श्रीमद्भागवत महापुराण- स्कन्ध: 1 अध्याय: 10 से 12
शौनकजी ने सूतजी से पूछा कि युद्धिष्ठिर ने कैसे राज्य शासन किया क्योंकि उनकी भोग में तो प्रवृत्ति नहीं थी। तब सूतजी ने कहा कि महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण ने कुरुवंश को पुनःस्थापित किया। कृष्ण एवं पितामह के उपदेश के कारण युधिष्ठिर का मन भी शांत हो गया था। उन्होंने समुद्र पर्यंत अपना राज्य विस्तार किया। उनके भाई उनकी आज्ञा पालन करते थे। श्रीकृष्ण कहीं महीने तक हस्तिनापुर में रुके। फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिरसे द्वारका जानेकी अनुमति माँगी तब राजाने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान् उनको प्रणाम करके रथपर सवार हुए।
उस समय कुछ समान उम्रवाले लोगों ने उनका आलिंगन किया और कुछ छोटी उम्रवालों ने प्रणाम। उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन और धौम्य आदि सब मूर्च्छित-से हो गये। वे श्रीकृष्णका विरह नहीं सह सके।
भगवान् श्रीकृष्णके घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओंसे भर आये; परंतु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया । भगवान्के प्रस्थानके समय मृदंग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे। भगवान्के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और भगवान्को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं। भगवान्के प्रिय सखा अर्जुनने श्रीकृष्णका श्वेत छत्र अपने हाथमें ले लिया। उद्धव और सात्यकि चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी। जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे।
हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ, जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें रम गया था, आपसमें ऐसी बातें कर रही थीं—‘सखियो! ये श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म हैं। इन्हींकी भक्तिसे अन्तःकरणकी पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादिके द्वारा नहीं। सखी! वास्तवमें ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओंका गायन वेदोंमें और दूसरे गोपनीय शास्त्रोंमें व्यासादि रहस्यवादी ऋषियोंने किया है—जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीलासे जगत्की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते। जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही संसारके कल्याणके लिये युग-युगमें अनेकों अवतार धारण करते हैं।'
'अहो! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र ]व्रजमण्डल भी अत्यन्त धन्य है जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्थामें घूम-फिरकर सुशोभित किया है । द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है।जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है उन स्त्रियोंने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदिके द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी। रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं।’
हस्तिनापुर की स्त्रियाँ इस प्रकार बात कर रहीं थी तभी श्रीकृष्ण उनसब के तरफ़ देखकर मुस्कुराकर रथ पर बैठ गये और वहाँ से विदा हुए। युधिष्ठिरने श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शंका हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें। प्रेमके कारण पाण्डव भगवान्के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की।
द्वारका में पहुँचकर भगवान् ने अपना पाँचजन्य शंख बजाया। उसे सुनकर सारी प्रजा श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए आगे आये। सबके मुखकमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं - ‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रतक करते हैं। आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें । हम आपको पाकर सनाथ हो गये।'
श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रहकी वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए। जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्की वह द्वारकापुरी भी वृष्णिवंशी यादवोंसे सुरक्षित थी। वह पुरी समस्त ऋतुओंके सम्पूर्ण वैभवसे सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओंके कुंजोंसे युक्त थी। स्थान-स्थानपर फलोंसे पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे । नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सड़कोंपर भगवान्के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे और भगवान्के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों ओर बिखरे हुए थे। घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे।
वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, बलराम, प्रद्युम्न, साम्ब आदि ने जब यह सुना कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मंगल शकुनके लिये एक गजराजको आगे करके ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले। श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए उत्सुक सैकड़ों स्त्रियाँ सज-धज कर पालकी में बैठकर उनकी अगवानी करने चल पड़ी। भगवान् श्रीकृष्णने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकोंसे उनकी योग्यताके अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया। किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया। इस प्रकार सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया।
सूतजी शौनकजी को कहते हैं कि जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारकाकी नारीयाँ भगवान्के दर्शनको ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियोंपर चढ़ गयीं। भगवान्का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मीका निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अंग-अंग शोभाके धाम हैं। भगवान्की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं।
भगवान् सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाया। माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियोंके अलग-अलग महल थे। अपने प्राणनाथ भगवान् श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियोंके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। सूतजी कहते हैं कि उस समय उनके नेत्रोंमें जो प्रेमके आँसू छलक आये थे, उन्हें संकोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशताके कारण वे ढलक ही गये ।
परीक्षितका जन्म
शौनकजीने कहा की अश्वत्थामाने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तराका गर्भ नष्ट हो गया था; परंतु भगवान्ने उसे पुनः जीवित कर दिया। उस गर्भसे पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्के, जिन्हें शुकदेवजीने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं।
तब सूतजीने कहा की उत्तराके गर्भमें स्थित परीक्षित् जब अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है । वह देखनेमें तो अँगूठेभरका है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोनेका मुकुट झिलमिला रहा है। उस के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है । जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरेको भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है । इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशुके सामने ही धर्मरक्षक श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये।
तदनन्तर शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्का जन्म हुआ। पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मंगलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये। उन्होंने बालक के नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी-घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया। तब ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को कहा कि यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्का परम भक्त और महापुरुष होगा।
युधिष्ठिरने पूछा ‘महात्माओ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा?’
ब्राह्मणोंने कहा, ‘धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकुके समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा । यह शिबिके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा । धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा । यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता-पिताके समान सहनशील होगा । इसमें ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान् शंकरकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेमें यह भगवान् विष्णुके समान होगा । यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार होगा और ययातिके समान धार्मिक होगा । धैर्यमें बलिके समान और भगवान् श्रीकृष्णके प्रति दृढ़ निष्ठामें यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुतसे अश्वमेधयज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ।’
ब्राह्मणों ने आगे बताया की परीक्षित के पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लंघन करनेवालोंको वह दण्ड देगा। वह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा । ब्राह्मणकुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर वह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्के चरणोंकी शरण लेगा । शुकदेवजीसे वह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गंगातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा। ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलग्नका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये ।
वही बालक संसारमें परीक्षित्के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह बालक गर्भमें जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगोंमें उसीकी परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमेंसे कौन-सा वह है । ‘परीक्षित’ शब्द का अर्थ होता है ‘परीक्षण करने वाला’। राजकुमार परीक्षित भी अपने गुरुजनोंके लालन-पालनसे शीघ्र ही बड़ा हो गया। इसी समय स्वजनोंके वधका प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेधयज्ञके द्वारा भगवान्की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये । उनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोंद्वारा छोड़ा हुआ बहुत-सा धन ले आये । उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके युधिष्ठिरने तीन अश्वमेधयज्ञोंके द्वारा भगवान्की पूजा की । युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान् ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे। इसके बाद श्रीकृष्ण अर्जुन को साथ लेकर पुनः द्वारका के लिये निकले।
सारांश: JKYog India Online Class- श्रीमद्भागवत कथा [हिंदी]- 12.07.2024