाधन में बाधा डाल रहे हैं, तो उन्होंने बीभत्सवृत्ति धारण कर ली। वे अजगर की तरह लेटे-लेटे भोजन करते, और अपने त्यागे मल-मूत्र में लोट जाते। उन्होंने गौ, मृग और कौए जैसी वृत्तियां अपना लीं।
इस प्रकार ऋषभदेव परमहंसों को आदर्श त्याग की शिक्षा देते हैं। वे निरंतर भगवान वासुदेव में स्थित रहते, और सभी प्राणियों को समान आत्मा के रूप में देखते। उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मनकी गतिके समान ही शरीरका भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहँच जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दुसरेके शरीरमें प्रवेश करना), दूरकी बातें सुन लेना और दूरके दृश्य देख लेना आदि सब प्रकारकी सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करनेको आयीं; परन्तु उन्होंने उनका मनसे आदर या ग्रहण नहीं किया।
राजा परीक्षित्ने पूछा- यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँ, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशोंका कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया? श्रीशुकदेवजीने कहा-तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु इस चंचल चित्तसे कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये।काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओंका तथा कर्मबन्धनका मूल तो यह मन ही है; इसपर कोई भी बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है?
भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालोंके भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड पुरुषोंकी भाँति अवधूतोंके-से विविध वेष, भाषा और आचरणसे अपने ईश्वरीय प्रभावको छिपाये रहते थे। अंत में, भगवान ऋषभदेव ने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिए अपने शरीर को छोड़ने का संकल्प लिया। वे कोंक, वेंक, और दक्षिण कर्नाटक के क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए कुटकाचल के वन में पहुँच गए। उस समय वे दिगंबर रूप में, बिखरे बालों और मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले, उन्मत्त के समान विचरण कर रहे थे। उसी समय जंगल में तेज झंझावात से बाँसों के आपस में रगड़ने से भयंकर दावानल उत्पन्न हो गया। उस आग ने पूरे वन को अपनी भयानक लपटों में समेट लिया और भगवान ऋषभदेव के शरीर को भी भस्म कर दिया। भगवान्का यह अवतार रजोगुणसे भरे हुए लोगोंको मोक्ष मार्गकी शिक्षा देनेके लिये ही हुआ था।
शुकदेवजी कहते हैं-
अस्त्वेवमङ्ग भगवान्भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम्
भगवान् भक्तोंके अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्तिसे भी बढ़कर जो भक्तियोग है, उसे सहजमें नहीं देते । (भागवत 5.6.18)
निरन्तर विषय-भोगोंकी अभिलाषा करनेके कारण अपने वास्तविक श्रेयसे चिरकालतक बेसुध हुए लोगोंको जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोकका उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेवको नमस्कार है ।
महाराज भरत की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं, राजन्! महाराज भरत महान भगवद्भक्त थे। भगवान ऋषभदेव ने उन्हें पृथ्वी की रक्षा का कार्य सौंपा। उन्होंने पंचजनी से विवाह किया, जिनसे उनके सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु नामक पाँच पुत्र हुए। उनके राज के समय इस अजनाभवर्ष को ‘भारतवर्ष’ नाम मिला। महाराज भरत ने अपने पूर्वजों की तरह प्रजा का पालन करते हुए उन्हें धर्म में स्थिर रखा और समयानुसार श्रद्धा से यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना की। भरतजी यज्ञ करते समय यज्ञ से प्राप्त पुण्य को भगवान वासुदेव को समर्पित कर देते थे। वे यज्ञ के देवताओं को भगवान के अंगों के रूप में देखते हुए अपने कर्मों को शुद्ध करते थे। इससे उनका हृदय निर्मल हो गया, और उन्हें भगवान वासुदेव की अत्यंत गहरी भक्ति प्राप्त हुई। एक करोड़ वर्षों तक राजभोग करने के बाद, उन्होंने अपनी संपत्ति पुत्रों में बांट दी और सांसारिक जीवन त्यागकर पुलहाश्रम चले गए। वहाँ गण्डकी नदी शालग्राम शिलाओं से युक्त जल प्रवाहित करती हुई ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती है। महाराज भरत इस आश्रम के एकांत में रहते हुए पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल, और कंद-मूल-फल आदि से भगवान की आराधना करने लगे।
उनकी आराधना से उनके मन की सभी विषयाभिलाषाएँ शांत हो गईं, और उन्हें परम आनंद की अनुभूति होने लगी। भगवान के अरुण चरणारविंदों के ध्यान में लीन होकर उनके प्रेम का वेग इतना बढ़ गया कि उनका हृदय द्रवित हो गया, शरीर में रोमांच और नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। वे भगवत्पूजा में इतने तल्लीन हो गए कि उनकी बुद्धि प्रेमानंद के सरोवर में डूब गई, और उन्हें पूजा के नियमों का भी स्मरण नहीं रहा। वे अपने शरीर पर कृष्णमृग का चर्म धारण करते थे और त्रिकाल स्नान के कारण उनके बाल घुंघराले होकर लटों में बदल गए थे। वे सूर्यमंडल में उदित भगवान नारायण की स्तुति करते हुए कहते थे कि भगवान का तेज प्रकृति से परे है, वही इस जगत की सृष्टि, संचालन, और जीवों की रक्षा करते हैं। हम उसी परम तेजस्वी भगवान की शरण लेते हैं।
महाराज भरत का पतन
एक बार महाराज भरत गण्डकी नदी में स्नान कर अपने दैनिक कार्यों और जप में लगे हुए थे। तभी एक प्यास से व्याकुल हरिनी पानी पीने नदी किनारे आई। वह पहले से ही सतर्क थी, लेकिन तभी पास के जंगल से सिंह की भीषण दहाड़ सुनाई दी। सिंह की आवाज़ से भयभीत हरिनी का कलेजा कांपने लगा। जान बचाने के लिए उसने घबराकर नदी पार करने के लिए छलांग लगाई। लेकिन वह गर्भवती थी, और डर के कारण उसका गर्भ नदी के प्रवाह में गिर गया। छलांग, भय, और गर्भ के गिरने से हरिनी कमजोर और पीड़ित हो गई। झुंड से बिछड़कर वह एक गुफा में जाकर मर गई। भरतजी ने यह सब देखा और नदी में बहते उस मातृहीन हरिण शावक को देख उनका हृदय दया से भर गया। वे उसे अपने आश्रम ले आए और उसकी देखभाल करने लगे, मानो वह उनका अपना ही संतान हो। धीरे-धीरे महाराज भरत की ममता उस मृगछौने के प्रति बढ़ती जा रही थी। वे नित्य उसका ध्यान रखते, उसे खाना-पीना, बचाव करना और पुचकारना, जिससे उनका ध्यान केवल उसी पर केन्द्रित हो गया था। इसके कारण उनके नियमित कर्म जैसे यम, नियम, और भगवत्पूजा धीरे-धीरे छूटने लगे।
एक दिन जब वे उस मृगछौने से दूर थे, तो वे अत्यधिक चिंतित हो गए, जैसे किसी ने उनका धन छीन लिया हो। उन्हें इस बात का डर था कि कहीं वह मृगछौना फिर न लौट आये, और वह शोकयुक्त हो गए। भरतजी उस मृगछौने के बिना उदास और निराश हो गए थे, और उन्होंने बार-बार भगवान सूर्य से प्रार्थना की कि वह मृगछौना सुरक्षित लौट आये। वे कहते थे, "क्या वह दीन मृगछौना मुझे फिर से मिलेगा? क्या वह मेरी शरण में लौटेगा?" इस चिंता में वे स्वयं को अत्यंत व्याकुल और शोकित महसूस करते थे। वे उस मृगछौने के बिना अपने जीवन की सुंदरता और शांति को खो बैठे थे।
भरतजी की आसक्ति ने उन्हें अपने उच्चतम लक्ष्य से भटका दिया। वे, जिन्होंने पहले अपने जीवन में किसी भी प्रकार के विकर्षण से बचते हुए केवल भगवत्स्मरण और योगसाधना में संलग्न रहने का निश्चय किया था, अब उसी मृगशावक के प्रति पूरी तरह से आसक्त हो गए थे। यह आसक्ति इतनी गहरी हो गई कि वे अपने आत्मस्वरूप को भूल गए और मृग के पालन-पोषण और दुलार में पूरी तरह रम गए।
महाराज भरत का मृग के रूप में पुनर्जन्म
जब काल ने भरतजी को अपने वश में कर लिया उस समय मृगशावक उनके पास बैठा था, और भरतजी का ध्यान उसी पर पूरी तरह केन्द्रित था। इस प्रकारकी आसक्तिमें ही मृगके साथ उनका शरीर भी छूट गया। तदनन्तर उन्हें अन्तकालकी भावनाके अनुसार अन्य साधारण पुरुषोंके समान मृगशरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई।
भरतजी, मृग का रूप धारण करने के बाद, अपने पूर्व जन्म के भक्ति के प्रभाव से बहुत पछताए। उन्होंने कहा, "अहो! बड़े खेदकी बात है, मैं संयमशील महानुभावोंके मार्गसे पतित हो गया! मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर एकान्त और पवित्र वनका आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्तको मैंने भगवान में लगा दिया था, वही मन एक छोटे से मृग के पीछे लग गया!" इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरतके हृदयमें जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगीको त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वतसे वे फिर शान्त स्वभाव मुनियोंके प्रिय उसी शालग्राम तीर्थमें, जो भगवानका क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषिके आश्रमपर चले आये। वहाँ रहकर भी वे कालकी ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्तिसे उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियोंद्वारा निर्वाह करते मृगयोनिकी प्राप्ति करानेवाले प्रारब्धके क्षयकी बाटदेखते रहे। अन्तमें उन्होंने अपने शरीरका आधा भाग गण्डकीके जलमें डुबाये रखकर उस मृगशरीरको छोड़ दिया।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद् भागवत कथा [हिन्दी]- 10.01.2025